(सनी जंगल में एक रहस्यमय बच्चे से मिलता है जो तेंदुए से उसकी जान बचाता है। बच्चा नागों से जुड़ी शक्तियों वाला प्रतीत होता है। सनी जब निशा के साथ लौटता है, एक कॉल से पता चलता है कि साथ आई निशा असली नहीं थी। सुबह वही "निशा" घर में मौजूद मिलती है, लेकिन उसमें कुछ बदल चुका है—उसकी आवाज़, स्पर्श और मंत्रों की भाषा अलग है। सनी उसे प्रतापनगर भेज देता है, लेकिन बस में वो रहस्यमयी तरीके से गायब हो जाती है। उसी समय, घर में वही "निशा" फिर से सोई मिलती है… और एक परछाई उसे घूर रही होती है। अब आगे)
मुक्त बंधन
निशा चारों ओर फैले घने अंधकार में किसी अनजानी जगह में भाग रही थी।
"सनी! सनी!" उसकी आवाज़ हवाओं में घुल गई — जैसे पेड़ों ने उसकी पुकार को निगल लिया हो।
यह जंगल वैसा नहीं था, जैसा वो जानती थी। यह कुछ और था — कुछ पुराना, कुछ विकराल। पेड़ ज़मीन से नहीं, किसी धुएँ से भरे आसमान से उगते प्रतीत हो रहे थे। तभी दूर उसे एक खंडहरनुमा दुर्ग दिखाई दिया, जिसके दोनों ओर विशाल नाग फन उठाए पहरे पर खड़े थे।
निशा ठिठक गई।
तभी एक नाग फुफकारते हुए रूप बदलने लगा — वह वही नागपुरुष था, जिसने कुछ दिन पहले उनकी कार को हवा में उठा लिया था। अब वह उसकी ओर बढ़ रहा था — आँखें धधकती हुईं, और फन फैले… मानो स्वीकार कर रहा हो… या चेतावनी दे रहा हो।
सपना टूटता है।
निशा की आँखें फटी रह जाती हैं। उसने घबराकर चारों ओर देखा — वह अब भी उसी मखमली बिस्तर पर थी। लेकिन कमरा… हर वस्तु नागमय थी — दीपक, खंभे, यहां तक कि पलंग के पायों पर भी नाग-मूर्तियाँ उकेरी गई थीं।
वह बुरी तरह घबरा गई।
दहलीज़ की ओर दौड़ी, लेकिन जैसे ही पाँव दरवाज़े पर पड़ा — एक अदृश्य शक्ति ने उसे पीछे धकेल दिया।
फिर कोशिश की।
फिर… फिर… हर बार वही अदृश्य दीवार।
"यह… मैं कहां हूं?" उसने काँपते स्वर में बुदबुदाया।
तभी उसे अपनी ही साँसें नागों की फुफकार जैसी सुनाई दीं।
उसका दिल ज़ोर से धड़कने लगा — इतनी तेज़ कि उसे अपने कानों में उसकी ध्वनि सुनाई दी।
"तुम्हारी मां तुम्हारी रक्षा करेगी… कुछ भी हो जाए," वह अपने पेट पर हाथ रखते हुए फुसफुसाई।
आँखें भरी हुई थीं, पर चेहरा दृढ़।
कमरे की हर दीवार जैसे उसे खींच रही थी — नागों के फन, गोल संरचनाएँ, उलझते शरीर…
लेकिन वह… निशा… अब भी अपने भय के आगे झुकी नहीं थी।
"मैं क्यों नहीं जा पा रही? ये कैसा कमरा है?"
फिर वह छत की ओर देखती है।
ना पंखा, ना बल्ब… बस एक नीला क्रिस्टल, हवा में स्थिर… और कमरे को नीली रोशनी में डुबोता हुआ।
वह ठिठकी।
"यह सपना नहीं है…"
और तभी, एक रहस्यमयी आवाज़ गूंजी —
> "तुम इस दहलीज़ को पार नहीं कर सकतीं, रक्षिका। यह नागलोक की सीमा है।"
निशा चौंकी। गरजते हुए बोली —
> "कौन हो तुम? और मुझे रक्षिका क्यों कह रहे हो? मैं एक सामान्य इंसान हूं। और ये… ये सब क्या है? नागों की मूर्तियाँ, ये क़ैद?"
धीरे-धीरे एक बुज़ुर्ग नागपुरुष प्रकट हुआ — समय की चुप्पी ओढ़े।
> "तुम्हारे गर्भ में जो है, वह साधारण नहीं। वह रक्षिका है — नागलोक की भविष्यवाणी की संतान।"
निशा की आँखें लाल थीं।
> "तुम्हारी भविष्यवाणी से मुझे क्या? मैं अपनी बच्ची को किसी युद्ध, किसी लोक की राजनीति में नहीं झोंकने वाली। वह मेरी है, मेरी जिम्मेदारी है — कोई रक्षिका-वक्षिका नहीं।"
नागसाधु हल्का मुस्कराया —
> "यही दृढ़ता तुम्हें रक्षिका की माँ बनाती है… और इसीलिए, हम उसे छू भी नहीं सकते… जब तक तुम अनुमति न दो।"
निशा स्तब्ध। वह कुछ नहीं कह सकी।
कोने से तीन नाग-सेविकाएँ भीतर आईं — हाथों में चाँदी की थालियाँ, फल, वस्त्र, और कुछ नाज़ुक उपकरण।
> "रक्षिका माँ, ये आपकी आवश्यकताएँ हैं। कुछ और चाहिए तो बस आवाज़ दें।"
निशा अवाक्।
वो बस सिर हिला पाई।
सेविकाएँ उसी दहलीज़ से बाहर चली गईं, जिसे पार करना निशा के लिए असंभव था।
वह सोचने लगी —
"ये दरवाज़ा सिर्फ मेरे लिए बंद है? या मेरे भीतर कुछ ऐसा है जो मुझे रोक रहा है?"
गुस्से में बड़बड़ाई —
> "सीमाएँ सिर्फ़ मेरे लिए? ये बंदिशें क्या सच में नागलोक की हैं… या मेरे भीतर किसी डर की?"
वह बिस्तर पर लौटी।
उसने नाग-सेविकाओं द्वारा लाई चीजों को देखा।
वो सब कुछ भव्य और विलासिता से भरा था, लेकिन उसका मन घृणा से भरा।
> "मैं क्यों लूं इनसे कुछ? मैं कोई रक्षिका नहीं… मैं तो सिर्फ़ सनी की निशा हूँ।"
लेकिन भूख अहं से बड़ी थी।
उसने एक फल उठाया, और खा लिया।
कौर गले से उतरते ही, उसका प्रतिरोध भी थोड़ा उतर गया।
धीरे-धीरे बिस्तर पर लौट आई।
> "मैं सपना देख रही हूं… हाँ, बस सपना। अभी जागूंगी… और सनी मेरे पास होंगे।"
फीकी मुस्कान के साथ वह नींद में डूब गई — या शायद उसी सपने में लौट गई जिसे वह असल समझना चाहती थी।
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एक हफ्ता बीत गया...
न दिन था, न रात। समय मणियों की चमक से मापा जाता।
सेविकाएँ आतीं, जातीं — निशब्द।
निशा अब सवाल नहीं करती, बल्कि जवाब ढूँढने की कोशिश करती।
तीसरे हफ्ते, उसने अंततः अपनी झुंझलाहट बाहर निकाली —
> “मैं कुछ देर बाहर जाना चाहती हूँ… बस… खुली हवा चाहिए…”
वृद्ध सेविका आगे बढ़ी —
> "आप बाहर आ सकती हैं… लेकिन एक शर्त पर।"
> “अब कैदी को भी शर्तों पर आज़ादी दी जाएगी?”
> “यह दहलीज़ सिर्फ शरीर से नहीं, मन से पार की जाती है।”
निशा व्यंग्य से मुस्कराई —
> “अच्छा… अब दहलीज़ भी मूड देखती है?”
> “नागलोक में हर द्वार भाव से खुलता है, बल से नहीं।”
निशा आगे बढ़ी… लेकिन फिर वही अदृश्य दीवार।
> “आपके भीतर अभी भी प्रतिरोध है, रक्षिका। जब मन स्वीकार करेगा, तभी शरीर पार कर पाएगा।”
वह लौट गई।
बिस्तर पर बैठी रही।
फिर एक गहरी साँस ली…
"मैं तुम्हें ढूँढ रही हूँ, सनी… लेकिन शायद ये रास्ता भी तुम्हारी ओर ही जाता है।"
उसने मुस्कराकर एक कदम बढ़ाया…
…और दहलीज़ अब धूप से नहाए मार्ग की तरह खुल गई।
> “ये सब… मन से था…”
सेविकाओं ने उसे एक चमकदार गलियारे से गुज़ारा — जहाँ अंतिम छोर पर नागमणि रखी थी।
> "ये क्या है?"
> "नाग रक्षिका जी, ये नागमणि है। नागलोक की शक्ति का स्रोत।"
> "अगर कोई लेकर भाग गया तो?"
> "आपके होते हुए उसे कौन छू सकता है?"
निशा हँस पड़ी —
> "वाह! जो खुद 'किडनैप' हो रखी है, वो इसकी रक्षा करेगी।"
एक पल को चुप्पी।
> "आप अपना इतिहास नहीं जानती...पर आपका नागलोक के साथ संबंध…"
> "ख़बरदार! आगे कुछ कहा तो..."
वृद्ध नाग सेविका की आवाज़ गरजी — और हवाओं में ठहराव आ गया।
निशा ने मुँह खोला, फिर बंद कर लिया।
> "कभी-कभी… जवाबों से पहले मौन ज़रूरी होता है।"
वह लौट गई — एक और सोच के साथ।
उसके कदम धीमे थे, लेकिन अब भय नहीं… जिज्ञासा और संकल्प था।
कमरे में लौटकर, खिड़की से बाहर देखा — एक तारा बहुत तेज़ चमक रहा था।
> "मैं नहीं जानती ये सब क्या है… लेकिन अब मैं कमजोर नहीं पड़ूंगी।"
और फिर कमरे की मद्धम रोशनी में, सब कुछ एक बार फिर शांत हो गया।
-...
1. क्या निशा सचमुच नागलोक में क़ैद है, या यह सब उसकी मानसिक शक्ति की परीक्षा है?
2. उसके गर्भ में पल रही संतान… क्या वाकई नागों की भविष्यवाणी की रक्षिका है?
3. क्या सनी और निशा फिर मिल पाएंगे, या नागलोक की सीमाएँ उन्हें हमेशा के लिए अलग कर देंगी?
जानने के लिए पढ़ते रहिए "विषैला इश्क"