सच्ची पहचान
एक हफ़्ते की रौनक के बाद आज अचानक घर में सूना-सूना लग रहा है | करीब एक हफ़्ते पहले बड़ा बेटा साबिर अपनी बेगम फरीदा और दोनों बच्चों के साथ घर आया था | उसकी बड़ी बेटी हिना पाँच बरस की है जबकि छोटा बेटा वसीम एक बरस का है | इस बार वह पूरे दो बरस के बाद वापस अपने वतन आया था | इन दिनों वह अपने परिवार के साथ सिंगापुर में है | वह एक मल्टी-नेशनल कम्पनी में ऊँचे ओहदे पर काम करता है | बहू भी वहीं एक ऑफिस में जन संपर्क अधिकारी के रूप में काम कर रही है | अच्छी-ख़ासी आमदनी है उनकी जो उनके रहन-सहन से साफ़ झलकती है |
महीने भर से हम सब उनका बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे | जहाँ एक तरफ बेटे-बहू और बच्चों से मिलने की खुशी थी वहीं दूसरी तरफ दिल के एक कोने में यह मलाल भी था कि वे इतने कम दिनों के लिए आ रहे हैं | हफ़्ते भर में तो दिल भरकर बात भी नहीं कर पाएँगे | बेगम तो हर रोज़ कुछ न कुछ बनाती रहती थीं बच्चों के लिए | दोनों बच्चों के लिए उसने बड़े चाव से स्वेटर, टोपी और दस्ताने बुने थे और खाने के लिए भी किस्म-किस्म की चीज़ें बना रही थीं | हफ़्ते भर खाने में क्या बनेगा इसकी फेहरिश्त पन्द्रह दिन पहले ही तैयार हो चुकी थी | आख़िर सिंगापुर में हैदराबाद का ज़ायकेदार खाना कहाँ नसीब होता होगा उन्हें | जब मियाँ-बीवी दोनों ही नौकरी करते हों तो घर-परिवार पर ज़्यादा नहीं दे पाते हैं | बच्चों के साथ पिछले सात दिन कब गुज़र गए एहसास ही नहीं हुआ | कहा भी जाता है अच्छा वक़्त बहुत जल्दी बीत जाता है जबकि मुश्किल वक़्त में एक-एक पल गुज़ारना दूभर हो जाता है और फिर बच्चों के साथ तो वीराने में भी रौनक आ जाती है | उनके साथ ऐसा लगा मानो हम दोनों का बचपन कुछ दिन के लिए ही सही वापस आ गया हो | सलमा को इतने अरसे बाद इतना ख़ुश देख रहा था | छोटा बेटा शाहिद भी शाम को घर जल्दी वापस आ जाता था और वापस आते वक़्त भतीजे-भतीजी के लिए कुछ न कुछ ले कर ही आता था फिर देर रात तक बच्चों के साथ खेलता रहता था | ऐसी इच्छा हो रही थी कि किसी तरीक़े से वक़्त की रफ़्तार थम जाए और बेटे, बहू और बच्चे कुछ दिन और साथ रह लें | जवानी में चाहे इंसान अकेले रह ले लेकिन बुढ़ापे में उसे घर-परिवार और खासकर बच्चों का साथ चाहिए होता है जिनमें अक्सर वह अपना बचपन देखता है पर इंसान के चाहने से क्या होता है | वक़्त पर न तो किसी का ज़ोर चला है और न ही चलेगा | जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे दिल में एक अजीब सा डर लग रहा था | कुछ दिन बाद फिर से घर में सूनापन पसरा रहेगा | शाहिद सुबह से ही काम पर चला जाएगा और हम दोनों बूढ़ा-बूढ़ी मुँह बाँधे पड़े रहेंगे | आख़िर वह दिन आ ही गया जब बच्चों को वापस जाना था | सुबह से ही मन खिन्न था | सलमा खाना बनाते हुए बार-बार रोए जा रही थी | शाहिद का मुँह भी लटका हुआ था लेकिन नियति के आगे हम सब मजबूर हैं | नियत समय पर हम सब बच्चों को एअरपोर्ट छोड़ कर घर आ गए | ज़िंदगी एक बार फिर से अपने पुराने ढर्रे पर वापस आ गई है |
हमारा एक बेहद मामूली परिवार है | मैं एक ऑटोमोबाईल कम्पनी के सर्विस सेंटर में में मैकेनिक के रूप में काम करता था | अपनी मामूली तनख्वाह में चार लोगों के परिवार का खर्च काफ़ी मुश्किल से चल पाता था फिर भी मेरी यह कोशिश रहती थी कि दोनों बच्चों को अच्छी तालीम दे सकूँ चाहे इसके लिए घर के दूसरे खर्चों में कटौती क्यों न करनी पड़े | बड़ा बेटा साबिर शुरू से ही काफ़ी तेज़ दिमाग़ था | हमेशा दर्जे में अव्वल आता था | नवें दर्जे से ही उसे वजीफ़ा मिलने लगा था जिससे उसकी पढ़ाई का खर्च निकल आता था | एम.सी.ए. करने के बाद उसे दिल्ली स्थित एक मल्टी-नेशनल कम्पनी में अच्छी नौकरी मिल गई थी और वहीं से वह सिंगापुर चला गया था | बाद में उसने वहीं काम कर रही एक हिन्दुस्तानी लड़की से शादी करने की ख्वाइश ज़ाहिर की थी | उसकी ख़ुशी को ध्यान में रखते हुए हमने उसकी पसंद की लड़की से निकाह कर दिया था | साबिर के मुकाबले हमारा छोटा बेटा शाहिद का कभी पढ़ाई में मन नहीं लगता था | उसका एक ही शौक रहा है – क्रिकेट | उसका बस चले तो रात-दिन क्रिकेट ही खेलता रहे | उसका यह शौक देख कर हमेशा यह डर लगा रहता कि आगे चल कर ज़िंदगी में वह क्या करेगा ? आख़िर खेल से पेट तो नहीं भर सकता है | उसको बहुत समझाने की कोशिश की, उसके भाई का हवाला भी दिया – मन लगा कर पढ़ ले तो ज़िन्दगी बन जाएगी नहीं तो मेरी तरह ही छोटा-मोटा काम करना पड़ेगा | रिश्तेदार और मोहल्ले वाले क्या कहेंगे - बड़ा भाई तो इतना बड़ा अफ़सर है और छोटा भाई ऐसे छोटे-मोटे काम कर रहा है लेकिन शाहिद पर पढ़ाई के लिए जितना दबाव डालते उतना ही वह इससे दूर होता चला गया | बमुश्किल थर्ड डिवीजन में बारहवीं करने के बाद उसने ऐलान कर दिया कि अब कोई उससे पढ़ाई के बारे में बात नहीं करे | ख़ुद ही कुछ कोशिश करके उसने बैंक से कर्ज़ा लिया और एक ऑटो रिक्शा ख़रीदकर चलाने लगा | उसे देखकर हमेशा यह मलाल होता था कि काश शाहिद भी मन लगा कर पढ़-लिख लेता तो आज उसे ऑटो रिक्शा चलाने जैसा छोटा काम नहीं करना पड़ता | समझ में नहीं आता था कि शाहिद की परवरिश में मुझसे क्या कमी रह गई है कि आज दोनों भाइयों के स्तर में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है | कहाँ साबिर की शानो-शौकत वाली ज़िंदगी और कहाँ शाहिद एक मामूली ऑटो रिक्शा ड्राईवर | विदेश जाने के बाद से मोहल्ले और बिरादरी में साबिर इज्ज़त की नज़रों से देखा जाता है | उसके बनिस्बत कहीं ज़्यादा नेक, मेहनती और मोहब्बती शाहिद को लोग एक ऑटो रिक्शा चलाने वाले के रूप में ही जानते हैं | साबिर के रुख से भी ऐसा जान पड़ता है कि उसे अपने छोटे भाई का ऑटो चलाने का काम पसंद नहीं है | उसने कई बार शाहिद को सुझाव भी दिया कि वह कोई और इज्ज़तदार पेशा क्यों नहीं अपनाता | इसके लिए वह ज़रुरी माली मदद देने के लिए भी तैयार है लेकिन शाहिद का हमेशा सीधा और सपाट जवाब होता, “भाईजान, मेहनत और ईमानदारी से किए गए किसी भी काम में शर्म की कोई बात नहीं है | मेरी आमदनी थोड़ी कम ज़रुर है लेकिन वह बेईमानी से कमाई गई करोड़ों की काली दौलत से कहीं ज़्यादा पाक-साफ़ है | आख़िर अब्बा भी तो एक मामूली मेकैनिक ही थे लेकिन उनकी छोटी सी आमदनी में हम थोड़ी किल्लत के बावजूद कितने सुकून से रहे |” शाहिद के तर्क के आगे हर कोई निरुत्तर हो जाता था लेकिन वह बेचारा इस कड़वी सच्चाई से बेख़बर था कि आज के ज़माने में इंसान की इज्ज़त और समाज में उसका रसूख़ उसकी कमाई हुई दौलत से ही तौले जाते हैं चाहे वह दौलत किसी भी ज़रिये से ही क्यों न कमाई जाए | हारकर हम दोनों ने शाहिद को समझाइश देना बंद कर दिया था | ऐसा कहा जाता है कि बिन मांगे दी गई सलाह की कोई कीमत नहीं होती है | जो इंसान समझाने से सबक नहीं लेते हैं उन्हें वक़्त ख़ुद सीधा कर देता है |
साबिर और बहू-बच्चों के जाने के बाद ज़िंदगी आहिस्ता-आहिस्ता अपने पुराने रास्ते पर लौट रही थी | कुछ दिनों की चहल-पहल के बाद एक बार फिर से घर में सन्नाटा पसरा रहने लगा था | ऐसे ही एक दिन दोपहर के वक़्त मैं और सलमा खाना खाकर घर पर आराम कर रहे थे | शाहिद रोज़ की तरह ऑटो लेकर काम पर गया हुआ था | वह सुबह का नाश्ता खाकर जो सुबह निकलता तो देर शाम को ही वापस आता था | दिन का खाना वह डिब्बे में साथ लेकर जाता था जिसे वह अपनी सहूलियत के मुताबिक रास्ते में कहीं खा लेता था | अभी हम नींद में ही थे कि अचानक दरवाज़े पर कुछ आहट हुई और फिर घंटी बजी | सलमा ने ताज्जुब करते हुए कहा, “लगता है आज शाहिद जल्दी घर आ गया है, जाओ दरवाज़ा खोलो |” मैंने जैसे ही दरवाज़ा खोला तो सामने पुलिस के दो सिपाहियों को खड़ा देखकर दिल किसी अनहोनी की आशंका से ज़ोरों से धड़कने लगा | उनमें से एक सिपाही ने ऊँची आवाज़ में कहा, “क्या शाहिद ऑटोवाले का घर यही है ?” मैंने किसी तरह हिम्मत बटोरते हुए जवाब दिया, “जी हाँ लेकिन इस वक़्त तो वह काम पर गया हुआ है, शाम तक वापस आएगा |” शाहिद का नाम सुनकर अब तक सलमा भी दरवाज़े पर आ गई थी | पुलिस के सिपाहियों को वहाँ देख कर वह फ़िक्रमंद आवाज़ में बोली, “क्या शाहिद से कुछ ग़लत हो गया है ?” सिपाही ने उसकी बात अनसुना करते हुए कहा, “आप दोनों को अभी हमारे साथ चलना होगा | एस.पी साहब ने बुलाया है |” एस.पी. का नाम सुनकर तो हम दोनों को काटो तो खून नहीं | पता नहीं कौन-सी आफ़त आन पड़ी है | सलमा का चेहरा तो अंजान खौफ़ से ज़र्द पड़ गया था | वह लगभग गिड़गिड़ाते हुए सिपाहियों से बोली, “भईया, क्या बात है ? शाहिद से कुछ ग़लत हो गया है क्या ? मेरा बेटा थोड़ा गरम मिजाज़ ज़रुर है लेकिन वह दिल का बहुत नेक है | वह कोई ग़लत काम नहीं कर सकता है | लगता है आपको ज़रुर कोई ग़लतफ़हमी हो गई है | उसे मुझसे ज़्यादा कोई और नहीं जानता |” सलमा की बात सुनकर सिपाही लगभग झुँझलाते हुए बोला, “आपको जो कहना है एस.पी. साहब से ही कहना | अभी तो आप दोनों तैयार होकर जीप में बैठ जाइए | शाहिद को भी वहीं बुलाया गया है |” पुलिस के हुक्म को मानने के अलावा हमारे पास और कोई चारा नहीं था | सो हम दोनों जिस हालत में थे उसी हालत में जीप में बैठ गए | रास्ते भर हम दोनों ख़ामोश बैठे रहे | ऊपर से तो हम ख़ुद को शांत दिखाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन दिल के भीतर एक भयानक तूफ़ान उमड़ रहा था | मन में नाना प्रकार के सवाल उमड़ रहे थे, “पता नहीं शाहिद से क्या हो गया है जो एस.पी. साहब ने हमें इस तरह बुलाया है ? घर में तो शाहिद का बर्ताव सामान्य ही था | कल रात उसको आने में थोड़ी देर ज़रुर हो गई थी लेकिन वह हमेशा की तरह शांत और सामान्य ही लग रहा था | सुबह भी सब कुछ रोज़ की तरह ही चल रहा था | तैयार होकर, नाश्ता खाकर और अपना लंच बॉक्स लेकर वह घर से निकला था | जाते वक़्त वह मुझसे बोल कर गया था कि शाम को वह मुझे लेकर जाएगा आँख की जाँच करवाने | इस सुकून भरी ज़िंदगी में खुदा जाने यह कैसी मुसीबत आन पड़ी है ? ज़रुर किसी की नज़र लग गई है हमारी सुखी ज़िंदगी में |”
अचानक सिपाही की भारी-भरकम आवाज़ से मेरे ख़्यालों का सिलसिला एक झटके से टूट गया | जीप अब एस.पी. ऑफिस पहुँच गई थी और सिपाही हमें उतरने के लिए कह रहा था | जीप से उतर कर हम दोनों सिपाही के पीछे-पीछे चल दिए | वह हमें एक बड़े से कमरें में ले गया जहाँ बहुत सारी कुर्सियाँ लगी थीं | हमें वहीं बैठा दिया गया | हमारे करीब ही एक तीस-पैंतीस बरस की उम्र के एक मियाँ-बीवी भी बैठे हुए थे | शक्लो-सूरत और पहनावे से वे मध्यम वर्गीय परिवार के जान पड़ते थे | थोड़ी देर बाद शाहिद भी वहाँ पहुँच गया | शाहिद को देखते ही उसकी माँ के दिल में भरा हुआ लावा अचानक फूट पड़ा | अपने आँसुओं को दुपट्टे के पल्लू से पोंछते हुए रूँधे हुए गले से बोली, “यह तूने ऐसा क्या कांड कर दिया है कि हमें पुलिस के दफ़्तर में इस तरह लाया गया है | हमारे ख़ानदान में आज तक किसी ने पुलिस थाने का मुँह भी नहीं देखा था लेकिन आज तेरी वजह से यह कमी भी पूरी हो गई | तुम्हें कम से कम अपने बूढ़े माँ-बाप की इज्ज़त का तो ख्याल करना चाहिए था | आज अगर तुझे कोई सज़ा हो गई तो हम दोनों का बुढ़ापा खराब हो जाएगा | न मोहल्ले में और न ही बिरादरी में कहीं मुँह दिखाने लायक रह जाएँगे |” माँ की आँखों से बहते हुए आँसुओं को देखकर शाहिद ने मुस्कुराते हुए कहा, “अम्मी, आपको अपने बेटे पर ऐतबार है कि नहीं ? यकीन रखिए मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिससे अपने खानदान की इज्ज़त पर कोई आँच आए | थोड़ा सब्र कीजिए अभी दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा |” तभी एक सिपाही ने कमरे से बाहर आकर हम सबसे मुख़ातिब होते हुए ऊँची आवाज़ में कहा, “आप सबको एस.पी. साहब ने अन्दर बुलाया है |” उसकी बात सुन कर हम तीनों एस.पी. साहब के कमरे में दाख़िल हुए | हमें ताज्जुब हुआ कि हमारे करीब बैठे हुए मियाँ-बीवी भी हमारे पीछे-पीछे एस.पी. साहब के कमरे में गए | ख़ासा बड़ा कमरा था एस.पी. साहब का जिसमें एक बड़ी सी मेज़ के पीछे एक रौबीला शख्स बैठा हुआ था | गोरा रंग, ऊँची कद-काठी और चेहरे पर काली घनी मूँछें उनके शख्सियत को प्रभावशाली बना रहे थे | उनके करीब दो और पुलिस अफ़सर खड़े थे जो शायद उसके जूनियर अफसर थे | हमें देखकर एस.पी. साहब ने हाथ जोड़ कर हम सब का स्वागत किया और सामने रखी कुर्सियों पर बैठने का इशारा किया | हम दोनों से मुख़ातिब होते हुए उन्होंने पूछा, “मेरा ख्याल है कि आप दोनों शाहिद के वालदेन हैं |” उनके सवाल के जवाब में मैंने सिर हिलाते हुए जवाब दिया, “जी हाँ, मेरा नाम फ़िरोज़ है और ये हैं शाहिद की अम्मी सलमा | हमें बहुत फ़िक्र हो रही है कि हमें यहाँ क्यों लाया गया है | क्या शाहिद से कुछ गलती हो गई है ?” इससे पहले मैं और कुछ बोल पाता एस.पी. साहब ने मुस्कराते हुए फ़रमाया, “मैं आपसे माफ़ी माँगता हूँ कि आपको यह तकलीफ़ दी | आप शाहिद को लेकर बिलकुल भी फ़िक्र मत करें बल्कि मैं तो कहूँगा कि आपको शाहिद जैसे नेक और ईमानदार बेटे पर फ़क्र होना चाहिए | हम पुलिसवाले रोज़ाना यह देख रहे हैं कि आज के ज़माने में इंसान थोड़े से पैसे के लालच में बड़े से बड़े अपराध करने से नहीं हिचकिचाता है | अच्छे, ऊँचे खानदानों के पढ़े-लिखे लड़के भी दौलत के लिए अपराध और दहशतगर्दी का रास्ता अख्तियार कर रहे हैं | इस माहौल में आपके बेटे ने जो किया है वह आज के ज़माने में किसी चमत्कार से कम नहीं है | यह आज के नौजवानों के लिए एक सबक है |” एस.पी. साहब की बातें सुनकर मैंने सलमा की ओर देखा | उसकी आँखें खुशी के आँसुओं से डबडबाई हुई थीं | शाहिद की तारीफ़ में कहे गए ये अल्फाज़ कानों में मिसरी की तरह घुल रहे थे | एस.पी. साहब आगे कह रहे थे, “मैं आपको कल का एक वाक्या सुनाता हूँ | ये आपके पास जो मियाँ-बीवी बैठे हैं, ये कल किसी पारिवारिक शादी में शामिल होने हैदराबाद आए थे | खाने-पीने के लिए ये कुछ वक्त के लिए एक रेस्तराँ में गए थे | वहाँ ये मोहतरमा अपना पर्स भूल आईं जिस में करीब दस तोले सोने के ज़ेवरात थे | करीब एक घंटे के बाद जब इन्हें इस बात का इल्म हुआ तो इन्होंने वापस रेस्तराँ में जाकर पता किया लेकिन इन्हें कुछ भी हाथ नहीं लगा | इसके बाद दोनों ने इलाके के पुलिस थाने में जाकर शिकायत दर्ज की | थाने के इंस्पेक्टर ने भी वहाँ जाकर पूछताछ की लेकिन कुछ भी सुराग नहीं मिला | उस छोटे से रेस्तराँ और आसपास के इलाके में कोई भी कैमरा नहीं लगे होने की वजह से खोज काफ़ी मुश्किल जान पड़ती थी | इस बीच पुलिस कंट्रोल रूम में शाहिद का फ़ोन आया | उसने जानकारी दी कि उसे फलाँ-फलाँ रेस्तराँ में एक पर्स मिला है जिसमें सोने के काफी ज़ेवर हैं | इसके बाद उसने इलाके के थाने में जाकर वह पर्स जमा कराया | इन दोनों मियाँ-बीवी ने यह तस्दीक की है कि उस पर्स में उनके सारे ज़ेवरात सही सलामत हैं | जब यह वाक्या मेरी जानकारी में लाया गया तो मुझे लगा कि यह कोई मामूली घटना नहीं है | पाँच–साढ़े पाँच लाख के ज़ेवरात के सामने अच्छे से अच्छे इंसान का ईमान डोल जाता है | एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखने के बावजूद भी शाहिद ने ईमानदारी से पाँच लाख के ज़ेवरात से भरा हुआ पर्स पुलिस थाने में जमा कराया | इस मामूली से दिखने वाले लड़के ने जो काम किया है वह आज के ज़माने में दुर्लभ है | इसके लिए मैं इसे सलाम करता हूँ | अगर शाहिद आज एक नेक, मेहनतकश और ईमानदार शहरी बन सका है तो इसका पूरा श्रेय आप दोनों को जाता है जिन्होंने इसे ऐसे नेक संस्कार दिए हैं इसलिए मेरी यह ख्वाइश है कि इस मौके पर पुलिस की ओर से शाहिद और आप दोनों का सम्मान किया जाए |” वहाँ मौजूद सभी लोगों ने तालियाँ बजा कर खुशी ज़ाहिर की | इसके बाद एस.पी. साहब ने फूलों के हार पहनाकर और मिठाई खिलाकर हमारा सम्मान किया और मुझे गले लगाया |
एस.पी. साहब से इतना सम्मान पाकर हम दोनों अभिभूत हो गए थे | शायद औरों की तरह हम भी अपने बेटे को आज तक पूरी तरह से समझ नहीं पाए थे | हम उसकी काबलियत को हमेशा उसकी आमदनी से ही तोलने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन हमारा बेटा तो लाखों में क्या, करोड़ों में एक है | आज के ज़माने में पैसेवाले तो बहुत मिल जाएँगे लेकिन शाहिद जैसा ईमानदार और नेक शख्स दीया लेकर ढूँढ़ने से भी नहीं मिलेगा | आज उसकी ईमानदारी की वजह से ही एस.पी. साहब ने हमें यह इज्ज़त बख्शी है | इस वक़्त अपने जज़्बातों को ज़ाहिर करने के लिए हमारे पास अल्फाज़ नहीं हैं | लाख कोशिशों के बावजूद भी खुशी के आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे रहे हैं | हमारे सारे गिले-शिकवे आँसुओं की शक्ल में बहे जा रहे हैं |