भूल-56
भारत बनाम अमेरिका और पश्चिम
भारत बहुत कुछ हासिल कर सकता था, अगर उसने पश्चिम के साथ हाथ मिला लिया होता या कम-से-कम थोड़ा सा पश्चिम-समर्थक होता, या उनकी तरफ थोड़ा सा झुक गया होता, विशेषकर अमेरिका और ब्रिटेन की तरफ। अगर ऐसा हुआ होता तो शायद कश्मीर का विवाद न हुआ होता और न ही चीन या पाकिस्तान ने भारत पर हमला करने की जुररत की होती। इसके अलावा, अगर हमने पश्चिम की मुक्त बाजार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को अपना लिया होता तो हम कहीं अधिक बेहतर स्थिति में होते और भारत शायद 1980 के दशक में ही विकसित देश बन गया होता। इसके बजाय नेहरू ने कम्युनिस्ट गुट के प्रति अपने पर्वाग्रह का प्रदर्शन किया, हालाँकि वे बात करते थे गुटनिरपेक्षता की! ऐसा इसलिए था, क्योंकि नेहरू का दृष्टिकोण मूलतः मार्क्सवादी-समाजवादी था। विशेषकर, सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान, जबकि कोई भी कम्युनिस्ट या गुटनिरपेक्ष राष्ट्र भारत की मदद के लिए आगे नहीं आया था, तब वह अमेरिका ही था, नेहरू और उनकी मंडली लगातार जिसकी कड़ी आलोचना करती रहती थी, जो भारत के बचाव में सामने आया था।
भारत के हितों के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण अमेरिका के प्रति भी नेहरू का रवैया बेहद उदासीन था, जो आगे की घटनाओं से स्पष्ट होगा। राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी के विशिष्ट सहायक और प्रतिष्ठित इतिहासकार, आर्थर श्लेसिंजर जूनियर अपनी पुस्तक में नेहरू की सन् 1961 की अमेरिका यात्रा के विषय में लिखते हैं—“उनकी (नेहरू की) ताकत जवाब दे रही थी और वे पूर्व की अर्जित गति की वजह से अपना नियंत्रण बनाए रखते थे, न कि वर्तमान की महारत से।... नेहरू बिना किसी भावाभिव्यक्ति के सुनते थे। उन्होंने बातचीत में सिर्फ जैकलीन (केनेडी) के प्रति रुचि और उत्साह प्रदर्शित किया। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच की निजी बैठकें इतनी अच्छी नहीं थीं। नेहरू अत्यधिक निष्क्रिय थे और केनेडी के लिए कई बार तो बातचीत को जारी रखना बेहद भारी हो गया। यह ऐसा था, जैसाकि राष्ट्रपति ने बाद में कहा, ‘जैसे आप किसी चीज को अपनी मुट्ठी में बंद करने का प्रयास कर रहे हों और बाद में पता चले कि वह तो सिर्फ कोहरा था।’ उसके अगले वसंत में उस बैठक के बारे में याद करते हुए केनेडी ने उसे पूर्णतया विफल बताया, ‘मेरे संज्ञान में किसी भी राष्ट्राध्यक्ष की सबसे बेकार यात्रा’ ...यह निश्चित रूप से, एक बड़ी निराशा थी और इस यात्रा से पहले भारत को लेकर केनेडी के मस्तिष्क में कहीं अच्छी छवि बनी हुई थी, जो दोबारा नहीं बन सकती थी। निश्चित रूप से नेहरू ढलान पर थे; उनका देश, राष्ट्रपति ने अब फैसला किया, अब अपनी ही समस्याओं से और अधिक घिरा रहेगा तथा अपने आप में ही सीमित रहेगा। यद्यपि केनेडी ने भारत को उसके आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करने की आवश्यकता पर अपना भरोसा बनाए रखा, लेकिन उन्होंने नेहरू को देखने के बाद इस बात की उम्मीद ही छोड़ दी कि आनेवाले वर्षों में भारत दुनिया में या फिर दक्षिण एशिया में एक प्रभावशाली शक्ति बनने में कामयाब होगा।” (ए.एस.जे./245-6)
‘जे.एफ.के.’स फॉरगॉटन क्राइसिस : तिब्बत, द सी.आई.ए., ऐंड द साइनो-इंडियन वॉर’ के लेखक ब्रूस रिडेल ने लिखा—“मुझे लगता है कि नेहरू प्रथम महिला (जे.एफ. केनेडी की पत्नी) के प्रेम में डूब गए थे। उन्होंने अपने बाकी के पूरे जीवन-काल में अपने सिरहाने उनकी एक तसवीर रखी। अब यह, जैसाकि आप सभी जानते हैं, थोड़ा असामान्य है और मैं इसकी अधिक गहराई में नहीं जाना चाहता तथा यह इस बात का एक और उदाहरण है कि कैसे इस मामले में प्रथम महिला ने एक ऐसी भूमिका निभाई, जो मेरे खयाल से अमेरिकी कूटनीति के लिए बेहद असामान्य है।” (यू.आर.एल.94)
“जवाहरलाल नेहरू की पहचान कई मौकों पर ‘प्रेम में पागल’ होने की रही है। एडविना माउंटबेटन के साथ उनका कथित संबंध बहुत अधिक चर्चा और अटकलों का विषय रहा है। हालाँकि, यह बात याद रखी जानी चाहिए कि जैकलीन केनेडी नेहरू से 40 साल छोटी थीं। ब्रूस रिडेल ‘ब्रूकिंग्स इंटेलिजेंस प्रोजेक्ट’ में एक वरिष्ठ फेलो हैं और तब वे निदेशक के पद पर कार्यरत थे, जब उन्होंने जैकलीन केनेडी के प्रति नेहरू की आसक्ति का खुलासा किया था।” (यू.आर.एल.94)
ब्रूस रिडेल उसी पुस्तक में केनेडी की सन् 1946 की पुरानी यात्रा के बारे में भी लिखते हैं—“जब केनेडी भारत का दौरा कर रहे थे (1946 में), तब नई दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को उनकी अगवानी करने के लिए राजी कर लिया। जैसाकि जैकी केनेडी ने बाद में याद किया, दूतावास के कर्मचारियों ने केनेडी को बताया कि ‘नेहरू जब आपसे उकता जाते हैं तो वे अपनी उँगलियों को आपस में थपकाते हुए छत की ओर देखने लगते हैं।’ उन्होंने बताया कि सिर्फ दस मिनट तक केनेडी के साथ रहने के बाद ‘नेहरू ने अपनी उँगलियों को बजाना प्रारंभ कर दिया।’ यह उस रिश्ते की एक बेहद अशुभ शुरुआत थी। एक और हवाले से, नेहरू की दिलचस्पी जे.एफ.के. की 27 वर्षीया बहन, आकर्षक बहन, पैट केनेडी में अधिक थी, न कि जैक या बॉबी में।” (बी.आर./एल-748)
सन् 1961 की नेहरू की अमेरिका यात्रा के विषय में स्टेनली वॉलपर्ट ने लिखा—
“इतनी लंबी उड़ान ने नेहरू को उकता दिया था, लकिे न जैसे ही उन्होंने जैकी (जैकलीन केनेडी) को देखा; उनकी जान में जान आ गई और वह उनकी तथा उनकी छोटी बहन की आगामी भारत यात्रा को लेकर अत्यधिक उत्साहित थे। उन्होंने उन दोनों को अपने घर में ठहरने का न्योता दिया, वह भी उसी सुइट में, जो हमेशा एडविना के पास रहता था। लकिे न केनेडी ने नेहरू को अपनी वार्त्ताओं के दौरान बेहद उदासीन पाया (जो कि अधिकांशतः केनेडी का एकालाप ही साबित हुआ) और उन्होंने बाद में नेहरू के साथ अपने इस सम्मेलन का मूल्यांकन अपने जीवन की ‘सबसे खराब राजकीय यात्रा’ के रूप में किया। नेहरू की उम्र और वाशिगं टन में ‘खुलने’ की अरुचि उनके युवा मेजबान के लिए बेहद निराशानजक साबित हुई, जिन्हें नेहरू का उनकी पत्नी की तरफ ध्यान देना और उन्हें छूने से अपने हाथों को रोक पाने में विफलता भी क्षोभ दिलवानेवाली लगी।” (वॉलपर्ट 2/480)
ब्रूस रिडेल आगे लिखते हैं—“इस यात्रा के दौरान नेहरू असामान्य रूप से खामोश थे, शायद अपनी थकान और जेट लेग के चलते। राष्ट्रपति ने उन्हें वार्त्ता में संलग्न करने का प्रयास किया, लेकिन नेहरू ने सिर्फ ‘हाँ’ या ‘न’ में जवाब दिया, या फिर कोई भी जवाब न देने का फैसला किया।” जैसा कि गेलब्रेथ ने अपनी पुस्तक में लिखा है—“नेहरू ने कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी। सवाल-दर-सवाल उन्होंने सिर्फ या तो ‘हाँ’ या ‘न’ में जवाब दिया या फिर सिर्फ एक या दो वाक्यों में। राष्ट्रपति को यह बेहद निरुत्साहित लगा।” टेड सोरेनसन ने निष्कर्षनिकाला कि हालाँकि राष्ट्रपति ने नेहरू को पसंद किया—“उस बैठक के बाद उन्हें इस बात का भरोसा हो गया कि नेहरू कभी मजबूत रीढ़ नहीं हो सकते, जिस पर भरोसा किया जा सके।” न्यूपोर्ट के बाद दोनों पक्ष अधिक बैठकों और कांग्रेस तथा मीडिया के साथ और कार्यक्रमों के लिए वाशिंगटन पहुँच गए। नेहरू एक बार फिर राष्ट्रपति और अन्य अधिकारियों के साथ बातचीत करने या फिर उनके साथ संलग्न होने में नाकाम या अनिच्छुक ही प्रतीत हुए। केनेडी ने गेलब्रेथ से कहा कि यह राष्ट्रपति के तौर पर उनकी ‘सबसे खराब राजकीय यात्रा’ थी और साथ ही उन्हें ऐसा भी लगा कि नेहरू उनके मुकाबले जैकी से बात करने में अधिक इच्छुक थे।
कुलदीप नैयर ने इसी यात्रा पर यह लिखा—“केनेडी ने नेहरू और अमेरिका के शीर्ष अर्थशास्त्रियों और विदेश नीति विशेषज्ञों के बीच नाश्तेपर एक बैठक आयोजित की। नेहरू बैठक में देर से पहुँचे और उनकी प्रतिक्रियाएँ अधिकांश सिर्फ ‘हाँ’ या ‘न’ में ही रहीं। नाश्ता सिर्फ 20 मिनट में ही समाप्त हो गया। उनमें से कुछ ने यह बात केनेडी के संज्ञान में डाली, जिन्होंने अपने सहयोगियों की मौजूदगी में कहा कि ‘नेहरू काफी लंबे समय तक जी चुके हैं’।” (के.एन.)
जाहिर तौर पर, नेहरू के कार्यों और व्यवहार को उनके व्यक्तिगत पूर्वाभासों, उनके अहंकार और उनके वामपंथी, सोवियत-समर्थक, कम्युनिस्ट-समर्थक झुकाव से संचालित होते थे; जबकि कायदे से उन्हें उसके अधीन होना चाहिए था, जो भारत जैसे उभरते हुए देश के हित में हो। एम.एन. रॉय ने लिखा—
“भारत को अपने आर्थिक विकास के लिए विदेशी वित्तीय सहायता की आवश्यकता है, जो सिर्फ अमेरिका से ही आ सकती है। अमेरिका ने बार-बार मदद देने के प्रति अपनी तत्परता दिखाई है, जैसाकि यूरोप के मामले में भी था। लेकिन नेहरू की विदेश नीति ने भारत को उस सहायता से वंचित कर दिया, जिसकी उसे आवश्यकता थी। इस पैमाने पर उनकी अमेरिका-यात्रा पूर्ण रूप से असफल रही थी। इसका कोई ठोस परिणाम हाथ नहीं आया तथा उनके सिवाय कोई और खुश नहीं था। उन्होंने शीत युद्ध में किसी का भी पक्ष लेने से इनकार करके अमेरिकी राजनेताओं को निराश किया और विदेशी पूँजी से जुड़े राजनीतिक तारों पर संदेह जताकर व्यापारियों को नाराज किया। चौतरफा असफलता और मायूसी का कारण था—अभिनेता (नेहरू) की वैश्विक वामपंथी जमात की वाहवाही बटोरने की इच्छा और अपने देश में मौजूद मुखर मध्यम वर्ग के राष्ट्रीय दंभ को भड़काकर उनके बीच अपनी लोकप्रियता बढ़ाने की चेष्टा।” (रॉय/5-6)
‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने नेहरू की यात्रा को ‘युद्ध के बाद के समय की सबसे बड़ी निराशा’ के रूप में वर्णित किया। (रॉय/7)