Bhagat Singh and Chandra Shekhar Azad in Hindi Short Stories by Mini Kumari books and stories PDF | भगत सिंह और चंद्र शेखर आजाद

Featured Books
Categories
Share

भगत सिंह और चंद्र शेखर आजाद

भगत सिंह और आजाद के प्रति दुर्व्यवहार 

लोगों द्वारा गांधी और वायसराय इरविन के बीच चल रही बातचीत में शहीद भगत सिंह और अन्य लोगों के जीवन को बचाने की प्रार्थना किए जाने के बावजूद 5 मार्च, 1931 को गांधी एवं इरविन के बीच हुआ समझौता इस मामले पर मौन रहा तथा गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष नेहरू ने वास्तव में इन देशभक्तों को बचाने के लिए कुछ नहीं किया। क्रांतिकारी सुखदेव, जिन्होंने अपने और अपने सहयोगियों के लिए रहम की माँग नहीं की, ने गांधी-इरविन समझौते के बाद मार्च 1931 में गांधी को एक खुला पत्र लिखा— 
“आपने समझौते (गांधी-इरविन समझौते) के बाद अपने आंदोलन को वापस ले लिया है और इसके परिणामस्वरूप आपके सभी बंदी रिहा हो गए हैं। लेकिन क्रांतिकारी बंदियों का क्या? गदर पार्टी के दर्जनों बंदी अभी भी कैद में हैं और वर्ष 1915 के बाद से जेलों में सड़ रहे हैं। अपने कारावास की अवधि पूरी हो जाने के बाद भी मार्शल लॉ के कई बंदी अभी भी उन जीवित कब्रों में दफन हैं और दर्जनों अकाली बब्बर कैदी भी। देवगढ़, काकोरी, मचुआ बाजार और लाहौर षड्‍यंत्र मामले के कैदी उन लोगों में शामिल हैं, जो अभी भी सलाखों के पीछे बंद हैं। लाहौर, दिल्ली, चटगाँव, बॉम्बे, कलकत्ता और अन्य जगहों पर आधा दर्जन से अधिक षड्‍यंत्र के मुकदमे विचाराधीन हैं। दर्जनों क्रांतिकारी फरार हैं और उनमें कई महिलाएँ भी शामिल हैं। आधा दर्जन से अधिक कैदी तो वास्तव में अपनी फाँसी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इन लोगों का क्या? लाहौर षड्‍यंत्र मामले के तीन आरोपी (भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु), जो सौभाग्य से लोगों की नजरों में आ गए और उन्हें अपार जन-समर्थन मिल रहा है, क्रांतिकारी दल का बड़ा हिस्सा नहीं बन पाए हैं।” (यू.आर.एल.60) 

गांधी पर उपर्युक्त पत्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। ब्रिटिश भारत के वायसराय लॉर्ड इरविन ने 19 मार्च, 1931 को अपने नोट में दर्ज किया— 
“वापसी में गांधीजी ने मुझसे पूछा कि क्या हम भगत सिंह के मामले के बारे में बात कर सकते हैं, क्योंकि अखबारों में उनको 24 मार्च को फाँसी पर लटकाने की खबरें छपी हैं? वह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण दिन होगा, क्योंकि कांग्रेस के नए अध्यक्ष को उसी दिन कराची पहुँचना था और ऐसा होने पर बेहद गरमागरम चर्चा होती। मैंने उन्हें समझाया कि मैंने इस पर काफी विचार किया है, लेकिन मुझे ऐसा कोई आधार नहीं मिला, जिस पर मैं फाँसी की सजा को बदल पाऊँ। ऐसा लगा कि उन्हें मेरा तर्कवजनदार लगा।” (यू.आर.एल.71) 

उपर्युक्त से ऐसा प्रतीत होता है कि गांधी भगत सिंह की फाँसी के फलस्वरूप कांग्रेस की होने वाली शर्मिंदगी को लेकर चिंतित थे, न कि फाँसी को लेकर। ब्रिटिश ‘न्याय’ प्रणाली जलियाँवाला बाग के ब्रिटिश जन-हत्यारे को खुला घूमने की अनुमति प्रदान कर सकती थी और ब्रिटिश भी उसे उसकी क्रूरता के लिए पुरस्कृत कर सकते थे; लेकिन उन क्रूर कृत्यों का विरोध करने वाले भगत सिंह जैसे लोगों को फाँसी की सजा दी जानी चाहिए; और गांधी के अहिंसा के दिखावे को इस सबसे कोई परेशानी नहीं थी! भगत सिंह की शहादत के बाद गांधी ने ‘यंग इंडिया’ में लिखा— “भगत सिंह को इस पागलपन से पूजे जाने ने देश का काफी नुकसान किया है और कर रहा है। यह बहुत जोखिम भरा काम है और हत्या के काम को इस प्रकार से पूजा जा रहा है, जैसे बहुत महान् काम किया गया हो। इसका नतीजा लूट-मार और अवनति है।” 

गांधी रोजाना शाम को इरविन के साथ प्रतिदिन हुई वार्त्ता और समझौतों को सी.डब्‍ल्यू.सी. के सदस्यों को रिपोर्ट करते थे और सभी समझौते उनकी सहमति से होते थे। अगर गांधी और सी.डब्‍ल्यू.सी. के सदस्य चाहते तो वायसराय से आगे की बातचीत करने से यह कहते हुए इनकार कर सकते थे कि पहले भगत सिंह और उनके साथियों के मामले पर पुनर्विचार किया जाए। नेहरू उस समय कांग्रेस अध्यक्ष थे और यह उनका दूसरा कार्यकाल था। चूँकि नेहरू उस समय युवा थे और वे खुद को एक फायरब्रांड समाजवादी-वामपंथी स्वतंत्रता सेनानी के रूप में प्रस्तुत करते थे, लोगों को उनसे इस बात की पूरी उम्मीद थी कि वे भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। लेकिन नेहरू ने ऐसा कुछ नहीं किया।
___________

चंद्रशेखर आजाद फरवरी 1931 में नेहरू से उनके इलाहाबाद स्थित निवास ‘आनंद भवन’ में गोपनीय रूप से यह जानने के लिए मिले थे कि क्या गांधी और कांग्रेस चल रही गांधी-इरविन वार्त्ता में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को मौत के मुँह से बचाने के लिए कुछ करेंगे? नेहरू को जो करना चाहिए था, उन्होंने वह तो किया नहीं, बल्कि नेहरू ने अपनी आत्मकथा में चंद्रशेखर आजाद के साथ हुई इस मुलाकात को लेकर जो लिखा है, वह न सिर्फ निराशाजनक है, बल्कि परेशान करने वाला भी है। उन्होंने जिस अपमानजनक तरीके से चंद्रशेखर आजाद के बारे में लिखा है, वह बेहद चौंकाने वाला है। उसके कुछ अंश प्रस्तुत हैं— 
“मुझे उस समय एक चौंकाने वाला घटनाक्रम याद आता है, जिसने मुझे भारत में मौजूद आतंकवादी संगठनों (वह उन्हें ऐसे पुकारते हैं, ‘स्वतंत्रता सेनानी नहीं, बल्कि आतंकवादी!’) की मानसिकता समझने में मदद की। एक अजनबी मुझसे मिलने मेरे घर आया और मुझे बताया गया कि वे चंद्रशेखर आजाद हैं। (हालाँकि, आजाद उस समय तक खासे मशहूर थे और ऐसा संभव ही नहीं है कि नेहरू उन्हें जानते न हों)...वे मुझसे मिलने को इसलिए मजबूर हुए थे, क्योंकि आम जनता का मानना था कि सरकार और कांग्रेस के बीच कोई समझौता होने की संभावना है। वे यह जानना चाहते थे कि किसी समझौते की स्थिति में क्या उनके समूह के लोगों को कुछ राहत मिलने की उम्मीद है? क्या उन्हें अभी भी अपराधी माना जाएगा और वैसा ही सुलूक किया जाएगा; उनके सिर पर इनाम रखते हुए उनकी तलाश में जगह-जगह छापेमारी की जाएगी और मौत का फंदा उनके सिर पर लटकता रहेगा? (क्या आजाद जैसे लोग ऐसे भीख माँगेंगे?)” (जे.एन.2) (यू.आर.एल.39) 

चंद्रशेखर आजाद ने 27 फरवरी, 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में चारों तरफ से घिर जाने के बाद अपने पास मौजूद अंतिम गोली से खुद को उड़ा लिया था तथा खुद और अपने साथी का बहादुरी के साथ बचाव किया था। एक मुखबिर ने पुलिस को उनकी मौजूदगी की सूचना दी थी। संयोग से, जैसाकि ऊपर बताया गया है, आजाद ने पहले ‘आनंद भवन’ में नेहरू से मुलाकात की थी। 

बटुकेश्वर ने 8 अप्रैल, 1929 को नई दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में भगत सिंह के साथ बम-विस्फोट किया था। उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली थी और उन्हें अंडमान (कालापानी) स्थित सेल्युलर जेल भेज दिया गया था। दत्त को या तो कालापानी की सजा के दौरान या फिर वहाँ से रिहाई के बाद तपेदिक ने घेर लिया। उन्होंने इसके बावजूद ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन में भाग लिया और उन्हें दोबारा बिहार के चंपारण जिले में स्थित मोतिहारी जेल भेज दिया गया। 

लंबी बीमारी के बाद 20 जुलाई, 1965 को उनकी मृत्यु हो गई और उनका अंतिम संस्कार पंजाब के फिरोजपुर के पास हुसैनावाला में उसी स्थान पर किया गया, जहाँ कई साल पहले उनके सहयोगियों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शवों का भी अंतिम संस्कार किया गया था। नेहरू के नेतृत्व में स्वतंत्र भारत ने उन्हें या उनके परिवार को कोई सहायता या मान्यता नहीं दी।