आ अब लौट चलें
आज सुबह से मेरी तबियत कुछ अनमनी सी हो रही है | सिर में भी कुछ भारीपन सा बना हुआ है | किसी काम में मन नहीं लग रहा है | इसीलिए आज काम पर नहीं गई | वहाँ पर फ़ोन कर के न आने की इत्तिल्ला दे दी | सुपरवाइज़र कुछ खफ़ा थीं, लेकिन किसी तरह उनको राज़ी कर लिया | बिटिया इन्ज़िया अपने नियत वक़्त पर तैयार हो कर स्कूल चली गई है |
आज घर में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ है | दरअसल पिछले कुछ दिनों से इश्तियाक़ के यहाँ होने से काफ़ी रौनक हो गई थी | इन्ज़िया तो सारे घर में चहकती हुई फिरती रही | हम उम्र होने की वजह से दोनों में काफ़ी पटती है | दिन भर दोनों भाई-बहन बातें करते रहते थे | शाम को काम से वापिस आने के बाद हम तीनों मिलकर बहुत सारी बातें करते थे | खाना पकाते वक़्त मैं दोनों को चौके में ही बुला लेती | खाना बनाने के साथ-साथ बातों का सिलसिला भी जारी रहता | यहाँ तक कि रात में बिस्तर पर लेटे-लेटे हम तब तक बातें करते रहते जब तक कि आँखें ख़ुद-ब-ख़ुद बंद न होने लगतीं | उन दिनों घर पर मेरा ज़्यादातर वक़्त खाना बनाने में ही निकल जाता था | मेरी कोशिश होती कि इन गिनती के दिनों में बेटे को उसकी पसंद के हर पकवान पका कर खिला सकूँ | आख़िर एक लम्बे अरसे के बाद उससे मिलना नसीब हुआ था | देखते ही देखते पाँच-छह दिन कैसे फुर्र से उड़ गए एहसास ही नहीं हुआ | कल शाम को ही वह वापिस अपने अब्बा के घर के लिए रवाना हुआ था | उसकी रुख़सती के वक़्त कलेजा मुँह को आ रहा था | आँखों से बहते आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे | सोच रही थी कि अब न जाने कब फिर मिलना नसीब होगा |
कल सुबह से ही दोनों बच्चे एक ही ज़िद पर अड़े थे कि मैं अब्बू से सुलह कर लूँ जिससे कि हम सब एक बार फिर से साथ-साथ रह सकें | हालाँकि इश्तियाक़ यह बात पिछले कई महीनों से कह रहा था लेकिन कुछ दिनों साथ रहने के बाद उसकी ज़िद अब काफ़ी बढ़ गई है और इस दफ़ा तो इन्ज़िया भी भाई की हाँ में हाँ मिलाने लगी है | शायद वे दोनों अधूरी ज़िंदगी जीते-जीते उकता गए हैं | सच पूछो तो मैं बच्चों की इस माँग को ग़लत नहीं मानती | कहीं न कहीं मुझे इस बात का एहसास है कि वे दोनों बिलावजह माँ-बाप के कर्मों की सज़ा भुगत रहे हैं | वे भी दूसरे बच्चों की तरह अपने अम्मी-अब्बू के साथ हँसी-खुशी रहना चाहते हैं जिससे उन्हें दोनों का प्यार नसीब हो सके | आख़िर यह उनका बुनियादी हक़ है | मुझे दिली अफ़सोस है कि हम उनकी यह मामूली से ख्वाइश भी पूरी नहीं कर पा रहे हैं |
मुझे ख़ुद भी बेटी के साथ मायके में रहते-रहते उकताहट सी होने लगी है | अब्बा-अम्मी के इंतक़ाल के बाद से दोनों भाइयों का रुख़ भी कुछ बदल सा गया है | उनकी चुभती हुई नज़रें हमें हर वक़्त घर में बिन-बुलाए मेहमान होने का एहसास दिलाती रहती हैं | यह एक कड़वी हक़ीकत है कि निकाह के बाद बेटी के लिए माँ-बाप का घर पराया हो जाता है लेकिन मैं भी मजबूर थी | रोज़-रोज़ के क्लेश से शौहर के घर में रहना हराम हो गया था | जब भी उन घुटन भरे दिनों की याद आती है तो ज़हन में दबे हुए पुराने ज़ख्म फिर से हरे हो जाते हैं |
निकाह के बाद शुरूआती दिन बहुत मज़े से गुज़रे थे | उन दिनों इमरान मेरा बहुत ख्याल रखते थे | उनका लकड़ी के फर्नीचर बनाने का काम था | घर के ही एक हिस्से में उन्होंने कारखाना बना रखा था | हाथ में हुनर होने से अच्छी-ख़ासी कमाई हो जाती थी | घर के रोज़मर्रे के खर्च आराम से निकल जाते थे और साथ ही थोड़ी-बहुत बचत भी हो जाती थी | निकाह के तीन बरसों के भीतर ही इश्तियाक़ और फिर इन्ज़िया हमारी ज़िंदगी में आए | बच्चों की पैदाइश तक सब कुछ खैरियत रही लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता इमरान की सोहबत मोहल्ले के आवारा-छाप शख्स अब्दुल से हो गई | अब्दुल दिन भर बेकार घूमता रहता था | उसके साथ रहकर इमरान को शराब और जुए की बुरी लत लग गई थी | हर रोज़ शराब और जुए की महफ़िल देर रात तक चलती रहती | काम-धंधे से हुई कमाई का बड़ा हिस्सा शराब और जुए में बर्बाद होने लगा था | इससे न केवल घर आने वाली कमाई कम होने लगी थी बल्कि सिर पर उधारी का भी बोझ बढ़ने लगा था | हालात इस कद्र तक ख़स्ता हो गए थे कि घर के ज़रुरी खर्चों के लिए भी पैसा नहीं बचता था | आए-दिन दरवाज़े पर तकाज़ा करने वालों का आना-जाना लगा रहता था | देनदारों से उधारी को लेकर होने वाली तकरार अब आम हो गई थी जिससे मोहल्ले में अड़ोसी-पड़ोसी हमें हिक़ारत की नज़र से देखने लगे थे | पैसों की किल्लत बढ़ने के साथ इमरान अब चिड़चिड़े और गुस्सैल हो चले थे | वे न तो अपना चाल-चलन बदलने के लिए तैयार थे और न ही उन्हें इस बाबत किसी और की समझाइश बर्दाश्त होती थी | जब भी मैं उनसे घर के खर्चे के लिए पैसों की माँग करती तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच जाता और फिर उनकी ज़ुबान शराफ़त की हर हद पार कर जाती | शराब के नशे में वे मुझ पर हाथ उठाने से भी गुरेज़ नहीं करते | इस दौरान दोनों बच्चे डरे-सहमे हुए अपनी माँ को बाप के हाथों बेइज़्ज़त होते देखते रहते | आखिरकार एक दिन ऐसा भी आया जब रोज़ाना होने वाली गाली-गलौच और मार-पीट बर्दाश्त के बाहर हो गई और उस दिन मैंने हार कर शौहर का घर छोड़ कर जाने का फ़ैसला ले लिया | एक औरत के लिए जब दुनिया के सारे दरवाज़े बंद हो जाते हैं तो उसे अपने माँ-बाप के घर का ही आसरा होता है जो उनके जीते जी अपनी बेटी के लिए हमेशा खुला रहता है | इसलिए मैं अपनी नन्ही सी बच्ची इन्ज़िया को लेकर मायके आ गई | मैं तो दोनों बच्चों को अपने साथ लाना चाहती थी लेकिन इमरान ने मुझे इश्तियाक़ को अपने साथ लाने नहीं दिया |
उन दिनों यहाँ मायके की माली हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी | हाँ, पुश्तैनी मकान होने से सिर छुपाने की दिक्कत नहीं थी लेकिन रोज़ाना के खर्चे के लिए आमदनी का कोई न कोई ज़रिया होना ज़रुरी था | मेरी जैसी घरेलू औरत के लिए रोज़गार के लिए घर से बाहर निकलना निहायत ही मुश्किल काम था | न तो मैं ज़्यादा पढ़ी-लिखी थी कि किसी दफ़्तर में काम कर सकूँ और न ही इससे पहले मुझे किसी किस्म का तजुर्बा था | अभी तक तो मैंने ख़ुद को घर की दहलीज़ के भीतर ही बंद रखा था | घर के बाहर होने वाली जद्दो-जहद से मैं पूरी तरह नावाकिफ़ थी | लेकिन मुश्किल वक़्त इंसान को दिमाग़ी तौर पर ज़्यादा मज़बूत बना देता है जिससे कि वह रास्ते में आने वाली दुश्वारियों से लोहा ले सके | और कोई रास्ता न देख मैंने भी जी कड़ा करके घर से निकल कर काम करने का फैसला लिया | इस काम में अब्बू ने मेरी बहुत मदद की | उन्होंने लोगों से कह-सुनकर मुझे एक आँगन-वाड़ी में काम दिलवा दिया जिससे कि मुझे महीने की एक मामूली ही सही लेकिन एक बंधी हुई रक़म मिलने लगी | थोड़ी बड़ी होने पर इन्ज़िया का मैंने क़रीब के ही एक सरकारी स्कूल में दाख़िला करवा दिया था | इस तरह मेरी ज़िंदगी की गाड़ी आहिस्ता-आहिस्ता इस नई पटरी पर किसी तरह चलने लगी |
हालाँकि ऊपर से सब कुछ ठीक दिखाई पड़ता था लेकिन भीतर दिल में कहीं एक खालीपन का एहसास मौजूद था | कहने को तो इमरान अभी भी मेरे शौहर थे लेकिन पिछले महीनों में जो कुछ मेरे साथ गुज़रा था उसकी वजह से मन में उनके लिए कड़वाहट भरी हुई थी | इस वजह से यहाँ आने के बाद से मैंने उनसे बात करने की न तो कोई कोशिश की और न ही उनकी तरफ़ से कोई पहल हुई | ऐसे हालात में वक़्त गुजरने के साथ हमारे दिलों के बीच के फ़ासले भी काफ़ी बढ़ गए थे | दूसरी तरफ़ इश्तियाक़ को लेकर मैं बहुत फ़िक्रमंद रहती थी | एक लम्बे अरसे से उससे कोई बात नहीं हो पाई थी | ज़िंदगी के इस मुक़ाम पर बच्चों के लिए माँ की मौजूदगी निहायत ही ज़रुरी होती है | वही बच्चों की हर छोटी-बड़ी ज़रूरतों का ख्याल रख सकती है | पता नहीं अब कौन वहाँ इश्तियाक़ का ख्याल रखता होगा | उसको वक़्त पर खाना-पानी मिलता होगा या नहीं | दुखी होने पर वह किसके गले लगकर अपने दुखड़े रोता होगा | बाज़ दफ़ा तो ख्व़ाब में ऐसा एहसास होता था कि जैसे इश्तियाक़ किसी बड़ी परेशानी में फँसा हुआ है और उसे मेरी सख्त ज़रुरत आन पड़ी हो | ऐसे मौकों पर मैं अक्सर अपनी पड़ोसन ऊषा बहन से घर की खैरियत पता करती रहती थी | वे बहुत ही नेक औरत हैं | ऐसा कहा जाता है कि एक औरत ही दूसरी औरत का दर्द महसूस कर सकती है | मेरी दिमाग़ी हालत भाँप कर उन्होंने इश्तियाक़ को अपने घर बुलवाकर उससे मेरी फ़ोन पर बात करवाई थी | बेटे की आवाज़ सुनकर मुझे जो खुशी नसीब हुई थी उसे लफ़्ज़ों में बयाँ नहीं किया जा सकता है | उस मौक़े पर खुशी की वजह से लाख़ कोशिश करने के बावजूद भी हलक से आवाज़ नहीं निकल पा रही थी और आँखों से बहते आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे | उस फ़ोन कॉल के दौरान हम माँ-बेटे कुछ बात नहीं कर पाए थे | शायद हमारी रुँधी हुई आवाज़ ने वे सब जज़्बात बयाँ कर दिए थे जो दिल की गहराइयों में कहीं दबे हुए थे | इसके बाद ऊषा बहन की मेहरबानी से हर हफ़्ते जुम्मे के दिन मेरी इश्तियाक़ से बात होने लगी | साथ में इन्ज़िया भी भाई से बात कर लेती थी | उस वक़्त इमरान के नमाज़ का वक़्त होता था | इश्तियाक़ के ज़रिए घर के हालात का भी पता चलता रहता था | मेरे आने के बाद कुछ दिन तो इमरान का पुराना ढर्रा बादस्तूर चालू रहा लेकिन वक़्त के साथ उसमें काफ़ी बदलाव आ गया था | अब वे पुराने इमरान न थे | उन्होंने अपने आवारा संगी-साथियों से किनारा कर लिया था | अब वे ज़्यादातर वक़्त खामोश रहते थे और दूसरों से अपने काम से काम रखते थे |
इस तरह आहिस्ता-आहिस्ता चार बरस का वक़्त निकल गया | इस लम्बे वक़्त में हममें से किसी ने आपसी सुलह के लिए कोई पहल नहीं की थी | इस दौरान मुझे कभी भी इश्तियाक़ से मिलना नसीब नहीं हुआ था | क़रीब दस दिन पहले मुझे रिश्तेदारों से ख़बर मिली कि इमरान के चचेरे भाई जावेद अपने किसी ज़ाती काम के सिलसिले से पाँच-छह दिन के लिए कानपुर आ रहे थे | यह ख़बर सुन कर दिल के किसी कोने में यह उम्मीद जागी कि क्या ही अच्छा हो अगर इश्तियाक़ जावेद भाई के साथ यहाँ आ जाए | हालाँकि मुझे ख्व़ाब में भी यह उम्मीद नहीं थी कि इमरान उसे मुझसे मिलने की इजाज़त देंगे फिर भी मैंने इश्तियाक़ से कहा कि वह अब्बू से पूछ कर देखे कि क्या वे उसे जावेद भाई के साथ कुछ दिनों के लिए हमारे पास भेजने के लिए रज़ामंद होंगे | खुदा जाने क्या जादू हुआ इमरान इश्तियाक़ को जावेद भाई के साथ हमारे पास भेजने के लिए राज़ी हो गए | इंशाल्लाह, इस तरह हम तीनों एक लम्बे अरसे के बाद एक दूसरे से रूबरू मिल पाए |
इश्तियाक़ के लख़नऊ जाने के बाद से भाई-बहन की क़रीब-क़रीब रोज़ाना ही फ़ोन पर बात होने लगी थी | मुझे पता चला था कि इन्ज़िया अपने अब्बू से भी फ़ोन पर बात करती रहती थी | अब ये दोनों बच्चे माँ के साथ-साथ अपने अब्बू पर भी आपसी सुलह के लिए दबाव बनाने लगे थे | इन्ज़िया की बातों से मुझे ऐसा लगा कि इमरान मुझ से उम्मीद कर रहे हैं कि मैं ख़ुद चलकर घर लौट जाऊँ | मैं अच्छी तरह समझती थी कि शायद एक मर्द का अहं उन्हें सुलह की जानिब पहला कदम उठाने से रोक रहा था जबकि हक़ीकत में इस सारे झगड़े-फसाद की असल वजह उनकी बुरी आदतें और मुझसे किया गया बुरा बर्ताव था | और इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि वे मेरे साथ ऐसा बर्ताव दुबारा नहीं करेंगे | इससे तो मैं यहाँ लाख़ दुश्वारियों के बावजूद भी पहले से कहीं ज़्यादा सुकून से हूँ और अब तो मैं इस ज़िंदगी की आदी भी हो गई हूँ | ज़िंदगी के इस मोड़ पर केवल एक ही बड़ा बोझ मेरे सीने पर बना हुआ है जो मुझे चैन से जीने नहीं देता है और वह बोझ है - हमारी वजह से ये दोनों बच्चे आज एक आधी-अधूरी ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं | उनका मासूम बचपन आज कहीं खो चुका है और मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रही हूँ | यही सब नफ़ा-नुकसान तोलकर मैंने बच्चों की सुलह करने की ज़िद पर फिलहाल अपनी ओर से कोई राय ज़ाहिर नहीं की |
इस तरह उधेड़बुन में दिन, हफ़्ते और महीने तेज़ी से बीतते जा रहे थे | ऐसे ही एक शाम मैं रोज़ की तरह चौके में खाने की तैयारी कर रही थी | सर्दियों के दिन थे | सुबह की बची हुई तरकारी रखी हुई थी और केवल फुल्के उतारने थे | हम दोनों माँ-बेटी के लिए गिनती की चार फुलकियाँ भी काफ़ी होती थीं | आज काम से वापस आने में थोड़ी देर हो गई थी | खाने का वक़्त भी हो चला था इसलिए मैं जल्दी-जल्दी हाथ चला रही थी | कमरे में इन्ज़िया भाई के साथ फ़ोन पर बातें करने में मशगूल थी | बीच-बीच में उसकी खिलखिलाकर हँसने की आवाज़ें चौके तक आ रही थीं | एकाएक इन्ज़िया दौड़ती हुई मेरे पास आई और फ़ोन मेरे कान पर लगाते हुए बोली, “अम्मी, भईया का कॉल है, उनसे बात करिए |” ऐसा कहकर वह वापिस कमरे के भीतर भाग गई | चूँकि मेरे दोनों हाथ रोटियाँ बनाने में फँसे हुए थे इसलिए मैंने किसी तरह गर्दन टेढ़ी करके फ़ोन को कान और कंधे के बीच फँसाते हुए बात शुरु की | दूसरी तरफ़ से इश्तियाक़ की आवाज़ आई, “अम्मी, आदाब अर्ज़ करता हूँ | आप कैसी हैं ?” उसकी बात पर मैंने मुक्तसर सा जवाब दिया, “जीते रहो, बेटा | यहाँ हम सब खैरियत से हैं | वहाँ घर पर सब कैसे हैं ?” दूसरी तरफ से उसने जवाब दिया, “हम लोग ठीक हैं, अम्मी | अब्बू आपसे बात करना चाहते हैं | क्या आप अभी बात करेंगी ?” इश्तियाक़ की ओर से इस अप्रत्याशित हरक़त के लिए मैं दिमाग़ी तौर पर तैयार नहीं थी | थोड़ी देर के लिए दिमाग़ सुन्न हो गया | मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इस पर क्या जवाब दूँ ? बरसों से उनके साथ किसी किस्म की कोई बातचीत नहीं हुई थी जिससे कि दिलों के बीच फासले काफ़ी बढ़ चुके थे | ऐसी सूरत में आज एकदम से उनका सामना होने पर क्या बात करुँगी | मुझे पूरा यक़ीन था कि इश्तियाक़ की ज़िद की वजह से ही इमरान मुझसे बात करने के लिए राज़ी हुए होंगे | ऐसी सूरत में इमरान के पास भी कहने के लिए कुछ नहीं होगा | नहीं तो इतने बरसों में तो कभी मेरा ख्याल आया नहीं | इस ज़बरदस्ती के मिलाप से कुछ नहीं होने वाला | फ़ोन की दूसरी तरफ से आ रही इश्तियाक़ की आवाज़ से मेरे दिमाग़ में चल रहे ख्यालों का सिलसिला एकाएक टूट गया | वह कह रहा था, “क्या हुआ अम्मी ? आप एकदम से ख़ामोश क्यों हो गईं ?” जवाब में बस इतना ही कह पाई, “बेटा, अभी मैं इसके लिए तैयार नहीं हूँ | बाद में कभी देखा जाएगा |” ऐसा कहकर मैंने फ़ोन काट दिया | थोड़ी देर बाद इश्तियाक़ का पैग़ाम मिला, “अपनी इस हरकत के लिए मैं माफ़ी माँगता हूँ | दरअसल पिछले कुछ दिनों से अब्बू मुझे आपसे बात कराने के लिए कह रहे थे | वे अपने पुराने बर्ताव के लिए बेहद शर्मिन्दा हैं | उनकी ख़ुद आपसे बात करने की हिम्मत नहीं हो रही थी | कह रहे थे कि पता नहीं आप उनसे बात करना पसंद करेंगी कि नहीं | अब मुझे एहसास हो रहा है कि इस बाबत मुझे आपसे पहले बात कर लेना चाहिए था | आप अपनी सहूलियत से सोच कर जवाब दे दीजिएगा कि आप कब बात कर पाएँगी |”
उस रात तो मैंने उसे कोई जवाब नहीं दिया | फ़ोन बंद करके सो गई जिससे कि मैं चैन की नींद सो सकूँ लेकिन रात भर मुझे सुकून की नींद नसीब नहीं हो पाई | पूरी रात दिमाग़ में कश्मकश चलती रहा | पिछली ज़िंदगी एक फिल्म की तरह दिमाग़ में घूम गई | जहाँ एक ओर शौहर के हाथों मिली ज़िल्लत थी वहीं दूसरी तरफ़ अपने दोनों बच्चों के साथ रहने की चाहत | आज भी मुझे जब उनका शराब पीकर लड़खड़ाते हुए घर आना और फिर किसी छोटी-बड़ी बात पर भद्दी गालियों की बौछार और मारपीट करना याद आता है तो पूरा बदन सिहर उठता है | उस वक़्त न जाने कैसे मैंने वह सब कुछ बर्दाश्त किया था | आज ख़ुदा के फज़ल से बेहद मामूली आमदनी के बावजूद भी मैं कहीं ज़्यादा सुकून से जी रही हूँ | अब उस जहन्नुम जैसी ज़िंदगी में वापिस जाने की हिम्मत मुझमें नहीं बची है | इतने साल अकेले रहते-रहते अब उन्हें बीवी की ज़रुरत महसूस हो रही होगी तो वे अपने किए पर अफ़सोस जताएँगे लेकिन एक बार घर वापिस जाने के बाद अगर वे दुबारा वैसा ही बर्ताव करते हैं तो मैं दुबारा खड़े होने लायक भी नहीं बचूँगी | और अब तो अब्बू-अम्मी के जाने के बाद मायके से भी कोई उम्मीद नहीं बची है | लेकिन दूसरे ही लम्हे बच्चों के मासूम चेहरे ज़हन में आते ही मेरे इरादे कमज़ोर पड़ने लगते हैं | भीतर से बार-बार यह आवाज़ आती है, “हम अपने बच्चों को उनके किस जुर्म की सजा दे रहे हैं ? उनकी ख़ता बस इतनी सी है कि वे हमारी औलादें हैं | उनकी मासूमियत हमारे अहं और झूठे गुरूर के नीचे दफ़न होती जा रही है | क्या हम इन बच्चों के मुस्तक़बिल की ख़ातिर ख़ुद को थोड़ा झुकाकर आपस में सुलह नहीं कर सकते | आज हमारे बेटे ने एक मौक़ा दिया है | कम से कम एक कदम तो उठाकर देख |” यही सब सोचते-सोचते कब आँख लग गई एहसास ही नहीं हुआ |
दूसरे दिन सुबह उठते वक़्त काफ़ी तरोताज़ा महसूस कर रही थी | मुँह-हाथ धोने के बाद इश्तियाक़ को छोटा सा जवाब भेज दिया, “अगला इतवार ठीक है |” अभी इतवार आने में पाँच दिन बाक़ी थे | काफी वक़्त था सोचने के लिए लेकिन जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे दिल में बेचैनी बढ़ती जा रही थी | शौहर और बीवी का रिश्ता भी अजीब है | जहाँ एक ओर इमरान के लिए ज़हन में अभी भी गुस्सा मौजूद था वहीँ दूसरी तरफ़ दिल उनकी सलामती की दुआएँ करता था | ऐसा सुनने में आ रहा था कि उनकी सेहत अब ठीक नहीं रहती है | कई दफ़ा फ़िक्र होती है कि अब उनके खान-पान का ख्याल कौन रखता होगा ?
आख़िरकार इतवार का वह दिन आ ही गया | उनका फ़ोन सुबह ग्यारह बजे आने का तय हुआ था | उठते ही फ़ोन चार्जिंग पर लगा दिया था कि कहीं ऐन मौक़े पर दगा न दे जाए | सुबह दस बजे तक मैं सब काम निपटाकर तैयार हो गई थी | चलते-फिरते कान फ़ोन की घंटी पर ही टिके थे | ठीक ग्यारह बजे फ़ोन की धीमी सी घंटी बज उठी | यह इश्तियाक़ की तरफ़ से एक वीडियो कॉल था |
फ़ोन उठाते ही स्क्रीन पर इमरान का चेहरा नज़र आया | एक अरसे बाद मैं उन्हें देख रही थी | पहले के मुक़ाबले वे अब काफ़ी कमज़ोर और उम्रदराज़ दिखाई पड़ रहे थे | बाल भी आधे से ज़्यादा पक चुके थे | कुछ देर तक तो हम दोनों ख़ामोशी से एक दूसरे को देखते रहे | शायद दोनों को इंतज़ार था कि पहल कौन करेगा | आखिरकार इमरान ने ही बात की शुरुआत की |
इमरान – कैसी हो, ज़ुबैदा ? एक लम्बे अरसे के बाद तुम्हें देख रहा हूँ |
मैं – खुदा के फज़ल से खैरियत से हूँ | आप बहुत कमज़ोर दिखाई दे रहे हैं | सुनने में आया था कि आपकी सेहत आजकल ठीक नहीं रहती है |
इमरान – तुमने ठीक सुना है | पिछले एक-दो बरस से कई परेशानियाँ एक साथ चल रही हैं | दरअसल यह सब मेरे ही कर्मों का फल है | आज मैं तुम्हारे सामने सच्चे दिल से क़ुबूल करता हूँ कि तुम्हारे साथ किए गए बुरे बर्ताव की सज़ा मैं आज भुगत रहा हूँ और आगे भी भुगतता रहूँगा | तुम यहाँ से क्या गई घर की खैरो-बरकत ही खत्म हो गई | शराब और जुए की लत की वजह से न केवल घर-परिवार का सुख ख़त्म हो गया बल्कि सिर पर उधारी का बेहिसाब बोझ भी चढ़ता चला गया | उधारी चुकाने में पुश्तैनी मकान तक बेचना पड़ा | साथ ही अब बीपी और शकर की शिकायत भी रहने लगी है | कमाई का एक बड़ा हिस्सा मकान के किराये और डॉक्टरी इलाज में जा रहा है |
मैं – यह तो आपने बहुत ही बुरी ख़बर सुनाई | वह पुराना ही सही लेकिन ख़ासा बड़ा मकान था | बरसों से वह आपके पूरे ख़ानदान को आसरा दिए हुए था | अब आप अपना कारखाना कहाँ चलाते हैं ?
इमरान – अब अपना कारखाना भी नहीं रहा | दूसरे के कारखाने में जाकर नौकरी करता हूँ | आमदनी भी अब आधी हो गई है और खर्च दोगुना |
मैं – और क्या आपके जिगरी यार-दोस्तों का घर आना-जाना अभी भी बदस्तूर चालू है ?
इमरान – कैसे यार-दोस्त ? वे तो मौसमी साथी थे | जेब में पैसे ख़त्म होते ही वे भी काफ़ूर हो गए |
मैं – मुझे तो तब ही साफ़-साफ़ दिख रहा था कि आपके कदम बर्बादी की तरफ़ जा रहे हैं | मैंने आपको बार-बार आगाह करने की कोशिश की लेकिन उस वक़्त तो आपकी आँखों पर पर्दा पड़ा हुआ था | मेरी हर समझाइश आपको नाग़वार गुज़रती थी | मैं भी कहाँ तक रोज़ गाली-गलौच बर्दाश्त करती | अब आप ख़ुद ही देखिए इन सबका क्या अंजाम हुआ – एक हँसते-खेलते परिवार के दो टुकड़े हो गए, इतना बड़ा पुश्तैनी घर बिक गया, अपना अच्छा-ख़ासा चलता कारोबार तबाह हो गया और आपकी ख़ुद की सेहत भी अब ख़राब हो चली है और साथ ही मेरी अपनी ज़िंदगी भी जहन्नुम हो गई थी | अलगाव के बाद एक ऐसा वक़्त भी आया था जब मैं ज़िंदगी से पूरी तरह से नाउम्मीद हो चुकी थी | हर तरफ़ अँधेरा ही अँधेरा दिखाई दे रहा था | बड़ी मुश्किल से उस अवसाद के दौर से उबर पाई हूँ | अगर बच्चे नहीं होते तो शायद मैं अपनी ज़िंदगी ख़त्म कर चुकी होती |
इमरान – तुम सोलह आने सच कह रही हो | मैं तुम सब का कसूरवार हूँ | मुझ एक शख्स की बेअक्ली की सज़ा पूरे परिवार ने भुगती है | मेरे गुनाह इतने संगीन हैं कि मैं किसी भी माफ़ी के काबिल नहीं हूँ | सच पूछो तो मैं ख़ुद की नज़रों से इस हद तक गिर चुका हूँ कि तुम्हारा सामना करने की हिम्मत मुझमें नहीं बची थी | यह तो दोनों बच्चों की ज़िद थी जिसकी वजह से आज मैं तुमसे बात कर रहा हूँ |
मैं – ईमानदारी से कहूँ तो मैं भी बच्चों की वजह से ही आपसे फ़ोन पर बात करने के लिए राज़ी हुई हूँ | जब भी बच्चों के मासूम चेहरों को देखती थी तो कलेजा मुँह को आता था | वे दोनों मासूम नाहक ही अपने माँ-बाप की ग़लतियों का खामियाज़ा भुगत रहे हैं |
इमरान – हालाँकि मैं किसी भी माफ़ी के क़ाबिल तो नहीं हूँ लेकिन फिर भी मैं सच्चे दिल से माफी माँगता हूँ | तुम जो भी सज़ा दोगी वह खुशी से कुबूल करूँगा |
मैं – अगर आप उस वक़्त मेरी बात सुन लेते तो आज हम सब एक ख़ुशहाल ज़िंदगी बसर कर रहे होते | अब तो जो नुक्सान होना था, हो चुका है | उसकी कोई भी भरपाई नहीं कर सकता है | अगर आज भी आप अपनी ग़लतियों से तौबा कर लेते हैं तो आगे की ज़िंदगी बेहतर हो सकती है | सच्चे दिल से किए गए पश्चाताप को तो ख़ुदा भी माफ़ कर देता है |
इमरान – आज तुमसे बात करके मुझे बहुत हौसला मिला है | मैं तुम सब से ईमानदारी से वायदा करता हूँ कि आइंदा कभी भी पुरानी ग़लतियों नहीं दोहराऊँगा | इंशाल्लाह, आगे सब कुछ अच्छा होगा | इस वक़्त मैं तुमसे एक गुज़ारिश करना चाहता हूँ जिसे मानना या न मानना तुम्हारे ऊपर है | क्यों न हम एक बार फिर से ज़िंदगी की नई शुरुआत करें - अपने लिए न सही, बच्चों की ख़ातिर ही सही |
मैं – मैं आपके वायदों की कद्र करती हूँ लेकिन इस वक़्त मैं कुछ भी कहने की हालत में नहीं हूँ | दरअसल मेरे ज़ाती तजुर्बे इतने कड़वे हैं कि मुझे इस मुतल्लिक फैसला लेने के लिए काफ़ी सोचना पड़ेगा | इसमें ख़ासा वक़्त भी लगेगा | एक बार जो ऐतबार टूट जाता है उसे दुबारा जोड़ पाना आसान नहीं होता है, हो सकता है वह जुड़े या न जुड़े | रहीम साहब तो बरसों पहले लिख गए हैं - “रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय | तोड़े से फिर न जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाए |” अगर आप संजीदा हैं तो आपसी भरोसा बनाने के लिए आपको कुछ वक़्त देना होगा | थोड़ा सब्र भी रखना होगा | इस दौरान आप बात करते रहिए | हो सकता है कि वक़्त पुराने घावों पर मलहम लगा दे और पुराना भरोसा वापिस लौट आए | अगर ख़ुदा की मर्ज़ी हुई तो एक बार फिर से कुनबा एक हो सकेगा |
इमरान – मैं तुम्हारी दिमाग़ी हालत अच्छी तरह समझ सकता हूँ | तुम जिन मुश्किल हालातों से गुज़री हो, उसके बाद मेरे वायदों पर एकाएक यक़ीन करना तुम्हारे लिए आसान नहीं होगा | मैं वायदा करता हूँ कि नई ज़िंदगी शुरु करने की ख़ातिर जो भी बन पड़ेगा, ज़रुर करूँगा | सच्चे दिल से की गई कोशिशें कभी भी ज़ाया नहीं जाती हैं | इतने बुरे तजुर्बों के बावजूद भी तुम्हारी सोच इतनी सकारात्मक है यह एक बहुत बड़ी बात है | हम आइंदा बराबर बात करते रहेंगे | मुझे पूरा यक़ीन है कि तुम्हारे सहयोग से हम ज़रुर कामयाब होंगे | तुम अपना और इन्ज़िया का ख्याल रखना | कभी भी किसी किस्म की ज़रुरत हो तो तुम मुझ पर भरोसा कर सकती हो |
मैं – शुक्रिया | आज आपसे दिल की बात कह कर काफ़ी हल्का महसूस कर रही हूँ | आप भी अपना और इश्तियाक़ का ख्याल रखिएगा | बात करते रहिएगा |
ज़ाहिर था इस फ़ोन पर हुई पहली बातचीत से हमारे रिश्तों के बीच जमी बर्फ़ के पिघलने की शुरूआत हो गई थी | इसके बाद इमरान बाक़ायदा दो-तीन दिन में वीडियो कॉल लगा ही लेते थे | कई मर्तबा फ़ोन पर बच्चे भी जुड़ जाते थे और उनके बीच-बीच में चलने वाले हँसी-मज़ाक की वजह से घर का माहौल काफ़ी हल्का लगने लगा था | क़रीब दो-तीन महीने बाद ऐसे ही एक कॉल के दौरान इमरान ने सुझाव दिया कि क्यों न आने वाली ईद हम सब साथ मिल कर मनाएँ | उनकी बात सुनकर बच्चे इतने जोश में आ गए कि उसी वक़्त ख़ुशी से नाचने लगे | उनकी इस ख़ुशी के आगे मैं उन्हें नहीं कहने की हिम्मत न जुटा सकी |
अपने अलगाव के बाद यह पहला मौक़ा था जब हमारा छोटा सा कुनबा यहाँ कानपुर में इकट्ठा हो रहा था | बच्चों के लिए यह बहुत ही ख़ास मौक़ा था | हम दोनों ने अपनी छोटी सी बचत में थोड़ी सी रक़म निकल कर बच्चों के लिए नए कपड़े सिलवाए थे | नए कपड़ों में बच्चे बहुत ख़ुश नज़र आ रहे थे | इस दफ़ा इमरान के बर्ताव में भी पुरानी गर्माहट महसूस हो रही थी | वे न केवल घर और बाहर के कामों में मेरा हाथ बँटा रहे थे बल्कि मेरी हर छोटी-बड़ी पसंद-नापसंद का बराबर ख्याल रख रहे थे | उनकी आँखों में सुकून की एक ख़ास चमक दिख रही थी | साथ-साथ बिताए इन दिनों के दौरान हम सब ख़ुद को एक दूसरे के और ज़्यादा क़रीब महसूस करने लगे थे | ये तीन दिन इतने जल्दी बीत गए कि एहसास ही नहीं हुआ |
रवानगी के दिन की सुबह जब मैं और इमरान चौके के सामने आँगन में बैठे चाय पी रहे थे तो एकाएक मुझे शादी के बाद के शुरूआती दिनों की याद हो आई जब हम ऐसे ही हर दिन की शुरुआत करते थे | उस वक़्त इमरान कुर्सी पर बैठे थे और मैं क़रीब ही एक तिपाही पर बैठी थी | चाय पीने के दौरान इमरान ने प्यार से मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया | वे हौले-हौले मेरा हाथ सहला रहे थे | इतने लम्बे वक़्त के बाद शौहर के सानिध्य की गर्माहट मुझे बहुत भली लग रही थी | शायद इसीलिए मैंने उनसे अपना हाथ छुड़ाने की कोई कोशिश नहीं की | इमरान कह रहे थे, “ज़ुबैदा, तुम्हारे साथ ये तीन दिन बिताकर ऐसा महसूस होता है जैसे ज़िंदगी में एक बार फिर से रौनक़ लौट आई हो | देखो, बच्चे भी कितने ख़ुश हैं | इश्तियाक़ को इतना खुश मैंने कभी नहीं देखा है | इतने बरसों से हम सब एक अधूरी ज़िंदगी जी रहे हैं | यह सच है कि औरतों से ही परिवार बनता है | तुम्हारे बिना घर में हर वक़्त एक मनहूसियत सी छाई रहती है, चाहे कोई त्योहार हो या और कोई मुबारक मौक़ा – सब कुछ बदरंग जान पड़ता है | मैं बेसब्री से उस लम्हे का इंतज़ार कर रहा हूँ जब तुम अपने घर में वापिस लौट आओगी |” जवाब में मैंने हौले से उनके हाथ को दबाकर मुस्कुराते हुए अपनी रज़ामंदी ज़ाहिर कर दी | शायद वे मेरा इशारा समझ गए थे | फिर थोड़ी देर रुक कर मैंने कहा, “आपको थोड़ा और सब्र करना होगा | बच्चों के इम्तिहान होने में अभी दो-तीन महीने बाक़ी हैं | उसके बाद ही हम एक हो पाएँगे |” यह कहते-कहते मेरी आँखों में आँसू छलक आए थे | दुपट्टे के कोने से आँसुओं को पोंछते हुए मैंने कहना जारी रखा, “बहुत हिम्मत करके मैं यह फ़ैसला ले रही हूँ | दिमाग़ अभी भी बार-बार मुझे रोक रहा है लेकिन बच्चों की खुशियों की ख़ातिर और आपके वायदे के भरोसे मैं इसके लिए राज़ी हुई हूँ | आपको ख़ुदा की कसम है दुबारा कभी पुराने रास्ते पर नहीं जाना नहीं तो मैं जीते जी मर जाऊँगी |” मेरी बात सुनकर इमरान भी जज़्बाती हो गए थे | उनकी आँखों से बहते आँसू उनके दिल के जज्बातों को बख़ूबी बयाँ कर रहे थे | रोते हुए उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया | बहुत देर तक हम दोनों एक दूसरे के गले लगकर रोते रहे | इतने बरसों से दिलों में जमा मवाद आँसुओं की शक्ल में बह कर बाहर आ रहा था |”