Maharana Sanga - 21 in Hindi Anything by Praveen Kumrawat books and stories PDF | महाराणा सांगा - भाग 21

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महाराणा सांगा - भाग 21

राजपूत-अफगान गठबंधन

 महाराणा साँगा का सोचना सही था कि नई उभरती शक्ति के खिलाफ एक संगठन का होना आवश्यक है। जिस समय बाबर ने इब्रहिम लोदी को पराजित करके दिल्ली पर अधिकार किया था, उसी समय भारत के विभिन्न प्रांतों और रियासतों के तुर्क अफगान सरदार सजग हो गए थे। ऐसा नहीं था कि भारत में से लोदी वंश के पतन से अफगान-सरदारी समाप्त हो गई थी। इन सभी अफगान सरदारों ने बाबर की मंशा जान ली थी और पूर्वी भारत में सभी एकजुट हो भी गए थे। इस संगठन का नेतृत्व अफगान सरदार बाबर खाँ लोहानी कर रहा था, जो सुलतान मुहम्मद शाह के नाम के नवाब हसन खाँ मेवाती के नेतृत्व में एकजुट हो गए थे और दिल्ली में इब्राहिम लोदी का भाई महमूद लोदी को सल्तनत का सुलतान बनाने के पक्षधर थे। नवाब हसन खाँ मेवाती ने अपने सभी अफगान सरदारों से इस विषय में विचार-विमर्श किया।

 ‘‘बाबर एक प्रबल योद्धा है और उसके पास बहुत बड़ी फौज भी है!’’ हसन खाँ मेवाती ने कहा, ‘‘उसने अफगानी सल्तनत का समूल नाश करने का बीड़ा उठाया है और दिल्ली फतह करके उसने एक बड़ी कामयाबी भी हासिल की है। हम सभी सरदार एकजुट अवश्य हो गए हैं, परंतु बाबर का सामना करके उसे हराना कठिन है। अब आप सब लोग अपने विचार प्रकट करें। 

‘‘नवाब साहब! आपकी यह बात सच है कि बाबर की सेना का सामना करने के लिए हम सबकी एकजुट शक्ति के पास भी न समाधान है और न ही फौज है। इस वक्त मेवाड़ के महाराणा के पास ही इतनी सेना और जज्बा है कि वे बाबर को परास्त कर सकें।’’ एक सरदार ने कहा।

 ‘‘यही हमारा भी विचार है।’’ हसन खाँ ने कहा, ‘‘वक्त की माँग की देखते हुए सभी को महाराणा साँगा को इस मुसीबत में अपना रहनुमा बना लेना चाहिए। हमारी जो भी सैन्य-शक्ति है, उसे हम पूरी ईमानदारी से महाराणा की सेना के साथ मिलकर उनके नेतृत्व में बाबर का सामना करें तो यकीकन इस नए आक्रमण को विफल किया जा सकता है।’’

जनाब आपकी बात से मैं सहमत हूँ।’’ जींद सरदार ने कहा, ‘‘इस समय हमारे सामने राजपूतों का संकट नहीं है, बल्कि बाबर की चुनौती है। यही चुनौती अब राजपूतों के सामने भी है, इसलिए दोनों को एक-दूसरे का साथ देना चाहिए। अब क्योंकि राजपूत शक्ति इससे अधिक है तो हमें उनका नेतृत्व स्वीकार करना चाहिए और मौजूदा संकट का सामना करना चाहिए।’’

 ‘‘महाराणा साँगा इस समय एकमात्र ऐसे शासक हैं, जिनके पराक्रम और शक्ति से बाबर के वेग को रोका जा सकता है। उन्हें हमारा भी समर्थन मिल जाए तो उनकी सफलता निश्चित है। अब आप में से जो भी सरदार हमारे इस मत से सहमत हैं, वे हाथ उठा दें।’’ 

लगभग सभी सरदारों ने सहमति में हाथ उठाए। कोई हिचकिचा भी रहा था तो वक्त की नजाकत ऐसी नहीं थी। नवाब हसन खाँ मेवाती ने सभी का शुक्रिया अदा किया और फिर उन्हीं में से एक विश्वस्त दल चुना गया, जिसे चित्तौड़ जाकर महाराणा साँगा से बात करनी थी। हसन खाँ मेवाती ही इस दल के मुखिया बन गए। महाराणा साँगा ने न केवल इनके विचार को सराहा, अपितु सबका भरपूर स्वागत भी किया। 

‘‘राणा साहब, अब केवल आपसे ही आशा है कि बाबर को भारत से खदेड़ा जा सकता है। हम सब आपके नेतृत्व में बाबर नाम के संकट को दूर करना चाहते हैं। आप हमारी प्रार्थना स्वीकार करें।’’ हसन खाँ मेवाती ने कहा। 

‘‘नवाब साहब! हम भी यही चाहते थे कि इस नए आक्रमणकारी को भारत में पैर जमाने से रोकने के लिए हम सबको एकजुट होना होगा। हमने इस दिशा में कदम भी उठाए हैं। सभी राजपूत रियासतों को हमने इस विचार से अवगत कराने के लिए अपने कुशल दूत भी भेज दिए हैं। अब आप पूर्वी भारत के अफगान सरदारों को भी एकजुट करने का प्रयास करें।’’ 

‘‘वहाँ बाबर खाँ लोहानी के नेतृत्व में संगठन तो उसी समय बन गया था, जब बाबर ने दिल्ली पर आक्रमण किया था, पर ऐसी खबरें आ रही हैं कि इस संगठन को दबाने के लिए बाबर का बेटा हुमायूँ बड़ी फौज लेकर गया हुआ है।’’ 

‘‘फिर तो यही अवसर है कि हमें बयाना पर आक्रमण कर देना चाहिए।’’ महाराणा ने उत्साह से कहा, ‘‘बाबर के पास इतनी सेना नहीं है कि वह दो बड़े मोर्चो पर जूझ सके। हम उसे यहाँ से खदेड़ देंगे तो उसका साहस टूट जाएगा।

इससे हमें सफलता मिलेगी और पूर्वी अफगान सरदारों का हम पर विश्वास भी बढे़गा, जो कि इस संगठन के लिए आवश्यक है।” 

‘‘आप हमें बताइए कि हमें क्या करना है?’’ 

‘‘अपनी-अपनी सैन्य तैयारी करें और जितनी भी सेना हो, उसे लेकर हमारे साथ आ जाएँ। स्मरण रहे कि बाबर एक कुशल रणनीतिकार भी है। वह इस स्थिति में हमारे बीच कलह उत्पन्न करने का प्रयास भी कर सकता है।’’

 ‘‘आप निश्चिंत रहें राणा साहब, हम अच्छी तरह से जानते हैं कि हमारा फायदा किस बात में है? सुरक्षा से हम कोई समझौता नहीं कर सकते। हम सब पर अपनी-अपनी प्रजा की सुरक्षा का दायित्व है और यह हमें बाबर से नहीं मिल सकती। राजपूतों पर हमें भरोसा है और राजपूत-शिरोमणि महाराणा साँगा का शरणागत होने पर तो हमारी निर्भयता ही बढ़ी है।’’ 

‘‘आप सबने हम पर जो विश्वास जताया है, हम उसके आभारी हैं और आपको आश्वासन देते हैं कि जब तक हमारे शरीर में प्राण रहेंगे, हम बाबर की इस महत्त्वाकांक्षा के आडे़ आते रहेंगे। आप सब हमारे साथ हैं तो एक बाबर क्या, दस बाबर भी यहाँ अपने कदम नहीं जमा सकते।’’

 हसन खाँ मेवाती ने हाथ जोड़कर महाराणा का अभिवादन किया और फिर सभी सरदार महाराणा को अपना नेता मानकर तैयारियाँ करने लगे। शीघ्र ही राणा साँगा के नेतृत्व में एक लाख बीस हजार घुड़सवार सैनिकों की विशाल सेना तैयार हो गई और बयाना पर आक्रमण की तैयारी होने लगी। इस सेना में अफगान सरदारों की संख्या भी थी। राजपूत-अफगानों की यह संयुक्त सेना बाबर की महत्त्वाकांक्षाओं का दमन करने के उत्साह में कंधे-से-कंधा मिलाकर बयाना की ओर बढ़ रही थी।

 राजपूत-अफगानों का यह गठजोड़ महाराणा साँगा के कुछ हिंदुवादी सामंतों को पसंद नहीं आया था और उन्हें लग रहा था कि महाराणा ने यह गलत निर्णय लिया है। राजपूत सेना ही इतनी सक्षम थी कि मुगल सेना को परास्त कर सकती थी, फिर अफगानों से गठजोड़ की क्या आवश्यकता थी? इन शुद्ध हिंदूवादी कट्टर राजपूतों का कहना था कि यदि विजय मिली तो इसका श्रेय अफगानी ले जाएँगे और पराजय हुई तो राजपूतों पर बड़ा धब्बा लगेगा, पर इन सामंतों में अपना विरोध महाराणा के सामने प्रकट करने का साहस नहीं था। इतना अवश्य था कि महाराणा के इस निर्णय ने कुछ राजपूत सामंतों को राणा के प्रति विरोधी विचार पालने पर विवश कर दिया था। 

बाबर ने जब यह सुना कि अफगान सरदारों ने महाराणा साँगा को अपना राजा मानकर उसके नेतृत्व को स्वीकार कर लिया है तो वह थोड़ा चिंतित हो उठा। उसे इस प्रकार के गठजोड़ की आशा नहीं थी। महाराणा साँगा तो पहले ही उसके उद्देश्य में बड़ी बाधा था, अब इस संगठन से तो वह और भी शक्तिशाली हो गया होगा। बाबर ने राणा द्वारा बयाना पर आक्रमण के बारे में सुना तो उसने पूर्वी अफगानों का दमन करने गए अपने बेटे हुमायूँ को तत्काल आगरा वापस बुला लिया। हुमायूँ सेना सहित आ गया। बाबर ने महाराणा की चुनौती को अफगानों से अधिक तवज्जो दी। 

‘‘जब तक हम दिल्ली की सीमा से लगे राजपूताने को नहीं जीत लेते, तब तक हमें भारत-विजय में सफलता नहीं मिलेगी। महाराणा साँगा हमारे मकसद में आडे़ आएगा, इसलिए पहले उसकी चुनौती खत्म करनी होगी।’’ 

बाबर ने सबसे पहले राजपूत शक्ति का दमन करना ही उचित समझा और युद्ध करने की तैयारी करने लगा। जब उसे ज्ञात हुआ कि महाराणा के पास एक लाख बीस हजार घुड़सवार सेना है तो वह चिंतित हो उठा। यह उसकी सेना से दोगुनी से भी अधिक थी और संख्या-बल को नजरंदाज नहीं किया जा सकता था। बाबर सोच में पड़ गया और अपने बेटे से विचार-विमर्श किया। 

‘‘महाराणा हमारे सामने बहुत बड़ी बाधा बन गया है।’’ बाबर गंभीर स्वर में बोला, ‘‘जैसा कि सुनने में आ रहा है कि उसके पास सवा लाख की फौज है तो हमें शक है कि हम बयाना को सुरक्षित रख सकेंगे। बयाना जाने का अर्थ है कि महाराणा हमें दिल्ली से भी खदेड़ देगा।’’ 

‘‘इतनी बड़ी फौज तो हमें यकीनन पंजाब में भी टिकने न देगी।’’ हुमायूँ ने कहा, ‘‘और हमें भारत भी छोड़ना पड़ जाएगा, क्योंकि राजपूत तब तक दुश्मन का पीछा नहीं छोड़ते, जब तक उसे पूरी तरह हरा नहीं देते। हम सवा लाख की फौज से युद्ध करें तो इसका मतलब एक ही युद्ध में अपनी सेना का विनाश करा लें।’’ 

‘‘यही तो सोचने की बात है। बड़ी फौज तो हमारी फौज पर भारी पड़ जाएगी। हमारे सिपाही ही घबरा जाएँगे। किसी भी जंग में संख्या-बल से निर्णय होते हैं। लड़ने वाले को पता होना चाहिए कि उसकी अपनी फौज और शत्रुदल में संख्या बल का क्या अनुपात है?’’

 ‘‘अब्बाजानी! हमारे सिपाही तो इतनी बड़ी गिनती सुनकर ही घबरा जाएँगे। भले ही युद्ध करें, मगर मनोबल तो नहीं रहेगा और कोई युद्ध मनोबल के बिना भी तो नहीं लड़ा जा सकता।’’ 

‘‘फिर तो एक ही रास्ता बचता है कि महाराणा से सुलह कर लें। हम महाराणा को बयाना दे देते हैं और पूर्वी भारत की ओर बढ़ते हैं।’’ 

‘‘वह दिल्ली भी माँगेगा। पंजाब माँगेगा।’’ 

‘‘देखते हैं। अभी तो उससे सुलह की बात करना बेहतर रहेगा, जिससे यह राजपूत-अफगान गठजोड़ शिथिल हो जाए। हमें कौन सुलह पर सदा टिके रहना है। जब हमारा संख्या-बल उससे मुकाबला करने जितना हो जाएगा, हम आक्रमण कर देंगे।’’ 

‘‘जैसी आपकी मरजी! मुझे तो आप हुक्म दें।’’ 

बाबर ने अपने मंगोल सरदार तईबेग को सुलह का प्रस्ताव लेकर राणा के पास भेजा, परंतु महाराणा ने सुलह की बात सुनना स्वीकार न किया। महाराणा ने केवल एक ही शर्त पर सुलह की बात मानी कि बाबर काबुल लौट जाए। बाबर की महत्त्वाकांक्षा पर यह करारी चोट थी। युद्ध सामने और निश्चित था। उसकी फौज में राणा की सवा लाख की विशाल सेना का भय स्पष्ट झलकने लगा था। ऐसा नहीं था कि उसके सिपाही रणकुशल और जुझारू नहीं थे। उनकी निर्भयता और निर्दयता जगप्रसिद्ध थी, परंतु सांख्य-बल की अधिकता ने उनका मनोबल गिरा दिया था। बाबर समझ नहीं पा रहा था कि उसे डरे हुए सैनिकों को युद्ध में उतारना चाहिए या नहीं? उनका मनोबल कैसे ऊँचा हो? कैसे उनकी वह बर्बरता सामने आए, जिसके लिए वे प्रसिद्ध हैं। बाबर ने दिन-रात इन बिदुंओं पर गहन विचार किया। 

एकाएक अचानक उसके दिमाग में एक विचार कौंधा। उसने सोचा कि उन्माद अवश्य एक ऐसी शक्ति है, जो सांख्य-बल को गौण कर देता है और उन्माद तब पैदा होता है, जब इनसान धर्मांध हो जाए। बाबर ने अपनी सेना को उन्मादी बनाने की दिशा में कदम उठाया। उसने जेहाद का जोरदार नारा दिया। उसने अपने सैनिकों से कहा, ‘‘इस दुनिया में इनसान का आना बेवजह नहीं होता। खुदा उसे एक खास मकसद से भेजता है और वह मकसद है—अल्लाह की इबादत और कौम की हिफाजत करना। आज अल्लाह ने हमें अपनी कौम का, इसलाम का परचम लहराने का मौका दिया है, मकसद दिया। हमारे इस पाक मकसद को नाकाम करने के लिए हिंदुस्तान के चंद राजपूत राजा सामने आ रहे हैं।’’ बाबर ने जोशीले लहजे में अपनी पलटन से पूछा, ‘‘क्या हम ऐसा होने दे सकते हैं?’’ 

‘‘नहीं, हरगिज नहीं।’’ सभी सरदार और सैनिक समवेत स्वर में चीखकर बोले। 

राजपूतों और अफगानों के सशक्त गठबंधन के सामने मुगलों की इस छोटी सी फौज में बाबर की बात सुनकर गजब का जोश और आत्मविश्वास झलकने लगा था।