रचना: बाबुल हक़ अंसारी
भाग 7: "जब शब्द नहीं थे, सुर बोले थे"
पिछले अध्याय की कुछ पंक्तियाँ:
"अब आर्यन लौट आया है,
लेकिन अब वो किसी एक का नहीं…
वो हर उस धुन में है जो वफ़ा से निकली हो।"
रात ढल रही थी, लेकिन स्टूडियो की रौशनी बुझी नहीं थी।
अयान बेसमेंट के एक कोने में पुराने बक्से टटोल रहा था,
जहाँ आर्यन की पुरानी स्क्रिप्ट्स, नोट्स और रिकॉर्डिंग्स रखे थे।
एक धूल भरे लिफाफे में
एक चिट्ठी मिली — बिना भेजी गई, पीले पन्नों पर अधूरी स्याही से लिखी हुई।
"आयशा के नाम"
(आर्यन की लिखावट में…)
"अगर कभी मैं लौट न पाऊँ,
तो इस चिट्ठी को पढ़ लेना —
क्योंकि मेरी सबसे मुकम्मल धुन तुम ही हो…"
"मैंने तुम्हें कभी यह कहने की हिम्मत नहीं की —
कि जब तुम गाती हो, मेरी साँसें थम जाती हैं…
जैसे तुम्हारी आवाज़ मेरी धड़कनों की ज़ुबान बन जाती है।"
"अयान को लेकर मन में कभी जलन नहीं थी,
बस डर था… कहीं तुम्हारे पास होने का हक़ ही खो न दूँ।"
"तुमसे मोहब्बत की,
पर नाम कभी न दे सका…
क्योंकि तुम किसी 'नाम' से नहीं,
बस एक एहसास से जुड़ती हो…"*
चिट्ठी खत्म नहीं थी,
लेकिन आखिरी लाइन धुंधली और टूटी हुई थी —
शायद लिखते समय हाथ काँप गया हो…
"अगर मेरी धुन अधूरी लगे कभी,
तो बस… आंखें मूंद कर गा देना —
मैं वहीं रहूँगा, तुम्हारी आवाज़ में…"
आयशा ने चिट्ठी पढ़ी तो उसकी आँखें भीग गईं।
न कोई सिसकी, न कोई शोर —
बस होंठों से एक सुर निकला…
वही अधूरी धुन… जो अब पूरी हो रही थी।
"अनकही चिट्ठियाँ" का अगला विशेष प्रसारण उसी चिट्ठी पर आधारित था।
नाम रखा गया —
"जब शब्द नहीं थे, सुर बोले थे"
लोगों ने सुना —
और पहली बार किसी चिट्ठी को गाया गया।
रात को आयशा बालकनी में अकेली बैठी थी,
हवा में गिटार के तार जैसे गूंजे —
वो झटके से मुड़ी…
कोई नहीं था।
पर उसका चेहरा मुस्कुरा रहा था।
"तुमने कहा था ना,
अगर गाऊँगी… तो तुम वहीं रहोगे।"
"सुरों के दरमियान वो ख़ामोशी"
(नए पात्र की रहस्यमयी एंट्री के साथ)
स्टूडियो में अब सन्नाटा था।
आयशा की गायी धुनें रेडियो पर बज रही थीं, लेकिन अयान की आँखें बार-बार उसी पुरानी चिट्ठी पर टिक जातीं।
उसे लग रहा था — कुछ और था इस चिट्ठी के पीछे,
जैसे कोई कहानी जो आर्यन ने अधूरी छोड़ी हो… जानबूझ कर।
उसी शाम, स्टूडियो के गेट पर एक अनजान व्यक्ति आया।
काले कोट में, गहरी आँखें और हाथ में एक पुराना हारमोनियम।
"मैं युवराज हूँ…"
उसने धीमी आवाज़ में कहा।
"आर्यन मेरा जूनियर नहीं था…
वो मेरी सबसे बड़ी प्रेरणा था — और मेरा सबसे बड़ा गुनहगार भी।"
अयान और आयशा सन्न रह गए।
"गुनहगार?" – आयशा चौंकी।
"क्यों?"
युवराज ने हारमोनियम खोला, उसके अंदर एक पेपर चिपका था —
आर्यन की लिखावट में —
"युवराज, अगर ये सुर कभी टूटे… तो मेरी ख़ामोशी को मत तोड़ना…"
"हम दोनों कॉलेज के दिनों में एक ही धुन पर काम कर रहे थे…"
युवराज की आँखें भर आईं।
"वो धुन जो आज 'अनकही चिट्ठियाँ' में बजती है — वो हमारी साझी थी…
लेकिन एक दिन आर्यन ने सबकुछ छोड़ दिया… बिना वजह बताए।"
अयान बीच में बोला —
"शायद वजह तुम थे, या तुम्हारी धुन!"
"नहीं," युवराज मुस्कुराया,
"वजह वो थी… जो शब्दों में नहीं कही जा सकती… जो सिर्फ सुरों के दरमियान छुपी होती है…"
आयशा ने गौर से युवराज को देखा,
जैसे उसके अंदर भी कोई अनकहा राज सिसक रहा हो।
"तो क्या तुम आज भी उसी अधूरी धुन को पूरा करना चाहते हो?"
आयशा ने पूछा।
"नहीं…"
युवराज बोला,
"मैं चाहता हूँ कि आर्यन की धुन अब तुम्हारी आवाज़ से मुकम्मल हो…
मैं सिर्फ उसकी ख़ामोशी का जवाब ढूँढने आया हूँ।"
अगली सुबह स्टूडियो में एक नई रिकॉर्डिंग की तैयारी थी।
पर इस बार माइक्रोफोन के सामने तीन लोग थे —
आयशा, अयान, और अब युवराज।
बजने वाली थी —
"वो धुन… जो तीन दिलों की खामोशी से बनी थी…"
(जारी है – अगला अध्याय: "वो लम्हा, जो कभी गया ही नहीं")