Singhasan - 4 in Hindi Thriller by W.Brajendra books and stories PDF | सिंहासन - 4

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सिंहासन - 4


सिंहासन – अध्याय 4: रक्त का सौदा

(सत्य का सामना, और एक सौदा जो जीवन से भी बड़ा है…)

स्थान: नागफन द्वार के पार
समय: वही रात

पत्थर का दरवाज़ा धीरे-धीरे खुला अंदर अजीब सी बेचैनी
लाल रोशनी की लहर भीतर से बाहर फैल गई — मानो किसी ने आग और खून को मिलाकर हवा में घोल दिया हो।

आरव ने सावधानी से कदम आगे बढ़ाया 
अंदर एक विशाल कक्ष था — केंद्र में एक काला सिंहासन।
उसकी पीठ नागों के कुंडल से बनी थी, और सिरहाने पर एक मुकुट रखा था जो बिना छुए भी धड़कता सा लग रहा था।

जैसे ही आरव पास पहुँचा, पूरा कक्ष कांप उठा।
सिंहासन पर कोई आकृति प्रकट हुई — धुंध से बनी, पर आंखें तेज और सुनहरी।


---

सिंहासन की चेतना
"आरव…" आवाज़ गूंजी, "तुम सोचते हो, तुम मुझे पाओगे? तुम्हे लगता की तुम यहां आए हो 
नहीं यहां तुम्हे लाया गया है
 मैंने तुम्हें चूना है"

आरव ने हिम्मत करके पूछा —
"तुम हो कौन?" और क्या चाहते हो मुझसे

आवाज़ ने हँसते हुए कहा —
"मैं वह हूँ जिसने साम्राज्यों को बनाया… और मिटाया।
मैं वह हूँ जो तुम्हारे पूर्वजों के खून से जन्मा।"

आरव चौंका — "पूर्वजों का… खून?"
आरव बोला पूर्वजों का खून कैसे  ?  में कुछ समझा नहीं
"हाँ।" सिंहासन की आकृति और स्पष्ट हुई — अब वह एक योद्धा जैसी लग रही थी, पर उसके कंधों पर जीवित नाग लिपटे थे।
"तुम्हारे कुल में एक शाप है, आरव।
जिसने इसे तोड़ा, वह सिंहासन का स्वामी बनेगा… लेकिन कीमत… बलिदान नहीं, रक्त का सौदा होगी।"


---

सौदे की शर्तें
सिंहासन की आवाज़ धीमी और भारी हो गई —
"तुम्हें वह व्यक्ति मुझे सौंपना होगा, जो तुम्हें सबसे प्रिय है।
तभी मैं तुम्हें अपना उत्तराधिकारी मानूँगा।"

आरव के कानों में वृन्दा की चेतावनी गूंज गई —
"जो सबसे प्रिय है… उसे छोड़ना होगा।"

उसने धीमे स्वर में कहा — "और अगर मैं मना कर दूँ?"
तो क्या करोगे तुम
सिंहासन के चारों ओर अंधेरा घूमने लगा —
"तो तुम समय में खो जाओगे… और अगले 108 वर्षों तक कोई तुम्हारा नाम भी नहीं ले पाएगा।"


---

छिपा सत्य
तभी, पीछे से कदमों की आहट आई।
आरव ने मुड़कर देखा — वृन्दा खड़ी थी।
लेकिन उसका चेहरा बदल चुका था — अब उसकी आंखें भी सुनहरी थीं।

"आरव…" वृन्दा ने कहा, "मैं यहाँ इसलिए हूँ क्योंकि अगला बलिदान मैं हो सकती हूँ।
या… वह, जिसे तुमने सालों पहले मरने के लिए छोड़ दिया था।"

आरव का चेहरा पीला पड़ गया।
"तुम… जानती हो?"

वृन्दा मुस्कुराई — "मैं सिर्फ जानती नहीं… मैं वही हूँ।"


---

अंतिम मोड़
कक्ष में लाल रोशनी अचानक तेज हो गई।
सिंहासन की आवाज़ गूंजी —
"निर्णय लो, आरव।
मुझे वृन्दा दो… या उस एक को, जो अभी-अभी इस सुरंग में दाख़िल हुआ है।"

आरव के दिल की धड़कन तेज हो गई।
"इस सुरंग में… और कौन आया है

लेकिन जवाब देने से पहले ही कक्ष के अंधेरे से एक छाया बाहर आई —
और वह चेहरा देखकर आरव की सांस रुक गई।

वह… ज़िंदा था।
और वह कोई ऐसा था, जिसे आरव ने खुद… मरा हुआ मान लिया था।
बृंदा और बो व्यक्ति जिसे आरव मरा हुआ मन चुका था उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये लोग यहां कैसे पहुंचे और मरे हुए लोग जिंदा कैसे हो गए 


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जारी रहेगा…
(अगले भाग में — सिंहासन के लिए आरव का चुनाव, और वह चेहरा जिसका लौटना असंभव था। लेकिन अगर वह लौट आया है… तो किस कीमत पर?)