भूल-66
औद्योगिकीकरण का गला घोंटना
नेहरू ने अपनी निजी क्षेत्र-विरोधी नीतियों के जरिए औद्योगिकीकरण का गला घोंट दिया और ऐसा करते हुए रोजगार-सृजन को भी रोक दिया। हालाँकि, ब्रिटिश काल के दौरान जान- बूझकर की गई उपेक्षा की तुलना में नेहरू राज के दौरान औद्योगिकीकरण में प्रगति कहीं बेहतर रही, जिसका कारण था—सार्वजनिक क्षेत्र में हुआ महत्त्वपूर्ण निवेश। इसके अलावा, ब्रिटेन द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के बेहद महत्त्वपूर्ण स्टर्लिंग ऋण की अदायगी और अमेरिका, सोवियत संघ एवं जर्मनी जैसे अन्य देशों से प्राप्त सहायता ने भी अहम भूमिका निभाई। हालाँकि, ब्रिटेन द्वारा स्टर्लिंग ऋण की अदायगी बंद हो जाने और अधिक विदेशी सहायता के मिलने पर लगाम लग जाने तथा वह सार्वजनिक क्षेत्र, जिनमें नेहरू ने निवेश किया था, वह या तो नुकसान में था या फिर पर्याप्त बचत उत्पन्न करने में सक्षम नहीं था। औद्योगिकीकरण की गति धीमी पड़नी शुरू हो गई, क्योंकि कोई फंड तो थे ही नहीं और नेहरू के समाजवादी दृष्टिकोण के चलते निजी क्षेत्र वैसे ही बंधनों में जकड़ा हुआ था।
इसके अलावा, जापान सहित अन्य देशों, जिन्होंने अपने से परे देखने वाली निर्यात-अग्रणी वृद्धि के दम पर नाटकीय ढंग से समृद्धि हासिल की थी, से कुछ न सीखते हुए नेहरू के नेतृत्व में भारत अंतर्मुखी, आयात-प्रतिस्थापित मॉडल के साथ आगे बढ़ा और इस क्रम में उसने खुद को एक विश्व स्तरीय, प्रतिस्पर्धी संस्कृति, गुणवत्तावाले उत्पादों के उत्पादन के लिए प्रोत्साहन, विश्व-व्यापार में हिस्सेदारी और परिणामी समृद्धि से दूर रखा। भारत ने इसके बजाय अक्षम सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश किया, निजी उद्यम को हद से अधिक नियंत्रित व अवरुद्ध किया, विदेशी पूँजी निवेश को ठेंगा दिखाया और बेहतर तकनीक को पूरी तरह से नजरअंदाज किया। नेहरू ने सरदार पटेल की आपत्तियों के बावजूद अप्रैल 1948 में औद्योगिक नीति प्रस्ताव को आगे बढ़ाया, जिसने कई क्षेत्रों को राजकीय क्षेत्र के लिए आरक्षित कर दिया—रेलवे, रक्षा-विनिर्माण, परमाणु ऊर्जा इत्यादि। इसके अलावा इस्पात, कोयला, जहाज निर्माण, संचार और कई अन्य क्षेत्रों में नए उद्यम सिर्फ राजकीय क्षेत्र के तहत ही रह सकते थे। सन् 1954 तक नेहरू ने संसद् को ‘समाज के समाजवादी स्वरूप’ को आर्थिक विकास के रूप में स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया। कांग्रेस द्वारा सन् 1955 के अपने अवधि-सत्र में समाजवाद को अपनी आधिकारिक नीति के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया। औद्योगिक नीति प्रस्ताव के सन् 1956 के संस्करण ने राज्य को और अधिक प्रबल बना दिया। इसने कपड़े, अॉटोमोबाइल और रक्षा क्षेत्र के नए उपक्रमों को भी राजकीय नियंत्रण में ला दिया और कई अन्य क्षेत्रों पर इसके विशेष नियंत्रण को भी सुनिश्चित कर दिया। एम.के.के. नायर ने लिखा—
“संसद् द्वारा दिसंबर 1954 में अर्थव्यवस्था के समाजवादी स्वरूप को अपनाया गया था। नई औद्योगिक नीति ने भी बिल्कुल इसी उद्देश्य को अपनाया। समाजवाद का एक महत्त्वपूर्णपहलू उन क्षेत्रों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित करना था, जो वित्तीय भलाई लाते थे। इस बात को ध्यान में रखते हुए सार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्व को बढ़ाया गया और उन उद्योगों को सूचीबद्ध किया गया, जिन्हें इसके अंतर्गत लाया जा सकता था। इनमें विस्फोटक, रक्षा उपकरण, परमाणु ऊर्जा, लोहा और इस्पात, भारी धातु की ढलाई, खनन, मशीनरी, भारी विद्युत् उपकरण, कोयला एवं लिग्नाइट, पेट्रोलियम, लौह का खनन, मैंगनीज, परमाणु ऊर्जा के लिए हीरा और खनिज, वायुयान निर्माण, हवाई परिवहन, रेलवे, जहाज निर्माण, टेलीफोन और बिजली उत्पादन शामिल थे।” (एम.के.एन.)
सन् 1952 से शुरू हुई पंचवर्षीय योजना की शृंखला ने अक्षम सार्वजनिक क्षेत्र में होनेवाले महत्त्वपूर्णनिवेश को डुबो दिया था और वृद्धि दर में इजाफा करने के बजाय उसे 3 प्रतिशत पर रेंगने को मजबूर कर दिया। अति आवश्यक विदेशी निवेश दूर हो गया था, जिसका कारण था साधारण आर्थिक समझ; ‘देश को क्या समृद्ध बनाता है’, इसके प्रति अनभिज्ञता और उपनिवेशवाद-विरोधी मानसिकता का दोषपूर्ण लागू किया जाना। जब दक्षिण-पूर्वी एशिया में, जैसे दक्षिण कोरिया में, व्यवसायियों को उद्योगों का विस्तार करने और नए उद्योग स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा था और उनकी सरकारें सस्ती दर पर ऋण उपलब्ध करवा रही थीं, जबकि यहाँ भारत में हम उसके ठीक विपरीत कर रहे थे—जी.डी. बिड़ला को एक स्टील कारखाना लगाने के लिए लाइसेंस देने से मना कर दिया गया; टाटा के कई व्यापार प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया गया; आदित्य बिड़ला ने भारत के प्रतिकूल कारोबारी माहौल को देखते हुए भारत के बाहर उद्योग स्थापित करने के विकल्प को चुना...और यह सूची अंतहीन है।
कहा जाता है कि कृष्णा मेनन (नेहरू के दाहिने हाथ) ने जापानी कॉरपोरेट प्रतिनिधियों के मिलकर काम करने के एक प्रस्ताव को यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि दोनों देशों की नीतियों में भारी असमानता को देखते हुए ऐसा होने का सवाल ही नहीं उठता।
लाइसेंस-परमिट-कोटा राज, तथाकथित ‘एकाधिकार’ को लाइसेंस देने के प्रति अनिच्छा, व्यापार-विरोधी नीतियाँ और जबरदस्ती के कर (जिनकी अधिकतम खंड दर 80 प्रतिशत तक थी) का नतीजा औद्योगिकीकरण को भुगतना पड़ा। यहाँ तक कि सुई का निर्माण करने के लिए भी आपको एक सरकारी लाइसेंस चाहिए, जो या तो बिल्कुल प्रदान ही नहीं किया जाएगा या फिर चौतरफा मक्खनबाजी के बाद दिया जाएगा! फलतः हमारा सारा औद्योगिकीकरण ठप हो गया।
नेहरू के आई.ए.एस. बाबुओं से उम्मीद की जा रही थी कि वे औद्योगिकीकरण और उद्योगों को नियंत्रित व प्रबंधित करेंगे, जिन्हें उद्योगों को संचालित करने के बारे में लेशमात्र भी जानकारी नहीं थी। संपत्ति-सृजन को लेकर नेहरू और समाजवादियों के विचार बेहद एकतरफा थे। नेहरू का मानना था कि आर्थिक समृद्धि के लिए सिर्फ औद्योगिकीकरण में निवेश, विशेषकर भारी उद्योगों में, और बाबुओं को उनकी कमान सौंप देना काफी है। उस दौर के एक नौकरशाह एम.के.के. नायर लिखते हैं—
“जब अन्य क्षेत्रों में कारखाने स्थापित किए जाने लगे तो उन्हें सँभालने के लिए अनुभवी प्रबंधक उपलब्ध नहीं थे और आई.सी.एस. अधिकारियों को सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के नेतृत्व के लिए नियुक्त किया गया। लेकिन उनका प्रशिक्षण और अनुभव औद्योगिक प्रबंधन के लिए जरा भी उपयुक्त नहीं था। उनमें से कई प्रबंधन की नई संस्कृति को समझने के लिए काफी उम्रदराज थे। ऐसे में, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का संचालन भी सरकारी विभागों की तरह होने लगा।
राउरकेला (स्टील प्लांट) के महाप्रबंधक एस.एन. मजूमदार और भिलाई (स्टील प्लांट) के महाप्रबंधक एस.एन. मेहता—दोनों ही शीर्षस्थ स्तर के आई.सी.एस. अधिकारी थे। वे आयुक्त बोर्ड के सदस्यों या मुख्य सचिवों के रूप में बेहद कुशलता से काम कर सकते थे और अपने कर्तव्यों का निर्वहन पूरे आत्मविश्वास से करने में सक्षम थे; लेकिन वे भी तीन साल में 10 लाख टन के स्टील प्लांट को तैयार करने के लिए 200 करोड़ रुपए खर्च करने में डर रहे थे। वे काम करने के लिए नए तरीके सीखने की उम्र को पार कर चुके थे। राउरकेला और भिलाई में जो कुछ भी हुआ, वह तब भी दोहराया गया, जब सार्वजनिक क्षेत्र की नई परियोजनाएँ आकार लेने लगीं। औद्योगिक परिवर्तन को उन लोगों के लिए छोड़ देना सबसे अच्छा है, जो इसे करने के लिए योग्य हैं। अगर इस काम के लिए ऐसे आई.ए.एस. या फिर आई.पी.एस. अधिकारियों, जो न तो इससे परिचित हैं और न ही इसके लिए प्रशिक्षित हैं, तो यह सार्वजनिक क्षेत्र के साथ किया जा रहा एक पाप है।” (एम.के.एन.)
आई.ए.एस. बाबुओं के हाथ में संचालन होने के अपेक्षित परिणाम निकले—सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियाँ सरकारी विभागों की तरह संचालित की जाने लगीं (सुस्त, आवश्यकता से अधिक कर्मचारियों से युक्त और भ्रष्ट), जिन्हें प्रक्रिया या फिर उत्पाद की जरा भी जानकारी नहीं थी। भीमकाय सार्वजनिक क्षेत्र में किया जानेवाला निवेश देश के निवेश योग्य धन का दो-तिहाई था, लेकिन इसका भी कोई लाभ नहीं हुआ—सार्वजनिक क्षेत्र के उत्पाद बेहद घटिया थे और वे नुकसान में ही रहे। वर्ष 1978 तक भारत की कुल प्रदत्त पूँजी में सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़कर 70 प्रतिशत तक पहुँच गई, जिसका बहुत कम लाभ देश को मिला। हमारे अत्यंत दुर्लभ संसाधनों को उड़ा दिया गया था और जनता के कीमती धन को नेहरू तथा उनके राजवंश द्वारा व्यापार करने के प्रयास में पूरी तरह से बरबाद कर दिया गया था।
गुरचरण दास अपनी पुस्तक ‘इंडिया : अनबाउंड’ में कस्तूरभाई लालभाई द्वारा गुजरात के जंगलों में अमेरिकी सायनामिड की साझेदारी में ‘अतुल रासायनिक संयंत्र’ की स्थापना का उल्लेख करते हैं, जिसमें एक पूरी टाउनशिप का निर्माण किया गया और इसने कई आदिवासियों को रोजगार उपलब्ध करवाया। सन् 1952 में इसके उद्घाटन के लिए आमंत्रित किए जाने पर नेहरू काफी मना करने के बाद राजी हुए। क्यों? क्योंकि वह निजी क्षेत्र में था! (जी.डी./54-54)
1950 के दशक में नेहरूवादी भारत में सिर्फ तीन कंपनियों को कार का निर्माण करने का लाइसेंस मिला हुआ था और वह भी प्रत्येक को सिर्फ एक मॉडल के निर्माण का—हिंदुस्तान मोटर्स की एच.एम. एंबेसडर, प्रीमियर अॉटोमोबाइल्स की प्रीमियर पद्मिनी और स्टैंडर्ड मोटर्स की स्टैंडर्ड-10—ये सभी महँगी कारें थीं, जो ईमानदार मध्यम वर्ग और ईमानदार उच्च-मध्यम वर्ग की पहुँच से बाहर थीं। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम एच.ए.एल. ने वर्ष 1964 की शुरुआत में नेहरू की मृत्यु से पहले अपनी पहल पर एक कम लागत वाली कार का निर्माण किया; लेकिन नेहरू ने एच.ए.एल. को लाइसेंस देने से इनकार कर दिया—एक कम लागतवाली कार नेहरूवादी समाजवाद की नजर में विलासिता थी। (टी.डब्ल्यू.7) हालाँकि, ये ‘सैद्धांतिक विचार’ नेहरू की बेटी के द्वारा नेहरू के नाती को मारुति का लाइसेंस देने में आड़े नहीं आए।
लाइसेंस-परमिट राज का मतलब था कि सरकार यह तय करेगी कि कौन किस चीज का उत्पादन कर सकता है और उसे अधिकतम कितना उत्पादित किया जा सकता है; साथ ही, उसने आपके अपने कारखाने का निर्माण करने में सीमेंट और स्टील जैसे प्रमुख कच्चेपदार्थों का कोटा भी तय कर दिया। लाइसेंस-परमिट राज का एक और पहलू इंस्पेक्टर राज था—निरीक्षण करते रहो, वास्तविक उल्लंघनों को रोकने के लिए नहीं, बल्कि किसी भी प्रकार से कमियों को तलाशो, ताकि आसानी से अपनी मुट्ठी गरम की जा सके। लाइसेंस, परमिट और कोटा पाने के लिए मुट्ठी गरम करना और नाक रगड़ना आवश्यक था—फाइलों को एक मेज से दूसरी मेज तक पहुँचाने के लिए जरूरी नौकरशाही के हस्ताक्षर की दरें तय थीं। कांग्रेस ने खुद को ‘स्वतंत्रता के योद्धा’ से ‘संरक्षण देनेवाले’ में बदल लिया था—एक बाजार-निर्धारित मूल्य पर। कार, स्कूटर, टेलीफोन और रसोई गैस कनेक्शन के लिए एक दशक से अधिक समय तक इंतजार करना पड़ता था— प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए ‘सही व्यक्ति’ तक पहुँच बनाना बेहद महत्त्वपूर्ण था। स्थानीय विधायकों और सांसदों ने बाँटने के लिए कोटा की माँग की थी, बिल्कुल राजाओं की तरह। ‘जान-पहचान’ होने का मतलब था, काम का तेजी से होना; लेकिन उसकी भी एक कीमत थी।