अध्याय 1:
"धड़कनों में कैद ख़ामोशी"
रचना: बाबुल हक़ अंसारी
पिछली दास्तान से…
“वो चिट्ठी, जो कभी पूरी न लिखी गई…
और वो धुन, जो अब भी अधूरी है।”
रात गहरी थी, लेकिन कमरे की खामोशी उससे भी गहरी।
मेज़ पर रखी अधूरी डायरी खुली पड़ी थी, उसके पन्नों पर बिखरे शब्द ऐसे लग रहे थे जैसे किसी ने अपने दिल के कतरे काग़ज़ पर टपका दिए हों।
नायरा उस डायरी को बार-बार पढ़ रही थी।
हर बार लगता था कि अब राज़ खुल जाएगा, लेकिन हर पन्ने के बाद और सवाल खड़े हो जाते।
“आख़िर क्यों… क्यों उसने अपनी बात अधूरी छोड़ दी?” – नायरा की आँखें भीग गईं।
इसी बीच अचानक खिड़की के पास से एक हवा का झोंका आया, और डायरी का पन्ना पलटकर वहीं रुक गया —
जहाँ आख़िरी शब्द लिखे थे:
“अगर ये साज़ कभी किसी और के हाथों में पहुँचे… तो समझ लेना, मेरी धड़कन वहीं कैद है…”
नायरा का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा।
कौन था वो…?
किस धड़कन की बात कर रहा था…?
और क्यों उसकी हर बात सिर्फ़ अधूरी रह गई…?
बाहर घड़ी की सुइयाँ रात के बारह बजा रही थीं, लेकिन नायरा को लग रहा था कि वक़्त थम गया है।
हर तरफ़ सिर्फ़ वही अधूरी मोहब्बत गूँज रही थी।
उसे अंदाज़ा भी नहीं था कि ये डायरी उसके लिए सिर्फ़ कहानी नहीं, बल्कि आने वाले तूफ़ान की दस्तक है…
“रहस्य की दस्तक
नायरा की उँगलियाँ काँप रही थीं।
डायरी का वो पन्ना जैसे उसके सामने कोई अनकहा सच बिखेर रहा था।
उसने जल्दी से पास रखी अलमारी खोली और उसमें से पुराना बक्सा निकाला। बक्सा जंग खाया हुआ था, जैसे सालों से किसी ने छुआ ही न हो। ताला पहले से टूटा हुआ था।
अंदर उसे सिर्फ़ एक टूटा हुआ हारमोनियम का छोटा हिस्सा मिला।
उसके भीतर एक तार लटक रहा था, और उस पर लाल स्याही से लिखा हुआ एक शब्द:
“श्रेया…”
नायरा सन्न रह गई।
उस नाम को उसने पहली बार सुना, लेकिन उसकी गूंज दिल के भीतर कहीं गहरी उतर गई।
“श्रेया कौन थी…? और ये साज़ उसी के पास क्यों होना चाहिए था…?”
अचानक बाहर से तेज़ दस्तक की आवाज़ आई।
रात के उस सन्नाटे में दस्तक और भी खौफ़नाक लग रही थी।
नायरा ने घड़ी की तरफ़ देखा — रात के 12:30।
इतनी रात को उसके दरवाज़े पर कौन हो सकता था?
उसका दिल धक-धक करने लगा।
धीरे-धीरे वह दरवाज़े के पास पहुँची।
“कौन है?” — उसने काँपती आवाज़ में पूछा।
कोई जवाब नहीं।
बस दूसरी बार और ज़ोर की दस्तक।
नायरा ने हिम्मत करके दरवाज़ा खोला तो सामने सिर्फ़ एक पुराना लिफ़ाफ़ा पड़ा था।
लिफ़ाफ़े पर लिखा था —
“अगर सच जानना चाहती हो, तो इस रास्ते पर चलना पड़ेगा…”
लिफ़ाफ़े के अंदर से एक पुराना रेलवे टिकट निकला।
टिकट की तारीख़ तीन दिन बाद की थी, और गंतव्य — लखनऊ।
नायरा के हाथ से टिकट लगभग गिर ही गया।
दिल में तूफ़ान मच गया था।
“लखनऊ… वही शहर जहाँ से उसकी मोहब्बत की शुरुआत हुई थी… और शायद वहीँ उसका अंत भी लिखा गया।”
नायरा की आँखों में दृढ़ता उतर आई।
अब ये कहानी सिर्फ़ किसी की अधूरी मोहब्बत नहीं रही…
ये उसकी अपनी तलाश बन चुकी थी।
अगला अध्याय नायरा लखनऊ की यात्रा पर निकलती है और वहाँ छिपे सच से उसका पहला सामना होता है।