Ishq aur Ashq - 25 in Hindi Love Stories by Aradhana books and stories PDF | इश्क और अश्क - 25

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इश्क और अश्क - 25



उसने प्रणाली के चाकू वाले हाथों को अपने हाथों से पकड़ा, और एक तीव्र झटके में उसे घुमाकर सामने वाले पेड़ से सटा दिया। वर्धान के एक हाथ में अब चाकू था, और दूसरे हाथ को उसने प्रणाली की गर्दन के पास टिका रखा था। चाकू धीरे-धीरे उसके गालों को छूता हुआ नीचे सरक रहा था।

प्रणाली (डरी-सहमी आवाज़ में):
"ये क्या कर रहे हो...?"

वर्धान (आंखों में गहराई लिए हुए):
"जैसा तुमने बोला... मैं एक जासूस हूं, तुमपे नजर रख रहा हूं..."

वो बस उसे एकटक निहारता जा रहा था।

प्रणाली:
"छोड़ो मुझे..."

वर्धान (धीमे, गंभीर स्वर में उसकी आंखों में देखते हुए):
"सुनो फूल वाली... मुझे तुम्हारे महल में और उनके राज़ में कोई दिलचस्पी नहीं है।
और अगर मुझे जासूसी ही करनी होती तो मैं राजकुमारी की जान बचाता, न कि एक फूल वाली की...
तो अब जमीन पर उतर जाओ।"

इतना कह कर उसने प्रणाली को छोड़ दिया और वो खंजर भी फेंक दिया।

प्रणाली (नज़रें झुकाते हुए):
"मुझे माफ कर दो...? मुझे लगा की......"

वर्धान (सीधे देखते हुए):
"एक शर्त पर...
तुम मुझे बताओ कि तुम उदास क्यों हो...?"

प्रणाली (हैरानी में):
"तुम्हे कैसे पता......?"

वर्धान (थोड़ा नरम होकर):
"पता नहीं... पर मुझे लगा कि तुम उदास हो..."

प्रणाली चुपचाप एक फूलों वाले पेड़ के नीचे बैठ गई और बोलने लगी:

"मेरा सबसे अच्छा दोस्त और मेरा होने वाला जीवनसाथी मेरी वजह से खतरे में चला गया।"

वर्धान (हल्की सी मुस्कान के साथ):
"बस इतनी सी बात...? वो जल्दी आ जाएगा।
और प्रेम में एक प्रेमी और प्रेमिका ऐसा ही करते हैं, तुम फिक्र मत करो...!"

प्रणाली (धीमे स्वर में):
"वो मेरा प्रेमी नहीं है... हम दोस्त हैं।"

वर्धान (भौंहें उठाते हुए):
"क्या मतलब, विवाह होने वाला है और प्रेमी नहीं ही?"

प्रणाली:
"हम्मम...... मुझे नहीं पता प्रेम क्या है,
पर वो मेरा सबसे अच्छा दोस्त है और अब वो मेरी वजह से..."
(इतना कह कर वो रोने लगी)

वर्धान (आसमान की ओर देखता है, और थोड़ा तेज़ आवाज में):
"देखो दोस्तों... हमारे होते हुए हमारी मेहमान दुखी है... और तुम कुछ नहीं कर रहे..."

इतना कहने पर सारे आस-पास के पेड़ों ने फूल बरसाना शुरू कर दिया, हवाएं तेज़ हो गईं, उनकी खुशबुएं बिखर गईं।
इतना खूबसूरत नज़ारा देख कर उसका हृदय खिल उठा — जैसे चार साल के बच्चे की तरह...

वो उठ खड़ी हुई और उस लम्हे को जीने लगी।
कभी हाथों में उन पंखुड़ियों को समेटती, तो कभी अपने हाथों पर तितलियां बैठाती।

उसका झुका हुआ चेहरा, मासूम सी मुस्कान और वो बेबाक बचपना —
वर्धान की नज़रें उस पर टिकी रह गईं।
वो बस उस लम्हे को जीना चाहता था, उसे देखते रहना चाहता था।

(सोचता है):
"कोई इतना प्यारा भी हो सकता है क्या..."

प्रणाली ने उसका हाथ खींचा और अपने पास लाकर बोली:

"देखो, ये कितने खूबसूरत हैं।"

वर्धान (उसकी आंखों में देखते हुए):
"सच में... बहुत खूबसूरत हैं।"

प्रणाली (हैरान होकर):
"ये तुमने कैसे किया?"

वर्धान:
"ये सब मेरे मित्र हैं, और मैं इन्हीं से बातें करने यहां आता हूं..."

प्रणाली (धीरे से):
"ऐसा भी हो सकता है क्या...?"

वर्धान:
"ये सब छोड़ो, तुम कुछ खाओगी क्या...?"

इतना कह कर वो पास की नदी में कूद गया।

प्रणाली (हंसकर):
"ये तुम क्या कर रहे हो...?"

वर्धान (मुस्कराते हुए):
"कुछ खाने का इंतज़ाम कर रहा हूं।"

प्रणाली (थोड़ा प्यार से):
"तुम बिल्कुल पागल हो।"

वर्धान (धीमी सी मुस्कान के साथ):
"कम से कम तुम हंसी तो सही..."
(वो खुद में मुस्कुरा रहा है)

कुछ देर में वो कुछ पानी के फल, पानी से कुछ मछलियां लेकर एक जगह जुटा लेता है।
दोनो मिलकर उन्हें पका कर खाते हैं।

ये दिन बहुत ही खूबसूरत था।

शाम के वक्त प्रणाली अपने महल पहुंची।

वहां कुछ बात हो रही थी —

दरबान:
"महाराज, महल के पास एक बड़े पक्षी को उड़ते हुए देखा गया!"

महाराज:
"कल आपातकाल बुलाओ।"

तभी महाराज अग्रेण ने राजकुमारी को आते देखा।

प्रणाली:
"पिताजी... कुछ हुआ है क्या?"

अग्रेण (स्वर बदलते हुए):
"नहीं नहीं पुत्री... तुम जाके अपने कक्ष में आराम करो...
कल तुम्हारा बड़ा भाई आ रहा है...
बस उसके स्वागत की तैयारियां हो रही हैं।"

प्रणाली (आश्चर्य और खुशी में):
"क्या सच में...? कल बड़े भाई पारस आ रहे हैं...?"

अग्रेण (स्मित हंसी के साथ):
"हम्मम..."

प्रणाली बहुत खुश थी।
वो अपने कमरे में जाकर आज के बारे में सोच रही थी।

प्रणाली (मन में):
"उसने वो सब कैसे किया...?
क्या वो सब मेरे लिए था...?
वो कितना अच्छा है ना...
मुझे जानता भी नहीं और इतना कुछ किया..."


---

अगले दिन वो फिर उसी जंगल में शिकार के लिए पहुंची।
शिकार तो बस बहाना था, असल में वर्धान से मिलने आई थी।

वो उस जगह पहुंची जहां कल वो उससे मिली थी —
पर आज वहां कोई नहीं था।

प्रणाली (धीरे से):
"वो कहां है...?
क्या आज वो यहां नहीं आएगा...?
थोड़ा इंतजार करती हूं..."

उसने इंतज़ार करना शुरू किया, पर अभी तक कोई नहीं आया।
काफी घंटे बीत गए... वक्त खिसकता जा रहा था।

प्रणाली (हल्की बेचैनी में):
"वो नहीं आएगा क्या...?
तब तक मैं कल की तरह कुछ मछलियां पकड़ लूं क्या...?"

उसने आस-पास देखा — कोई नहीं था।

उसने अपना दुपट्टा उतार कर साइड रखा और नदी में कूद गई।
वो ठहरी राजकुमारी — और हाथों से मछलियां पकड़ने में लगी है — पर कुछ हाथ नहीं आया।

प्रणाली (झल्लाकर):
"ये क्या है...?
कल वो भी तो ऐसे ही पकड़ रहा था...
फिर मुझसे क्यों नहीं हो रहा...?"

प्रयास करते-करते वो बहुत अंदर चली गई नदी में...
अब उसे कुछ आवाजें आने लगीं।

प्रणाली (डरते हुए):
"ये कैसी आवाज है...?"

सामने का नज़ारा देखकर उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं।

प्रणाली (हड़बड़ाकर):
"मगर... वो इतने...?
इस पानी में मगर भी हैं...?
उसने कल मुझे बताया क्यों नहीं...?"

वो धीरे-धीरे पानी से निकलने की कोशिश कर रही थी,
पर पानी का तेज़ बहाव उसके पांवों को जमने नहीं दे रहा था — और वो धड़ाम से पानी में गिरी।
वहां सोते हुए मगर जाग चुके थे।

और भूखे के सामने अगर भोजन आ जाए — तो कौन पीछे रहेगा?

बस... तो फिर सामने शिकार देख कर — वो सारे एक साथ उसकी तरफ बढ़ने लगे।
प्रणाली डर के मारे सुन्न हो गई।
उसे समझ नहीं आया कि क्या करे — वो तैरने लगी... पर हिम्मत हार गई।

एक जगह आकर वो रुक गई — और सामने उसकी मौत खड़ी थी।

उसने अपनी आंखें बंद कर लीं।

उसके और उन तीन मगरमच्छों के बीच कुछ इंच की दूरी बची थी...
तभी पानी में कोई कूदा — हाथ में कुछ नुकीले डंडे...

हाँ! ये वर्धान ही था!

वर्धान उन डंडों की मदद से उन्हें रोकने की कोशिश कर रहा था — पर शायद नाकाम...

वर्धान (चीखते हुए):
"निकलो पानी से...!!"

प्रणाली को कुछ समझ नहीं आ रहा था — वो बिलकुल सुन्न खड़ी थी।

वर्धान (गुस्से में):
"तुम्हे कुछ सुनाई नहीं दे रहा क्या...!!"

पर प्रणाली का कोई जवाब नहीं...

थोड़ी ही देर में उसे समझ आ गया कि इनसे जीत पाना मुश्किल है,
तो उसने एक डंडे को लंबा करके एक मगर के मुंह में डाल दिया...
और ऐसा ही बाकी दोनों के साथ भी किया।

वर्धान:
"जल्दी निकलो!
ये ज़्यादा देर के लिए नहीं रुके..."

लेकिन प्रणाली कुछ न बोल पाई...

वर्धान ने उसे झटके से गोद में उठाया — और पानी से बाहर निकलने ही वाला था —
कि एक मगर वो डंडा निकालने में सफल हो गया, और उसने वर्धान के पैर पर जोरदार वार किया।

वर्धान ने उसे अपने पैरों से जोर से मारा और तुरंत बाहर आ गया।

उसे चोट लग चुकी थी — पर शायद गहरा घाव नहीं था।

पर वर्धान को अपने घाव से ज्यादा प्रणाली की फिक्र थी।

वर्धान (घबराई हुई आवाज में):
"तुम ठीक तो हो ना...?"

प्रणाली कुछ न बोल पाई।
वो कांप रही थी।

उसने उसे पकड़ कर झकझोर दिया:

"होश में आओ...!!"

प्रणाली को जैसे होश सा आ गया —
इतना भयानक मंजर उसने आज से पहले कभी नहीं देखा था।
होश में आते ही — वो वर्धान के सीने से लग गई — और जी भर के रोई।

वो रोते-रोते चिल्लाई:

"अच्छा हुआ तुम आ गए... वरना..."

फिर थोड़ी ही देर में रोते-रोते चिल्लाई:

"तुम इतनी देर से क्यों आए...?
मैं कितना डर गई थी..."

(और उसने वर्धान के सीने पर अपने नाज़ुक हाथों से मारा)

वर्धान (हल्की सी मुस्कान में):
"या तो रो लो, या गुस्सा कर लो..."


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