Nehru Files - 29 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-29

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नेहरू फाइल्स - भूल-29

भूल-29 
कश्मीरी पंडित बनाम कश्मीरी पंडित 

कश्मीरी पंडितों (के.पी.) पर अत्याचार करनेवाले खुद कश्मीरी पंडित ही रहे हैं—शेख अब्दुल्ला जैसे धर्मांतरित कश्मीरी पंडित या फिर नेहरू जैसे कश्मीरी पंडित, जिन्होंने सर्वप्रथम तो कश्मीर समस्या को पैदा किया और फिर उसका हल निकालने के बजाय उसे और अधिक जटिल तथा लगभग असाध्य बना दिया। 

वी. कृष्णा अपनी पुस्‍तक ‘सरदार वल्लभभाई पटेल’ में लिखते हैं— 
“नेहरू ने अगस्त 1945 में घाटी के सोपोर में आयोजित नेशनल कॉन्फ्रेंस के राष्ट्रीय सम्मेलन में जो कुछ कहा, उससे अब्दुल्ला के प्रति उनका झुकाव स्पष्ट था, ‘अगर गैर- मुसलमान कश्मीर में रहना चाहते हैं तो उन्हें नेशनल कॉन्फ्रेंस में शामिल हो जाना चाहिए या फिर देश को अलविदा कह देना चाहिए। अगर पंडित इसमें शामिल नहीं होते हैं तो कोई भी सुरक्षा या महत्त्व उन्हें बचा नहीं पाएगी।’” (बी.के./374) 

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अपने ही लोगों को धमकाते नेहरू! और वह भी उनके द्वारा की गई किसी गलती के लिए नहीं, बल्कि उन्हें अलोकतांत्रिक तरीके से एक ऐसे व्यक्ति (शेख अब्दुल्ला) का समर्थन करने के लिए मजबूर करने को, जो आगे जाकर कट्टरपंथी और देश-विरोधी निकला। इस घटना के करीब 45 वर्ष बाद, 5 लाख कश्मीरी पंडितों को नेहरू की करनी का फल भोगना पड़ा और कश्मीर घाटी (जो हजारों वर्षों से उनका घर थी) से उनका जातीय सफाया कर दिया गया। 
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शेख अब्दुल्ला खुद एक धर्मांतरित कश्मीरी पंडित थे। दूसरी पीढ़ी के धर्मांतरित सर अल्लामा मुहम्मद इकबाल, जो पाकिस्तान की अवधारणा को संरक्षण देनेवालों में से एक थे, का जिन्ना पर अत्यधिक प्रभाव था। उन्होंने ही आखिरकार जिन्ना को एक उदारवादी और हिंदू-मुसलमान एकता की वकालत करनेवाले से एक कट्टर व्यक्ति में बदल दिया था। 30 जून, 2007 को ‘द टेलीग्राफ’ में खुशवंत सिंह के छपे एक लेख ‘इकबाल्स हिंदू रिलेशंस’ (के.एस.2) के अनुसार—“इकबाल (1877-1938) के पिता रतन लाल सप्रू थे, जो एक कश्मीरी पंडित थे। वे कश्मीर के अफगान गवर्नर के राजस्व कलेक्टर थे। उन्हें पैसों का हेर-फेर करते हुए पकड़ा गया। गवर्नर ने उनके सामने एक विकल्प रखा—या तो इसलाम धर्म अपना लो या फिर फाँसी पर लटक जाओ। रतन लाल ने जीवित रहना चुना। उन्हें धर्मांतरण के बाद ‘नूर मोहम्मद’ नाम दिया गया। सप्रुओं ने उन्हें अस्वीकार कर दिया और उनके साथ सभी संबंध खत्म कर लिये। 

कश्मीरी पंडितों को घाटी से खदेड़नेवाले भी खुद धर्मांतरित कश्मीरी पंडित ही हैं। कट्टरपंथी इसलाम वर्चस्ववादी, असहिष्णु, अमानवीय और क्रूर है, बिल्कुल आई.एस.आई.एस. की तरह। 

यह बात कि के.पी. ही अपने खुद के सबसे बुरे दुश्मन रहे हैं, इस बात को कुछ दिलचस्प ऐतिहासिक प्रकरणों से साबित किया जा सकता है, जो नीचे दिए गए हैं— 
रिनचिन लद्दाख के एक बौद्ध थे। उस समय कश्मीर में हिंदू धर्म (शैव मत) प्रमुख धर्म था। इसलाम बेहद गौण था और उस समय सैयद बिलाल शाह द्वारा प्रसारित किया जा रहा था, जो ‘बुलबुल शाह’ के रूप में लोकप्रिय थे। सहदेव के भाग जाने और दुलाचा के चले जाने के बाद सहदेव के सेना प्रमुख रामचंद्र ने कश्मीर के सिंहासन पर कब्जा कर लिया। लेकिन रिनचिन, जो सहदेव के प्रशासन में एक महत्त्वपूर्ण पद पर थे, ने साजिश रची और रामचंद्र का सफाया कर दिया तथा सन् 1320 में उनकी गद्दी पर काबिज हो गए। उनके इस पाप से नाराज हुई जनता को मनाने के लिए रिनचिन ने रामचंद्र की बेटी कोटा रानी से शादी कर ली। कोटा रानी के कहने पर ही रिनचिन ने बौद्ध धर्म को त्याग दिया और जनता के बीच स्वीकार्य होने के लिए शैव मत को अपना लिया। लेकिन कश्मीरी पंडितों ने यह कहते हुए उसे अपने धर्म संघ में अपनाने से इनकार कर दिया कि उसका धर्मांतरण संभव नहीं था। एक किंवदंती के मुताबिक, वे यह नहीं तय कर सके कि उन्हें किस जाति में रखें? इस अस्वीकरण की प्रतिक्रियास्वरूप और शाह मीर के कहने पर रिनचिन इसके बाद बुलबुल शाह के पास पहुँचे, जिन्होंने उन्हें इसलाम धर्म कुबूल करवाया और उन्हें एक नया नाम ‘सुल्तान मलिक सदरुद्दीन’ दिया। रिनचिन ने बाद में एक मसजिद का निर्माण किया, जिसे ‘बद्रो मसजिद’ कहा जाता है तथा लद्दाख के बौद्ध और कश्मीरी मुसलमान दोनों इसका पूरा सम्मान करते हैं। एक बार राजा के इसलाम धर्म अपना लेने के बाद कई अन्य लोगों ने भी ऐसा ही किया और इस तरह इसलाम कश्मीर घाटी में फैल गया। 

और पंडितों ने इस प्रकार से एक सेल्फ-गोल किया। इसलिए, देखा जाए तो एक प्रकार से घाटी में इसलामीकरण को बढ़ावा देने के लिए कश्मीरी पंडित खुद ही दोषी हैं; हालाँकि बाद में यह काम राज्य द्वारा समर्थित एक अभियान के रूप में चला (उपदेश, संरक्षण, प्रोत्साहन, यातना और जबरन धर्मांतरण के जरिए), जिसने पंडितों को भारी बहुसंख्यक से अल्पसंख्यक में बदल दिया है।