आज जब मैं अपने जीवन को पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो सबसे खूबसूरत और मासूम तस्वीरें वही हैं जो मेरे बचपन की यादों में बसी हुई हैं। वो दिन जब हम छोटे-छोटे थे, न कोई बड़ी चिंता, न कोई बोझ, बस खेल, कूद, मस्ती और दोस्ती से भरा हुआ संसार। गाँव की मिट्टी, खेतों की खुशबू, पगडंडियों पर दौड़ते कदम, और गर्मियों की छुट्टियों में झूले झूलने की खनकती हंसी – ये सब कुछ आज भी मेरी आँखों के सामने किसी चलचित्र की तरह घूम जाता है।गाँव का जीवन बहुत सादा था। सुबह सूरज की पहली किरण के साथ मुर्गे की बांग सुनाई देती और हम सब जाग जाते। घर के आँगन में मिट्टी की ठंडी महक फैली रहती। माँ पानी से आँगन लीप-पोत करती और हम बच्चे उछलते-कूदते कभी गाय-बैल के पीछे भागते तो कभी नीम की डाली पर झूला डालकर झूल जाते। उस समय लगता था कि यही दुनिया की सबसे बड़ी खुशी है।गाँव में मेरे बहुत से दोस्त थे। कुछ तो मेरे ही मोहल्ले के थे और कुछ पड़ोस की गलियों के। हम सबका अपना एक छोटा-सा गैंग था। सुबह से लेकर शाम तक हमारी मस्ती का कोई ठिकाना नहीं होता था। पढ़ाई तो बस नाम की होती थी, असली लगन तो खेलों में थी। कभी गिल्ली-डंडा, कभी लट्टू घुमाना, कभी कबड्डी, तो कभी रस्साकशी। और जब गर्मियों की दोपहर होती, तो हम सब मिलकर आम के पेड़ पर चढ़ जाते और कच्चे आम तोड़कर नमक-मिर्च लगाकर खाते। वो खट्टापन, वो स्वाद आज भी किसी बड़ी मिठाई से बढ़कर लगता है।गाँव में मेला भी लगता था साल में एक बार। उस दिन तो मानो हमारी ईद हो जाती। सब दोस्त एक-दूसरे का हाथ पकड़े, जेब में बाप-दादा से माँगे हुए चंद सिक्के लिए, मेले की ओर निकल पड़ते। वहाँ पहुँचते ही आँखें चौंधिया जातीं – कहीं झूले घूम रहे हैं, कहीं मौत का कुआँ, कहीं खिलौनों की दुकान और कहीं मिठाइयों की खुशबू। हम बच्चों की पहली मंज़िल होती थी – आइसक्रीम वाला। उस समय आइसक्रीम के ठेले पर घंटी की टन-टन सुनते ही हमारी रफ्तार बढ़ जाती। दस पैसे या पच्चीस पैसे की आइसक्रीम हाथ में आते ही लगता था कि हमने कोई खजाना पा लिया है।मेले के झूले भी हमारी जान थे। बड़ा-सा चरखा घूमता था और हम उसमें बैठकर चिल्लाते रहते – “जोर से घुमाओ! जोर से घुमाओ!”। हवा हमारे बालों को उड़ाती और दिल में एक अजीब-सी खुशी भर जाती। वहाँ से उतरकर हम लोग लकड़ी के खिलौने, मिट्टी की बर्तनियाँ, या रंग-बिरंगे गुब्बारे खरीदते। कभी-कभी पैसे कम पड़ जाते तो सब दोस्त मिलकर हिस्सेदारी करते और एक ही खिलौना सबके घर बारी-बारी से जाता।गाँव के स्कूल की भी अपनी ही दुनिया थी। फर्श पर बोरी बिछाकर बैठना, टाट की चटाई पर लोट-पोट होना, और मास्टरजी की डांट से बचने के लिए खामोशी से सिर झुकाकर हंसना – ये सब बड़े मज़ेदार पल थे। छुट्टी की घंटी बजते ही हम ऐसे दौड़ पड़ते जैसे पिंजरे से परिंदे उड़ निकले हों। फिर रास्ते में कोई नीम का पेड़ मिलता तो उसकी डाल पर चढ़ जाते, कोई तालाब दिखता तो कपड़े उतारकर उसमें कूद जाते। कभी-कभी माँ की डांट पड़ती – “तू दिन भर बस खेलता ही रहेगा? पढ़ाई कब करेगा?” – लेकिन हम पर तो मस्ती का नशा छाया रहता।गाँव का सबसे सुंदर मौसम होता था सावन का। उस समय हर घर के आँगन में झूले पड़ते। पेड़ों की डालियों पर रंग-बिरंगी रस्सियाँ बांध दी जातीं और बच्चे-बूढ़े सब झूलने बैठ जाते। हम दोस्त टोली बनाकर जाते और एक-दूसरे को जोर से झूला देते। बारिश की हल्की फुहारें गिरतीं और झूले पर झूलते हुए गाना गाने का जो मज़ा था, वो कहीं और नहीं मिल सकता। “कदंब की डाली पर झूला झूलूँ मैं… सखी संग में सावन आयो रे…” – ऐसे गीत गूंजते रहते।रात के समय गाँव का नज़ारा और भी प्यारा होता। गर्मी के दिनों में हम सब आँगन या छत पर चारपाई डालकर सोते। आसमान में असंख्य तारे टिमटिमाते और चाँदनी बिखरी रहती। हम सब तारे गिनने की कोशिश करते और कभी टूटता हुआ तारा देखकर खुश हो जाते कि “चलो, अब हमारी मनोकामना पूरी होगी।”गाँव के दोस्तों के साथ बिताए वो दिन इतने सच्चे और गहरे थे कि अब शहर की भीड़ में वैसी आत्मीयता कहीं नहीं मिलती। वहाँ न मोबाइल थे, न टीवी का चकाचौंध, न किसी चीज़ की होड़। हमारी असली पूँजी थी – दोस्ती, खेल और खुशियाँ।आज जब ज़िंदगी भाग-दौड़ में उलझ गई है, तो अक्सर मन चाहता है कि कोई फिर से मुझे उस गाँव की गलियों में पहुँचा दे, जहाँ मैं नंगे पाँव पगडंडियों पर दौड़ सकूँ, जहाँ आम के पेड़ पर चढ़ सकूँ, जहाँ दस पैसे की आइसक्रीम खाकर दुनिया जीतने का अहसास हो, जहाँ दोस्तों के संग हंसी-ठिठोली में दिन ढल जाए और रात तारों की चादर ओढ़कर गुज़र जाए।बचपन सच में ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत समय होता है। वो समय जब हम छोटे थे, गाँव में रहते थे, दोस्तों के संग गली-गली घूमते थे, आइसक्रीम खाते थे, झूला झूलते थे – इन सब यादों की मिठास उम्र भर दिल को सुकून देती रहती है।