"तुम्हें हँसी आ रही है?" बूढ़े दादा ने कांपती आवाज़ में पूछा।
"हाँ, दादा... सिर्फ़ एक ककुड़ा ही तो है! बच्चों को डराने वाली कहानी," अर्जुन बोला और ज़ोर से हँस पड़ा।
लेकिन उस रात, जब हवाएं बिना किसी आहट के खिड़कियों से अंदर सरसराने लगीं, और दीवारों में से कोई अजीब फुसफुसाहट सुनाई देने लगी — अर्जुन को अहसास हुआ कि हर कहानी का आधार कल्पना नहीं होता… कुछ कहानियाँ अनुभव से लिखी जाती हैं।
गाँव रूपगढ़ एक समय पर हरा-भरा और खुशहाल था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से वहाँ सन्नाटा पसरा हुआ था। हर तीसरे शुक्रवार को, एक घर से चीखें आती थीं, और सुबह उस घर का कोई न कोई सदस्य लापता होता। गाँव वालों ने इसे "ककुड़ा" का काम कहा — एक छाया जो दरवाज़े के पीछे छुपकर इंसानों की आत्मा को पी जाती है।
अर्जुन, एक युवा शोधकर्ता, ने इन अफवाहों को अंधविश्वास समझा और गाँव आने का निर्णय लिया। उसने गाँव के सबसे पुराने और वीरान घर में रहना शुरू किया — वह घर, जहाँ 5 साल पहले से कोई नहीं रहता था, क्यूँकि कहते हैं वहाँ ककुड़ा का डेरा है।
घर पुराना था, लेकिन सबसे अजीब चीज़ थी — एक लाल रंग का दरवाज़ा, जो लोहे की जंजीरों से जकड़ा हुआ था। किसी ने अर्जुन को बताया, "उस दरवाज़े को खोलना, मौत को न्योता देना है।"
अर्जुन मुस्कराया, "दरवाज़े आत्मा नहीं पीते। डर लोगों के दिमाग में होता है।"
पर हर रात, उस दरवाज़े के पीछे से किसी के चलने की आवाज़ आती। जैसे कोई अपने नाखूनों से लकड़ी कुरेद रहा हो, या कोई भारी साँसे ले रहा हो। और फिर आती थी एक बहुत हल्की, पर बेहद ठंडी फुसफुसाहट –
"तू आया है... मुझे खोलने..."
अर्जुन ने रिकॉर्डिंग सेट की, कैमरे लगाए, पर वीडियो में सिर्फ़ एक चीज़ कैद होती – दरवाज़ा धीरे-धीरे हिलता... और एक परछाईं दीवारों पर रेंगती हुई दिखती।
एक रात अर्जुन को घर के नीचे एक तहखाने का रास्ता मिला। वहाँ दीवारों पर खून से लिखा था –
"ककुड़ा सिर्फ़ एक नहीं है... वो वही बनता है, जिससे तुम सबसे ज़्यादा डरते हो।"
उसने तहखाने में कुछ पुरानी फोटोज़ पाईं – एक लड़के की, जिसकी आँखें कोयले जैसी काली थीं, और वह उसी लाल दरवाज़े के सामने खड़ा था। पीछे लिखा था – "आरव – ककुड़ा का पहला मेज़बान।"
अर्जुन, पूरी सच्चाई जानने के लिए, उस दरवाज़े की जंजीरें खोल देता है। अंदर अंधेरा है, मगर उसकी टॉर्च जैसे ही जलती है, वह देखता है – दीवारें खाल से ढकी हुई हैं। और बीचोंबीच बैठा है एक आदमी… या शायद वो आदमी नहीं रहा… उसकी आँखें खाली हैं, और मुँह से एक साँप जैसा लंबा काला धुँआ निकल रहा है।
"मैं ककुड़ा नहीं हूँ…" वह बोलता है,
"तू ककुड़ा बनेगा… अब मैं मुक्त हूँ।"
अर्जुन चीखता है, लेकिन तभी उसका शरीर अकड़ने लगता है। वह खुद को उस लाल दरवाज़े के भीतर बंद पाता है, और बाहर से जंजीरें फिर से बंध जाती हैं।
कुछ दिनों बाद, गाँव में एक नई आवाज़ गूंजती है —
"अर्जुन? वो शहर वाला लड़का? वो तो वापस चला गया… मगर वो घर फिर से बंद हो गया है… और हाँ, अब उस दरवाज़े के पीछे कोई और फुसफुसाता है…"
"क्या कह रहा होता है?"
"बस इतना... अब मेरी बारी है…"
डर खत्म नहीं हुआ… ककुड़ा अब कोई और है। शायद तुम्हारे शहर में… तुम्हारे दरवाज़े के पीछे…