सिंहासन – अध्याय 3: भीतर का नाग
(एक यात्रा, जो मन में छुपे अंधकार को उजागर करेगी…)
स्थान: नागफन सुरंग
समय: वही रात — जब द्वार बंद हो चुका था आरव आगे बढ़ रहा था
अंधेरा इतना गहरा था कि लालटेन की रोशनी भी गुम सी लग रही थी।
आरव के कदम पत्थर की ठंडी ज़मीन पर गूंज रहे थे, और पीछे से आती वह सरसराहट अब और नज़दीक लगने लगी थी।
“कौन है वहाँ?” उसने धीमे स्वर में पूछा।
कोई उत्तर नहीं।
बस एक ठंडी हवा, जैसे किसी ने उसके कान के पास सांस ली हो।
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भ्रम का पहला मोड़
सुरंग अचानक दो हिस्सों में बंट गई।
दाहिनी ओर हल्की सुनहरी रोशनी…
बायीं ओर पूरी तरह अंधेरा।
डायरी के पन्ने में एक पंक्ति लिखी थी —
"प्रकाश का पीछा करने वाला, अपने सत्य से दूर चला जाता है।"
आरव को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि कौन सा रास्ता चुना जाए
आरव ने गहरी सांस ली और अंधेरे वाले रास्ते की ओर मुड़ गया।
कुछ ही कदम बाद उसे अपने पिता की आवाज़ सुनाई दी —
“आरव… लौट आओ बेटा, यह रास्ता मौत का है।”
वह ठिठक गया।
ये आवाज़… वही थी जो बचपन में वह सुनता था।
लेकिन उसे याद था — उसके पिता तो वर्षों पहले ही… मर चुके थे।
“तुम्हें क्या चाहिए?” आरव ने काँपते हुए पूछा।
आवाज़ और पास आई —
“बस… तू मेरे साथ चल… सिंहासन छोड़ दे…”
आरव ने आंखें कसकर बंद कीं और आगे बढ़ गया।
पीछे से एक चीख गूंजी — मानो किसी ने उसकी गर्दन पकड़ने की कोशिश की हो… और खाली हवा में पकड़ टूट गई हो।
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दूसरा मोड़: रक्त का आईना
सुरंग अब एक छोटे कक्ष में खुली, जहाँ बीच में पानी जैसा कुछ था — लेकिन उसमें उसका प्रतिबिंब खून से सना हुआ दिख रहा था।
प्रतिबिंब मुस्कुराया। ओर अजीब सी झलक दी
“तुम सोचते हो तुम योग्य हो? तुम्हारे हाथ पहले ही खून से रंगे हैं।”
आरव ने गुस्से में कहा —
“मैंने किसी को नहीं मारा।”
प्रतिबिंब की मुस्कान और चौड़ी हो गई —
“झूठ बोलोगे, तो सिंहासन तुम्हें निगल जाएगा… याद है वो रात?… देवगढ़ की सीमा पर…”
आरव का दिल जोर से धड़कने लगा।
उसे सचमुच कुछ याद आया — एक हादसा, जिसे उसने हमेशा भूलने की कोशिश की थी।
वह कांपते हाथों से पानी को छूने ही वाला था कि कक्ष की दीवारें टूटने लगीं… बहुत जोरों से आवाज आने लगी आरव खुद को कमजोर महसूस कर रहा था
कुछ समय बाद उसने हिम्मत की ओर आगे बढ़ा
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अंतिम दृश्य: नाग की फुसफुसाहट
सुरंग का आखिरी हिस्सा अब सामने था — एक पत्थर का विशाल दरवाज़ा, जिस पर उकेरे गए नाग जीवित होकर धीरे-धीरे हिलने लगे।
उनमें से एक ने फुसफुसाया —
“तुम्हें जो छोड़ना होगा… वह तुम्हारे पीछे से आ रहा है।”
आरव मुड़ा।
अंधेरे में… दो आंखें चमक रही थीं।
और वे आंखें… बिल्कुल उसकी अपनी आंखों जैसी थीं।
“तो… मेरा भीतर का नाग… मैं ही हूँ?” आरव ने बुदबुदाया।
दरवाज़े की दरार से हल्की लाल रोशनी फैलने लगी — और साथ ही एक गहरी, भयावह आवाज़… आरव संकोच में था
“अंदर आओ, आरव… और जान लो, सिंहासन किसका इंतज़ार कर रहा है…”
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जारी रहेगा…
(अगले भाग में – आरव का सामना उस सत्ता से होगा, जो उसके नाम से पहले से परिचित है… और सिंहासन का असली श्राप उजागर होगा।)