बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का सपना
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, तब भी उतना ही कठिन था जितना आज है।
प्रकाश ने इंटरमीडिएट में प्रथम श्रेणी से परीक्षा उत्तीर्ण की थी। साइंस विषय में उसकी विशेष रुचि थी — खासकर भौतिकी (Physics)। उसका सपना था कि वो विज्ञान में गहराई से अध्ययन करे और एक दिन शिक्षक बने — एक ऐसा शिक्षक जो सिर्फ किताबें नहीं, ज़िंदगी पढ़ाना सिखाए।
फार्म भरने के लिए वो बनारस गया — हाथ में झोला, जेब में फीस की सीमित राशि, और दिल में अपने पिता का नाम।
वहाँ लंबी लाइनें थीं। कोई पंखा नहीं था, केवल गर्म हवा, और छात्रों की भीड़। लेकिन वो रुका नहीं।
जब उसका नंबर आया, तो उसने पूरी विनम्रता से अपने दस्तावेज़ रखे। क्लर्क ने आँखों पर चश्मा चढ़ाया और फाइल देखी।
“बेटा, प्रथम श्रेणी है... साक्षात्कार में आत्मविश्वास रखा तो सीट मिल जाएगी,” उसने कहा।
प्रकाश ने सर हिलाया।
🧑🏫 साक्षात्कार का दिन:
सादे कपड़े पहने, बाल ठीक से बनाए, हाथ में पुरानी कॉपी और आँखों में उजाला लिए वो इंटरव्यू रूम में गया।
प्रोफेसर ने पूछा —
"क्यों प्रकाश, तुम्हें हमारे विश्वविद्यालय में क्यों पढ़ना है?"
प्रकाश ने थोड़ी देर चुप रहकर कहा,
"क्योंकि यहीं वो ज्ञान है, जिसके सहारे मैं न सिर्फ़ अपने जीवन को बदल सकता हूँ, बल्कि दूसरों की ज़िंदगियाँ भी रोशन कर सकता हूँ..."
एक गहरा मौन हुआ। फिर प्रोफेसर मुस्कराए और बोले —
"तुम्हारा नाम 'प्रकाश' है, और तुम्हारी बातों में भी उजाला है। तुम्हें दाख़िला मिल गया।"
🌼 माँ की आँखों में चमक:
जब प्रकाश ने घर लौटकर अपनी माँ को बताया —
“अम्मा... हमारा सपना मंज़ूर हो गया।”
माँ ने कुछ नहीं कहा। बस गंगा जल अपने हाथ से उसके सिर पर छिड़का और उसे गले से लगा लिया। उसकी आँखों से बहती वो चुप्पी — किसी गीत से कम न थी।
पहली मुलाकात: राधिका और प्रकाश….
"पहला दिन — जब एक टकराव से शुरू हुई दास्तान"
सूरज की पहली किरणें गंगा के पानी पर पड़तीं तो लगता जैसे सोने की पतली परत तैर रही हो।
उसी उजाले में, अपने कंधे पर भारी भरकम झोला और हाथों में किताबों का एक बड़ा-सा गठ्ठर लिए प्रकाश अपने पहले दिन विश्वविद्यालय की ओर तेज़ कदमों से बढ़ रहा था।
उसके चेहरे पर एक अलग ही चमक थी — एक मासूम मुस्कान जिसमें आत्मविश्वास और कृतज्ञता दोनों थे।
अंदर ही अंदर वो भगवान से मन ही मन प्रार्थना कर रहा था —
“हे भोलेनाथ... आज सब ठीक करना...”
कैंपस का गेट, सैकड़ों छात्रों से भरा हुआ था। कुछ लड़के हँसी-ठिठोली कर रहे थे, कुछ किताबें संभाल रहे थे, तो कोई दीवार से टेक लगाकर कॉफी पी रहा था।
लेकिन प्रकाश की दुनिया में उस वक़्त बस एक ही चीज़ थी —
ज्ञान।
और फिर...
जैसे ही वह गेट पार करने ही वाला था —
एक ज़ोरदार टक्कर हुई।
किताबें चारों ओर बिखर गईं। दो हाथ — एक प्रकाश के, एक किसी लड़की के — ज़मीन पर गिरी किताबें समेट रहे थे।
प्रकाश ने झुकते हुए धीरे से कहा —
"माफ कीजिए, मेरी नज़र नहीं थी..."
पर उसके शब्द पूरे होते उससे पहले ही...
एक तेज़, करारा तमाचा उसके दाहिने गाल पर पड़ा।
"तमीज़ नहीं है क्या? अंधे हो क्या?" — वो लड़की चिल्लाई।
लड़की की आँखें क्रोध से भरी थीं। उसके बाल हल्के उलझे हुए थे, शायद तेज़ी से चलने के कारण। सफ़ेद सलवार-कमीज़ पहने, उसने किताबें सीने से लगा लीं और गुस्से से उसकी ओर देखा।
प्रकाश स्तब्ध था।
उसका गोरापन, जो धूप में हल्की सुनहरी आभा दे रहा था — अब उस पर थप्पड़ का गुलाबी निशान साफ़ झलक रहा था।
उसके गाल पर दर्द नहीं था — पर मन में एक झटका सा था।
ना उसने पलटकर कुछ कहा,
ना गुस्साया...
बस एक शांति से किताबें समेटी और वहीं खड़ा रहा।
लड़की कुछ दूर जाकर रुकी।
उसने पलटकर देखा —
वो लड़का अब भी वहीं खड़ा है, और उसकी आँखों में...
क्रोध नहीं, बल्कि खामोश सम्मान था।
कुछ पल को वह भी चुप रह गई।
लेकिन कुछ कहे बिना वो तेज़ी से चली गई — जैसे कुछ था जो उसे खुद से भी समझ नहीं आया।
प्रकाश ने एक लंबी साँस ली।
“पहला दिन और ये स्वागत…” उसने खुद से बुदबुदाया,
फिर आसमान की ओर देखकर मुस्कुराया — जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने उसकी परीक्षा ली हो।