Netaji Subhash Chandra Bose in Hindi Short Stories by Mini Kumari books and stories PDF | नेताजी सुभाषचंद्र बोस

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नेताजी सुभाषचंद्र बोस

आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) के प्रति दुर्व्यवहार 

आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) दक्षिण-पूर्व एशिया में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीय स्वतंत्रता की रक्षा के लिए नेताजी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रवादियों द्वारा तैयार की गई एक सशस्त्र सेना थी। ‘जय हिंद’ नेताजी द्वारा गढ़ा गया था तथा इसे भारत सरकार एवं भारतीय सशस्त्र बलों द्वारा बाद में अपनाया गया। 

इस बात पर यकीन करने के पर्याप्त आधार मौजूद हैं कि सुभाष चंद्र बोस की आई.एन.ए. द्वारा ब्रिटिशों पर किए गए पलटवार और वर्ष 1945-46 के आई.एन.ए. लाल किला मुकदमों एवं उनके परिणाम (सशस्त्र बलों में विद्रोह) अंग्रेजों के भारत छोड़कर जाने की एक बहुत बड़ी वजह थे, न कि कांग्रेस का ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ (जो वर्ष 1942 में कुछ ही महीनों में खत्म हो गया)। विस्तृत जानकारी के लिए कृपया भूल#12 देखें। 

इसके बावजूद नेहरू एवं कांग्रेस ने सुभाष और आई.एन.ए. का विरोध किया। सन् 1945 में ब्रिटिशों द्वारा आई.एन.ए. के सैनिकों पर चलाए गए मुकदमों में नेहरू के एक बार फिर काला कोट पहनने की बात को काफी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है। इसके पीछे की असल सच्‍चाई यह है कि चूँकि चुनाव नजदीक थे और आई.एन.ए. तथा सुभाष के लोगों के पसंदीदा होने के चलते नेहरू और कांग्रेस खुद को आई.एन.ए. का हितैषी दरशाकर सस्ती लोकप्रियता हासिल करना चाहते थे। 
‘इंडियाज बिगेस्ट कवरअप’ में अनुज धर कहते हैं— 
“कैप्टन बधवार ने बताया कि कांग्रेस के नेताओं के हृदय-परिवर्तन का अपने पूर्व-अध्यक्ष (बोस) या फिर उनके नेतृत्व में लड़ने वाले लोगों के प्रति प्रेम से कुछ लेना-देना नहीं था। उन्होंने (आसफ अली—सी.डब्‍ल्यू.सी. के सदस्य ने) पूरे देश की यात्रा की और उन्हें यह समझ में आया कि लोग पूरी तरह से आई.एन.ए. के समर्थन में हैं। बधवार ने कहा, ‘लोगों की इस भावना के चलते कांग्रेस को वह रास्ता चुनना पड़ा, जो उसने चुना।’ आसफ अली को इस बात का पूरा भरोसा था कि कांग्रेस जब कभी भी और जैसे सत्ता में आएगी, वैसे ही ‘उन्हें आई.एन.ए. के सभी सदस्यों को सेवा से हटाने, यहाँ तक कि कुछ के खिलाफ मुकदमा चलाने में जरा भी झिझक नहीं होगी।’ ...शीर्ष कांग्रेस नेतृत्व द्वारा बोस और आई.एन.ए. के प्रति धोखे भरी सोच को उनके नेताओं, विशेषकर नेहरू, के वर्ष 1947 के पूर्व के कई बयानों से भी पहचाना जा सकता है।” (ए.डी.) 
आश्चर्यजनक, लेकिन उम्मीद के मुताबिक नेहरू ने एक तरफ तो जहाँ वर्ष 1945-46 के लाल किला मुकदमों में कर्नल प्रेम सहगल, कर्नल गुरुबक्श सिंह ढिल्लों और मेजर जनरल शाह नवाज खान (आगामी चुनावों में वोटों की खातिर) का बचाव करने के लिए रक्षा समिति का हिस्सा होने को काफी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया, वहीं आजादी के बाद नेहरू ने प्रधानमंत्री के रूप में इन्हें सेना में बहाल करने से स्पष्ट इनकार कर दिया—उच्‍च कोटि का पाखंड! 

जैसाकि कांग्रेस और नेहरू से उम्मीद की जा सकती है, उन्होंने आई.एन.ए. के दिग्गजों काे सम्मान और पुरस्कार देने के बजाय स्वतंत्र भारत की सरकार द्वारा उन्हें भारतीय सेना में शामिल करने से भी रोक दिया गया। क्यों? क्योंकि अंग्रेज और माउंटबेटन ऐसा चाहते थे, क्योंकि आई.एन.ए. के सैनिकों ने उनके खिलाफ युद्ध लड़ा था। नेहरू ने एक आंग्ल-रागी और अपने गुरु माउंटबेटन का चेला होने के नाते ब्रिटिशों का हुकुम पूरी तरह से बजाया। माउंटबेटन ने तथाकथित तौर पर (सुप्रीम एलाइड कमांडर, दक्षिण-पूर्व एशिया के रूप में) सन् 1945 में सिंगापुर स्थित आई.एन.ए. मेमोरियल को डायनामाइट से ध्वस्त तक करवा दिया था। अनुज धर के अनुसार लॉर्ड माउंटबेटन ने कहा, “मैं नेहरू को इस बात के लिए मनाने में सफल रहा कि वे जापान-समर्थक आजाद हिंद फौज (सिंगापुर में सुभाष बोस की) पर माल्यार्पण न करें। यह जवाहरलाल नेहरू, एडविना और मेरे बीच गहरी मित्रता का प्रारंभ था।” (टी.डब्‍ल्यू.10) 

यह जिन्ना के बिल्कुल विपरीत था, जिन्होंने आई.एन.ए. के मुसलमान सैनिकों को पाकिस्तानी सेना में शामिल किया था। 

आई.एन.ए. के सैन्य कर्मी सन् 1972 तक स्वतंत्रता सेनानी पेंशन के हकदार नहीं थे। कैप्टन राम सिंह ठाकुर (वर्ष 1914-2002) नेपाली मूल के एक आई.एन.ए. सैनिक थे। वे एक संगीतकार और गीतकार भी थे। उनके प्रसिद्ध और देशभक्ति से सराबोर रचनाओं में ‘कदम-कदम बढ़ाए जा; खुशी के गीत गाए जा, ये जिंदगी है कौम की, तू कौम पे लुटाए जा...’ और ‘सब सुख- चैन’ शामिल हैं। उनके अंतिम वर्ष बेहद मुश्किल भरे बीते। सरकार द्वारा प्रारंभ में उन्हें भी स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा नहीं दिया गया। 

उपर्युक्त के बिल्कुल उलट, स्वतंत्र भारत की नेहरू सरकार ने ब्रिटिश राज अधिकारियों को स्वतंत्रता-पूर्व के भारत के प्रति उनकी ‘सेवाओं’ (भारत को गुलाम बनाए रखने) के लिए पेंशन प्रदान की। 

इससे भी अधिक स्पष्टता से या आश्चर्यजनक तरीके से भारत सरकार ने आजादी के बाद भी प्रयागराज के ब्रिटिश दौर के एस.एस.पी. नॉट बावर, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी और सबसे महान् क्रांतिकारियों में से एक चंद्रशेखर आजाद को गोली मारी थी (अल्फ्रेड पार्क में), को पेंशन देती रही।


नेताजी सुभाष चंद्र बोस के प्रति दुर्व्यवहार 

नेताजी की मृत्यु की जाँच करवाने, जाँच रिपोर्ट को प्रभावित करवाने (भूल#112), आई.एन.ए. के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया रखने (भूल#114) और नेताजी को ‘भारत रत्न’ से सम्मानित करने लायक न समझने (भूल#111) के अलावा नेहरू सरकार इतनी विरुद्ध रही कि उसने सन् 1947 में संसद् भवन में नेताजी का चित्र लगवाने से भी इनकार कर दिया। 11 फरवरी, 1949 के एक गोपनीय मेमो में, जिस पर मेजर जनरल पी.एन. खंडूरी के हस्ताक्षर हैं, में सरकार ने सिफारिश की— ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस के चित्रों को प्रमुख स्थानों—यूनिट लाइंस, कैंटीन, क्वार्टर गार्ड्स या रिक्रिएशन रूम में स्थापित नहीं किया जा सकता।’ 

भारतीय स्वतंत्रता के वास्तविक नायक को इतिहास के पन्नों में दफन कर नेहरू, कांग्रेस और ‘प्रसिद्ध’ मार्क्सवादी-नेहरूवादी सरकारी इतिहासकारों ने कभी माफ न की जाने वाली कृतघ्नता प्रदर्शित की है। पूर्व की आई.एन.ए. की रानी झाँसी रेजीमेंट की लेफ्टिनेंट मानवती आर्य के सह- लेखन में लिखी गई पुस्‍तक ‘जजमेंट : नो एयरक्रैश, नो डेथ’ इस बात को विस्तार से बताती है कि कैसे नेहरू ने नेताजी की मौत के पीछे की सच्‍चाइयों को सामने आने से रोकने के पूरे प्रयास किए; कैसे नेहरू सरकार ने नेताजी के योगदानों को इतिहास के पन्नों से मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेफ्टिनेंट मानवती आर्य अपनी पुस्‍तक में बताती हैं कि आकाशवाणी (ए.आई.आर.) के साथ एक बातचीत के दौरान उन्हें कार्यक्रम के निर्माताओं ने बिना भूले पहले ही उस राष्ट्रीय नीति के बारे में बता दिया था कि उन्हें आई.एन.ए. का जिक्र तक नहीं करना है, जिसमें नेताजी का नाम भी शामिल है। (यूआरएल58) 

यह एस. निजलिंगप्पा की पुस्‍तक ‘इनसाइड स्टोरी अ‍ॉफ सरदार पटेल : द डायरी अ‍ॉफ मणिबेन पटेल : 1936-50’ की प्रस्तावना से लिया गया है— “यह बड़ी अजीब सी बात है कि आजादी के बाद कई अन्य नेताओं (विशेष तौर पर नेहरू और गांधी) के संयुक्त कार्यों को सरकार द्वारा प्रकाशित किया गया है, किंतु दो अग्रणी नेताओं— सरदार पटेल और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के चुने हुए या कैसे भी कामों को किसी भी सरकारी एजेंसी द्वारा आगे नहीं बढ़ाया गया।” (मणि)