सरदार पटेल के प्रति दुर्व्यवहार
नेहरू ने उन पदों पर कब्जा कैसे किया, जिन पर सही मायनों में सरदार पटेल का अधिकार था, यह जानने के लिए कृपया उपर्युक्त भूल#1 और भूल#6 देखें। भारत को महँगे पड़नेवाले उन मक्कारी भरे कब्जों के बावजूद सरदार पटेल के खिलाफ नेहरू की साजिशें स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहीं।
जयप्रकाश नारायण, एक समाजवादी, नेहरू के खेमे के माने जाते थे। स्वतंत्रता के बाद से ही समाजवादी मिलकर सरदार पटेल को गृह मंत्री के पद से हटाने की साजिशें रच रहे थे। जे.पी. ने कहा था—“74 वर्षीय व्यक्ति (सरदार पटेल) के कंधों पर जितना भार है, उतना तो 30 साल के व्यक्ति के लिए भी उठा पाना बेहद मुश्किल है।” नेहरू की एक और करीबी मृदुला साराभाई ने सरदार पटेल के इस्तीफे के लिए एक गुपचुप अभियान चलाया था। यह मानना बेहद मुश्किल है कि जे.पी. और साराभाई—दोनों के ही अभियानों को नेहरू का वरदहस्त नहीं प्राप्त रहा होगा, क्योंकि दोनों ही उनके बेहद करीबी थे। (मैक/129)
बाद में सन् 1972 में जे.पी. को अपनी करनी पर पछतावा हुआ—“राजाजी ने एक बार सार्वजनिक रूप से अपने दिल की बात कह दी कि कैसे उन्होंने सरदार पटेल के साथ गलत किया था। मैं खुद को एक ऐसी ही स्थिति में पा रहा हूँ। मेरे अंदर की स्थिति आज आत्म-तिरस्कार की है, क्योंकि उनके जीवनकाल के दौरान मैं उनका सिर्फ एक आलोचक ही नहीं रहा, बल्कि महान् सरदार का प्रतिद्वंद्वी भी था।” (बी.के./243)
ब्रिगेडियर बी.एन. शर्मा ने लिखा— “...वे (नेहरू) दूसरों के प्रति काफी नीचे गिर सकते थे। पटेल को फासीवादी साबित करने के गुपचुप अभियान को उनके द्वारा प्रदान की गई मौन सहमति जग-जाहिर है।” (बी.एन.एस./402)
गांधी की मृत्यु के बाद नेहरू की तानाशाही की राह में एकमात्र रोड़ा सरदार पटेल थे और नेहरू उनकी स्थिति को बिगाड़ने के लिए जो कुछ कर सकते थे, उन्होंने वह किया। पटेल की मतृ्यु ने नेहरू पर लगी एकमात्र रोक भी हटा दी थी। नेहरू और उनके राजवंश ने तय किया कि सरदार पटेल को कभी ‘भारत रत्न’ से सम्मानित न किया जाए। (भूल#111)
बंबई में सरदार पटेल की मृत्यु होने के बाद नेहरू (जो उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुए थे) ने तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को सलाह दी कि उन्हें अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होना चाहिए। (डी.डी./305) उन्होंने इसके लिए कारण यह दिया कि प्रोटोकॉल के मुताबिक राष्ट्रपति का एक मंत्री के अंतिम संस्कार में शामिल होना आवश्यक नहीं है! इसका मतलब हुआ कि उन्होंने सरदार पटेल को सिर्फ एक मंत्री माना। क्या अहंकार था! एक बेहद शर्मनाक रवैया, विशेषकर तब, जब सरदार पटेल ने पूरी निष्ठा के साथ उनका समर्थन किया था; हालाँकि, नेहरू ने उनसे प्रधानमंत्री का पद अलोकतांत्रिक तरीके से हड़पा था, लेकिन इसके बावजूद डॉ. राजेंद्र प्रसाद वहाँ गए। सरदार सिर्फ उप-प्रधानमंत्री ही नहीं थे, बल्कि वे स्वतंत्रता संग्राम में कई वर्षों तक राजेंद्र प्रसाद के सहयोगी भी रहे थे।
स्टेनली वॉलपर्ट ने लिखा— “गांधी की मृत्यु ने नेहरू और पटेल का पुनर्मिलन करवा दिया। उनके इस मिलन ने न सिर्फ कांग्रेस और भारत की केंद्र सरकार को बचाया, बल्कि इसने नेहरू को सत्ता में भी बनाए रखा। सरदार की ताकत और समर्थन के बिना नेहरू का टूट जाना या फिर पद से हटा दिया जाना निश्चित था। वल्लभभाई ने अगले दो वर्षों तक भारत के प्रशासन को सँभाला (अपनी मृत्यु से पूर्व तक), जबकि नेहरू अधिकांश अंतरराष्ट्रीय मामलों और बड़ी हिमालयी भूलें करने में व्यस्त रहे।” (वॉल.2/433)
सरदार पटेल और वी.पी. मेनन—दोनों के ही बेहद करीबी रहे एक आई.ए.एस. अधिकारी एम.के.के. नायर ने अपनी पुस्तक ‘द स्टोरी अॉफ एन ईरा टोल्ड विदाउट इल-विल’ में लिखा—
“नेहरू और पटेल के बीच निरंतर मतभेदों के चलते नेहरू ने पटेल के खिलाफ व्यक्तिगत शत्रुता का रवैया अपनाए रखा। अगर नेहरू व्यक्तिगत शत्रुता नहीं रखे होते तो वे पटेल की मृत्यु के दिन दो ऐसे काम नहीं करते, जो उन्होंने किए। उन्होंने गृह मंत्रालय को दो आदेश जारी किए और वे दोनों ही वी.पी. मेनन की मेज पर आए। पहला यह था कि पटेल द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली कैडिलेक कार को अगली सुबह विदेश मंत्रालय को लौटा दिया जाए। पटेल की मृत्यु बंबई में हुई थी। नेहरू के दूसरे मीमो में कहा गया था कि जो अधिकारी पटेल के अंतिम संस्कार में शामिल होना चाहते हैं, वे अपने व्यक्तिगत खर्चे से ऐसा करें। वी.पी. मेनन ने अपने मंत्रालय के अधिकारियों को बुलाया और नेहरू के आदेश के बारे में बिना बताए पूछा कि उनमें से कौन अंतिम संस्कार में शामिल होने का इच्छुक है? करीब एक दर्जन अधिकारियों ने हामी भरी। उन्होंने उनके हवाई टिकट अपनी जेब से खरीदे। जब नेहरू को इस बात का पता चला तो वे और अधिक नाराज हुए।” (एम.के.एन.) (एडव/157)
उपर्युक्त की पुष्टि तब हुई, जब के.एम. मुंशी ने लिखा—
“बॉम्बे में सरदार पटेल की मृत्यु होने पर नेहरू ने मंत्रियों और सचिवों के लिए अंतिम संस्कार में भाग लेने के लिए बॉम्बे न जाने का निर्देश जारी किया। मंत्रियों में से मैं उस समय मथेरान (बॉम्बे) में मौजूद था। श्री एन.वी. गाडगिल, श्री सत्यनारायण सिन्हा एवं श्री वी.पी. मेनन ने इस निर्देश का पालन नहीं किया और अंतिम संस्कार में शामिल हुए। जवाहरलाल ने (राष्ट्रपति डॉ.) राजेंद्र प्रसाद से भी बंबई न जाने का अनुरोध किया। यह एक अजीब अनुरोध था, जिसे राजेंद्र प्रसाद ने नहीं माना।” (आर.पी.एन.एस./45)
इस बात पर विश्वास करना बेहद कठिन है कि नेहरू जैसा एक तथाकथित सुसंस्कृत व्यक्ति इतना असभ्य हो सकता है और अपने ही एक साथी तथा एक महान् राष्ट्रीय नेता एवं स्वतंत्रता सेनानी की मौत पर इस हद तक गिर सकता है!
यह राजमोहन गांधी द्वारा लिखित ‘पटेल : ए लाइफ’ की प्रस्तावना से लिया गया है—
“स्वतंत्र भारत के संस्थानों ने अगर वैधता और शक्ति प्राप्त की तो उसके पीछे प्रमुख रूप से तीन व्यक्तियों का हाथ है— गांधी, नेहरू और पटेल। लेकिन यह नेहरू के आभार से भरी पड़ी है और गांधी के मामले में कर्तव्यनिष्ठ है तथा पटेल के मामले में बहुत कंजूसी दिखाई गई है।
“राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 13 मई, 1959 को अपनी डायरी में लिखा— ‘अगर आज एक ऐसा भारत है, जिसके बारे में सोचा और बात की जाती है तो उसके पीछे काफी हद तक सरदार पटेल की राजनीतिज्ञता और कठोर प्रशासन है।’ डॉ. प्रसाद ने आगे जोड़ा— ‘बावजूद इसके हम उन्हें नजरअंदाज करने को मजबूर हैं।’
“वर्ष 1989 आने पर जवाहरलाल की जन्म-शताब्दी को हजारों इश्तेहारों, टी.वी. धारावाहिकों, त्योहारों और कई अन्य मंचों पर स्थान मिला। 31 अक्तूबर, 1975 को जब सरदार पटेल की जन्मशती आई तो इसके बिल्कुल उलट इसे आधिकारिक भारत और बाकी के प्रतिष्ठानों द्वारा पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया तथा इसके बाद से ही आधुनिक भारत के सबसे उल्लेखनीय बेटों में से एक के जीवन पर पड़े परदे को सिर्फ मौके-बेमौके ही हटाया जा सका है।” (आर.जी./9)
राजधानी के प्रमुख क्षेत्रों में आपको गांधीजी के लिए राजघाट, नेहरू के लिए शांति वन, इंदिरा गांधी के लिए शक्ति स्थल, राजीव गांधी के लिए वीर भूमि, लाल बहादुर शास्त्री के लिए विजय घाट, चरण सिंह के लिए किसान घाट मौजूद हैं और इनके अलावा नेहरू व गांधी के नाम पर अनगिनत संग्रहालय एवं स्मारक हैं; लेकिन न तो सुभाष बोस और न ही सरदार पटेल के नाम पर राजधानी में कोई स्मारक है; जबकि ये दोनों गांधीजी के बाद सबसे अधिक सम्मान के पात्र हैं! दिल्ली का वह घर, जिसमें सरदार पटेल देश के उप-प्रधानमंत्री के तौर पर रहते थे, को गिराया जा चुका है और इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि वे कभी यहाँ रहते भी थे। वहीं दूसरी तरफ, नेहरू के घर (तीन मूर्ति भवन) को संग्रहालय में बदल दिया गया है।
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नेहरू की क्षुद्रता और छोटी सोच का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने सरदार पटेल के चित्र को संसद् के केंद्रीय कक्ष में लगाने की कोई व्यवस्था नहीं की; जैसाकि अन्य प्रमुख नेताओं के लिए किया गया था। उन्होंने यह तय किया कि उनका चित्र न लग पाए। उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के मामले में भी ऐसा ही किया था। ग्वालियर के महाराजा जिवाजी राव सिंधिया, जो मध्य भारत के पहले राजप्रमुख बने थे, को यह बात काफी नागवार गुजरी और उन्होंने सन् 1954 में संसद् के केंद्रीय कक्ष में लगाने के लिए सरदार पटेल का एक चित्र उपहार-स्वरूप दिया। राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उस चित्र का अनावरण किया। (बी.के./427)
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यह एस. निजलिंगप्पा की पुस्तक ‘इनसाइड स्टोरी अॉफ सरदार पटेल—द डायरी अॉफ मणिबेन पटेल: 1936-59’ से लिया गया है— “यह बड़े आश्चर्य की बात है कि कई अन्य नेताओं (विशेषकर नेहरू व गांधी) के कामों को सरकार द्वारा आजादी के बाद से प्रकाशित किया गया है, लेकिन दो अग्रणी नेताओं— सरदार पटेल और सुभाष चंद्र बोस के कामों को किसी भी सरकारी एजेंसी ने नहीं देखा। इसी वजह के चलते हमने ‘सरदार पटेल सोसाइटी’ का गठन किया, उसका पंजीकरण करवाया, निधि की व्यवस्था की और सरदार पटेल की संकलित कृतियों को 15 खंडों में प्रकाशित करवाया।” (मणि)