भूल-54
समय पर काम आने वाले मित्र इजराइल काे झिड़कना
नेहरू की विदेश नीति की विडंबना और अर्थहीनता पर ध्यान न जाना बेहद मुश्किल है—नेहरू के नेतृत्ववाला भारत उन चुनिंदा प्रारंभिक देशों में से था, जिन्होंने पी.आर.सी. (पीपुल्स रिपब्लिक अॉफ चाइना) सरकार को मान्यता दी थी, जब सन् 1949 में कम्युनिस्टों ने सत्ता सँभाली थी; जबकि वास्तव में वे चियांग काई-शेक और उनकी आर.ओ.सी. (रिपब्लिक अॉफ चाइना) ही थे, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को समर्थन दिया था, माओ और पी.आर.सी. नहीं।
उसके बाद जब इजराइल की बारी आई तो नेहरू ने सितंबर 1950 तक उसे एक देश के रूप में मान्यता ही प्रदान नहीं की, जबकि उसकी स्थापना 14 मई, 1948 को ही हो चुकी थी और दुनिया के अधिकांश देश उसे मान्यता दे चुके थे।
एक तरफ जहाँ नेहरू चीन के संयुक्त राष्ट्र और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थान बनवाने के लिए अभियान चला रहे थे, वह भी अपने खुद के मौकों को छोड़कर (भूल#53); भारत ने न सिर्फ संयुक्त राष्ट्र के उस प्रस्ताव के विरोध में मतदान किया, जिसके चलते इजराइल का निर्माण हुआ, बल्कि भारत ने तो सन् 1949 में इजराइल के संयुक्त राष्ट्र में शामिल होने के खिलाफ भी मतदान किया! और ऐसा तब किया, जब चीन को जो करना था, उसने कर दिखाया (तिब्बत पर कब्जा और 1962 का भारत-चीन युद्ध करके), जबकि इजराइल वास्तव में भारत का समय पर काम आनेवाला मित्र था!
29 नवंबर, 1947 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने फिलिस्तीन की संशोधित संयुक्त राष्ट्र विभाजन योजना पर मतदान किया, जिसमें यहूदियों के लिए इजराइल का निर्माण प्रभावी रूप से शामिल था। 33 देशों ने इसके पक्ष में मतदान किया (जिनमें अमेरिका, यूरोपीय देश, सोवियत संघ और पूर्वी यूरोपीय देश और लैटिन अमेरिकी देश शामिल थे), जबकि 13 ने इसके विरोध में मत दिया। 10 ने मतदान नहीं करने का फैसला किया और 1 देश अनुपस्थित रहा। मतदान नहीं करनेवालों में रिपब्लिक अॉफ चाइना और यूगोस्लाविया शामिल थे।
इसके विरोध में मतदान करनेवालों में 10 मुसलमान देश शामिल थे, जो थे—अफगानिस्तान, मिस्र, ईरान, इराक, लेबनान, पाकिस्तान, सऊदी अरब, सीरिया, तुर्की और यमन। इसके अलावा 3 और देश जो थे—क्यूबा, ग्रीस और एक अन्य देश। सोचिए, वह एक और देश कौन था? बेहद अफसोसजनक, वह था भारत। ऐसा अल्बर्ट आइंस्टीन की नेहरू को व्यक्तिगत अपील के बावजूद हुआ। ‘व्हेन नेहरू शण्ड आइंस्टीन्स रिक्वेस्ट टू सपोर्ट द ज्युइश कॉज’ नामक लेख के कुछ प्रमुख अंश : (स्व5)
“अल्बर्ट आइंस्टीन ने 11 जून, 1947 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लिखकर वैश्विक भू-राजनीतिक मामलों में एक असाधारण हस्तक्षेप किया। उन्होंने भारतीय नेता से प्रार्थना की कि वे ‘फिलिस्तीन में एक बार फिर यहूदी मातृभूमि को बनाने के जिएनिस्ट प्रयास’ का समर्थन करें। नेहरू की नैतिक संवेदनाओं से अपील करते हुए उन्होंने अपना सारा ध्यान इस नैतिक सवाल पर रखा कि क्या यहूदियों को अपने ‘पूर्वजों की मिट्टी’ में एक मातृभूमि की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए? आइंस्टीन ने अपने पत्र में यहूदियों के साथ की गई ऐतिहासिक गलतियों का विस्तार से वर्णन किया, जिन्हें सदियों से ‘पीड़ित और खदेड़ा’ जा रहा है। उन्होंने लिखा कि लाखों यहूदी लोगों की मौत सिर्फ नाजी गैस चैंबरों के कारण ही नहीं, बल्कि इसलिए भी हुई है, क्योंकि ‘उनके पास पूरी धरती पर कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ पर वे शरण पा सकें।’ उन्होंने लिखा कि जियोनिज्म इतिहास की इस विसंगति को खत्म करने का साधन था और इन सताए हुए लोगों के लिए उस भूमि में बस जाने का एक समाधान, जिसके साथ उनके ‘ऐतिहासिक संबंध’ हैं।” (स्व5)
एक देश, जिसे सिर्फ चंद महीनों पहले ही 15 अगस्त, 1947 को 1,000 से भी अधिक वर्षों के विदेशी प्रभुत्व, कलंक, अपनी संस्कृति एवं धर्म के अपमान और कमरतोड़ शोषण से आजादी मिली थी, को एक दूसरे देश के निर्माण या फिर स्वतंत्रता की कद्र करनी चाहिए थी, विशेष रूप से यहूदियों के लिए, जो इसके पूर्ण हकदार भी थे। यहूदी भी सदियों तक बिल्कुल वैसे ही पीड़ित रहे, जैसे हिंदू रहे थे; हालाँकि कहीं अधिक समय तक। हमारे मन में उनके प्रति सहानुभूति का भाव होना चाहिए था। लेकिन नेहरू? अब कोई उनकी पेचीदा सोच, दोषपूर्ण विश्व-दृष्टि और त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण के बारे में क्या कह सकता है! भारत उसके विरोध में मतदान करने के बजाय कम-से- कम मतदान से दूर ही रह सकता था।
नेहरू तिब्बत पर चीन की संप्रभुता को तो मान्यता दे सकते थे, जिसका भारत पर बेहद प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, लेकिन वे इजराइल के साथ संबंध नहीं बना सके, जिसका बहुत कुछ बिल्कुल भारत जैसा ही था और जिसके साथ संबंध विभिन्न क्षेत्रों में बेहद फायदेमंद भी साबित हो सकते थे। इंदिरा गांधी ने अपने पिता की तरह और राजीव गांधी ने बिल्कुल अपनी माँ के नक्शे- कदम पर चलकर इजराइल के साथ दूरी बनाए रखी। नेहरू-इंदिरा राजवंश ने जो कुछ किया, वह और कुछ नहीं, सिर्फ देश की कीमत पर उनके अपने स्वार्थ से प्रेरित वोट बैंक की राजनीति (अल्पसंख्यक मुसलमानों के वोट) थी। आखिरकार, इजराइल के साथ औपचारिक संबंध स्थापित करने का काम गैर-राजवंशीय और बुद्धिमान प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने सन् 1992 में किया।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि नेहरू-इंदिरा राजवंश के इजराइल के प्रति अन्यायपूर्ण व्यवहार के बावजूद इजराइल ने भारत की अपने पड़ोसियों से हुए विभिन्न युद्धों में जितनी संभव हो सकी, उतनी मदद की। भारत ने सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध (हिन1) और 1971 के बँगलादेश युद्ध के दौरान इजराइल से हथियार माँगे और उसे मिले। इजराइल हमें बेहद महत्त्वपूर्ण सैन्य और सुरक्षा उपकरणों की आपूर्ति करता रहा है। इसकी आधुनिक और अभिनव कृषि-पद्धतियाँ भारत द्वारा अपनाए जाने योग्य हैं। प्राकृतिक संसाधनों की भारी कमी, युद्धों और चारों तरफ मौजूद दुश्मनों के बावजूद सिर्फ सन् 1948 में ही अस्तित्व में आनेवाला इजराइल आज कुछ ही दशकों के भीतर एक चमकता हुआ विकसित देश बन गया है; जबकि नेहरू के वंश के नेतृत्व में भारत एक गरीब, दुःखी, तीसरे दर्जे का विकासशील देश ही बना हुआ है।
‘इजराइल और यहूदियों’ के बारे में विस्तार से जानने के लिए कृपया ब्लॉग-शृंखला देखें—http://rajnikantp.blogspot.in/2014/10/israel-jews-i-faqs-truthsfascinating.html
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भूल-55
दक्षिण-पूर्वी एशिया की उपेक्षा करना
दक्षिण कोरिया के पार्क चुंग-ही ने जब अपने देश की सत्ता सँभाली, तब उनके देश की गिनती दुनिया के सबसे गरीब और दयनीय देशों में की जाती थी (भारत की आजादी के समय वह भारत से भी कहीं अधिक गरीब था) और वे दक्षिण कोरिया को प्रगति के ऐसे स्वचलित रास्तेपर ले गए, जहाँ से वह विकसित देश से की श्रेणी में पहुँच गया। आज दक्षिण कोरिया एक ऐसा समृद्ध, चमचमाता, आत्मविश्वास से भरा हुआ देश है, जो कई उन्नत विकसित पश्चिमी देशों को आसानी से पीछे छोड़ दे। वर्तमान में, दक्षिण कोरिया की प्रति व्यक्ति आय भारत के मुकाबले 1,400 प्रतिशत अधिक है; हालाँकि हमारी स्वतंत्रता के समय यह बिल्कुल बराबरी पर थी।
इसके बावजूद नेहरू ने दक्षिण-पर्वीू एशियाई देशों के साथ संबंधों को न के बराबर महत्त्व दिया और वे उनके प्रति दंभपूर्ण बने रहे; हालाँकि उनके बेहतर आर्थिक विकास के दृष्टिगोचर भारत उनसे बहुत कुछ सीख सकता था। नेहरू के दंभपूर्ण व्यवहार का एक उदाहरण देखिए—एक तरफ जब भारत भीख का कटोरा लिये पूरी दुनिया के सामने हाथ फलैा रहा था, नेहरू ने तब भी दक्षिण- पर्वी ू देशों के प्रति अपने व्यंग्यात्मक रवैए में कोई परिवर्तन नहीं किया, जो वास्तव में उम्मीद से कहीं बेहतर काम कर रहे थे। दुर्गा दास ने लिखा (वर्ग कोष्ठक में इटैलिक्स में लेखक के विचार हैं)—
“थाईलैंड के प्रधानमंत्री के साथ एक बात बेहद अर्थपूर्ण रही। उन्होंने शिकायत की कि नेहरू ने थाई सरकार को भ्रष्ट के रूप में अभिलक्षित किया था [नेहरू सरकार के दौरान हुए वित्तीय घोटालों के बारे में क्या?] और कहा था कि देश की ‘कोकाकोला अर्थव्यवस्था’ है।...प्रधानमंत्री ने मुझे बताया कि थाईलैंड की स्वतंत्रता की पुरानी परंपरा है और अगर उसने अमेरिका के छाते के नीचे आने का फैसला किया था तो ऐसा अपनी स्वतंत्रता को बचाए रखने के लिए किया था। अगर नेहरू उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने को तैयार थे [यह एक अलग बात थी कि भारत खुद को सुरक्षित नहीं रख सका!] तो भी थाई भारत के साथ रहने को ही प्राथमिकता देते, क्योंकि थाई संस्कृति मुख्यतः भारतीय ही है। [उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि नेहरू के नेतृत्व में भारत अपनी संस्कृति की ही परवाह नहीं कर रहा!]... जब मैंने उन्हें सुझाव दिया कि राजा और प्रधानमंत्री की भारत-यात्रा स्थितियों को सुधार सकती है, तो उन्होंने जवाब दिया कि दिल्ली में मौजूद उनके बेहद अनुभवी राजदूत ने उन्हें ऐसी कोई यात्रा करके अपना और अपमान न करवाने की चेतावनी दी है। वे अपने शासक को ईश्वर का अवतार मानते थे और वे तब तक भारत नहीं आएँगे, जब तक कि उन्हें एक सौहार्दपूर्ण स्वागत का आश्वासन नहीं दिया जाता।” (डी.डी./342)
जापान, जिसकी जी.डी.पी. 1950 के दशक की शुरुआत में करीब-करीब भारत जितनी ही थी, 1980 के दशक तक इतनी तेजी से आगे बढ़ा कि भारत की जी.डी.पी. जापान के जी.डी.पी. की मात्र 17 प्रतिशत ही थी। इसके अलावा, भारत ने तेजी से बढ़ते जापान को भी झिड़क दिया था। नेहरू के दाएँ हाथ कृष्णा मेनन ने जापानी कॉरपोरेट प्रतिनिधियों के सहयोग के प्रस्तावों को यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि दोनों देशों की नीतियों में भारी अंतर होने के चलते ऐसा होना संभव ही नहीं है।” (डी.डी./346)
जापान और साथ ही दक्षिण कोरिया, ताइवान एवं सिंगापुर ने जो हासिल किया, वह इसलिए संभव हो पाया, क्योंकि उनके नेताओं ने किसी भी मंजिल तक न पहुँचानेवाले राजनीतिक रूप से सुविधाजनक और अपना खुद का लाभ देखनेवाले लोक-लुभावन समाजवादी तरीके को अपनाने से इनकार कर दिया; साथ ही यह नहीं सोचा कि सोवियत की नकल करना रामबाण दवा है।
ली क्वान यू सिगांपुर की प्रति व्यक्ति आय को सन् 1959 के 400 डॉलर से 55,000 डॉलर तक ले गए। इसके बावजूद नेहरू-इंदिरा के दौर में भारतीय समाजवादियों ने ली को तिरस्कार की दृष्टि से देखा और उन्हें एक ऐसी नव-औपनिवशिे क कठपुतली माना, जिसकी किस्मत अपमान और गरीबी है। (यू.आर.एल.64)