यह वाक्य सुबह-सुबह ही चंद्रवा गाँव की गलियों में गूँजने लगा था।
बच्चों की आँखें नींद से आधी खुली थीं, पर होठों पर मुस्कान थी। औरतें स्नान करके जल्दी-जल्दी घर का काम निपटा रही थीं ताकि समय रहते चौक की ओर निकल सकें। बूढ़े लोग अपने धोती-कुर्ते सँवारकर बरामदे में बैठे थे और उनकी बातें भी बस एक ही ओर घूम रही थीं—मेला।
गाँव की गलियों में हर कोई आज कुछ अलग लग रहा था। कच्चे घरों की दीवारें फिर से लिपी गई थीं, दरवाज़ों पर आम के पत्तों की तोरणियाँ बाँधी गई थीं। ढोल-नगाड़ों की थाप सुबह से ही गूँज रही थी और धूप जैसे सुनहरी चूनर ओढ़कर पूरे गाँव पर बिछ गई थी।
आज धर्म सबसे पहले उठ चुका था। चौक में खड़े होकर वह हर तैयारी पर नज़र डाल रहा था। कभी झूले की रस्सी कसवाता, कभी मिठाईवालों को जगह समझाता, तो कभी बच्चों को अनुशासन में रहने की ताकीद करता। गाँव वाले कहते थे—“धर्म के बिना मेला अधूरा है।”
ढोल-नगाड़ों की थाप, कहीं से आती बांसुरी की आवाज़, और पकती जलेबी की खुशबू ने गाँव के माहौल को जैसे रंगों से भर दिया था। गली-गली रंगीन झंडियाँ बाँधी जा रही थीं। औरतें गोबर और मिट्टी से चौक साफ कर रही थीं, बच्चे लकड़ी की तलवारें और मिट्टी के खिलौने लिए इधर-उधर भाग रहे थे।
इस पूरे आयोजन के केंद्र में धर्म था। वह न तो कोई धनवान था, न ही योद्धा या कोई वीर, पर गाँव का हर आदमी मानता था कि अगर यह मेला ठीक से हो पाएगा तो सिर्फ़ धर्म की वजह से। उसका स्वभाव ही कुछ ऐसा था—जहाँ भी खड़ा हो जाए, वहाँ भरोसा और अपनापन भर देता।
“धर्म, इस बार झूला तो बीच चौक में ही लगवाना,” गाँव का एक बुज़ुर्ग बोला।
“हाँ काका, वहीं लगाएँगे। और देखना, इस बार खंभे गहरे गाड़ना, पिछली बार हवा चली तो झूला हिल गया था,” धर्म हँसते हुए बोला और तुरंत दो लड़कों को उस काम पर भेज दिया।
औरतें जब सजावट की बातें करतीं तो धरम उनके लिए भी समय निकालता। बच्चे जब झगड़ पड़ते तो वह बीच-बचाव कर देता। कोई बीमार होता तो दवा ले आता। कोई मज़दूर न मिलता तो खुद कंधे पर बाँस उठाकर ले जाता। धीरे-धीरे गाँव में यह बात फैल चुकी थी—“धरम नहीं होता तो यह गाँव आधा अधूरा होता।”
इन्हीं सब चीजों से प्रेणा लेकर बबलू और आर्यन भी उसी राह पर हो लिए थे।
इस बार मेले की शुरुआत सिर्फ़ नाच-गानों या झूले से नहीं होनी थी। पंचायत ने तय किया था कि झंडा दौड़ से मेला आरंभ होगा, और झंडा बबलू लेकर दौड़ेगा। यह केवल खेल नहीं था, बल्कि गाँव की प्रतिष्ठा का प्रतीक था। हर बार यह सम्मान किसी न किसी युवा को मिलता था, लेकिन इस बार गाँव के बुज़ुर्गों ने सर्वसम्मति से कहा था—“झंडा बबलू ही उठाएगा।”
कारण भी थे। बबलू न सिर्फ़ गाँव का सबसे फुर्तीला और साहसी युवक माना जाता था, बल्कि उसका अनुशासन, मेहनत और गाँव के प्रति निष्ठा भी सबको भाती थी। उसने खेतों में मेहनत कर कई बार अपनी माँ का बोझ हल्का किया था, पंचायत के कामों में भी वह हमेशा आगे रहता था। लोग कहते थे—“झंडा दौड़ में वही झंडा उठा सकता है जो गाँव का बोझ भी उठा सके।” इस नज़रिए से बबलू सबका स्वाभाविक चुनाव था।
सुबह होते ही गाँव के चौक में बाँस गाड़कर झंडे की थाम लगाई गई। झंडा लाल-पीले रंग के कपड़े में लहराता हुआ सूर्य की पहली किरणों को चीर रहा था।सुनहरी किरणें बाँस के झंडे पर ऐसे गिर रही थीं मानो कोई देवत्व उसमें उतर रहा हो। बच्चे चारों ओर घेरा बनाकर खड़े थे, उनकी आँखों में कौतूहल और गर्व चमक रहा था। बबलू ने सफेद धोती और हल्की पीली कमीज़ पहन रखी थी। माथे पर हल्दी का तिलक था। जब वह चौक के बीच पहुँचा तो भीड़ से अचानक जयघोष उठा—
“बबलू! बबलू!!”
धरम ने स्वयं बबलू के कंधे पर हाथ रखकर कहा—
“देख, यह केवल कपड़े का झंडा नहीं है। इसमें हमारी मिट्टी, हमारी आस्था और हमारी एकता बंधी है। जब तू दौड़ेगा, तो तेरे साथ पूरा गाँव दौड़ेगा।”
बबलू की आँखें गीली हो आईं।उसके भीतर गर्व था, पर साथ ही कहीं गहरी चिंता भी—क्योंकि वह जानता था, असली कसौटी अब शुरू हो रही है।
उसने दोनों हाथों से झंडे की थाम थामी और प्रण किया कि वह इसे पूरी निष्ठा से दौड़ाकर गाँव का मान रखेगा। बबलू ने हाथ जोड़कर झंडे की दिशा में प्रणाम किया और ढोल की गूँज और शंखध्वनि के बीच जैसे ही संकेत मिला दौड़ना शुरू किया।
ढोल फिर से बज उठे। नगाड़ों की थाप पूरे गाँव की धड़कनों की तरह गूँजने लगी। बबलू की चाल तेज़ होती गई। उसके कदम ज़मीन को जैसे चीर रहे थे। बच्चे चीख उठे, औरतें दुपट्टे लहराने लगीं।
जैसे ही बबलू ने मंदिर के पास लगे हुए बाँस पर चढ़ना शुरू किया, सबकी साँसें थम गईं। बाँस चिकना था, उस पर तेल और रंग पोता गया था ताकि चढ़ाई कठिन हो। पर बबलू के हाथ मज़बूत थे। उसके भीतर एक जोश था—गाँव के विश्वास को जीतने का।
धीरे-धीरे, धूप की लपटों और पसीने की बूंदों के बीच, वह ऊपर पहुँच गया। और जब उसने झंडे को खोला, तो गाँव का प्रतीकचिह्न हवा में लहराने लगा।
भीड़ गरज उठी—
“जय! जय!!”
झंडे का कपड़ा हवा में फड़फड़ा रहा था, मानो गाँव की आत्मा ही आसमान को छू आई हो।
झंडा खुलते ही चौक की भीड़ में से कुछ लोग रास्ता बनाने लगे। सफेद वस्त्रों में एक ऊँचे कद का आदमी आगे बढ़ा। उसके गले में रुद्राक्ष की माला थी, माथे पर चंदन का तिलक। यह वही थे—किरनवेल से आए पुजारी, जिन्हें विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था। गाँव के लोग श्रद्धा से झुक गए। बच्चों ने उनके पैरों को छूने की कोशिश की, औरतें दुपट्टा सिर पर रखकर खड़ी हो गईं।
उनका आगमन गाँव के लिए विशेष था। किरनवेल अपने विद्या-केंद्रों और प्राचीन परंपराओं के लिए प्रसिद्ध था। कहा जाता था कि वहाँ के पुजारी केवल पूजा ही नहीं कराते, बल्कि जीवन और समाज की गहरी व्याख्या भी करते हैं।
मंदिर के पास वे विराजे। सबसे पहले उन्होंने झंडे की पूजा की। धूप, दीप और मंत्रोच्चार से पूरा वातावरण पवित्र हो उठा। चारों ओर शांति छा गई। बच्चे भी अनायास चुप होकर देखने लगे।
फिर पुजारी ने सभा की ओर देखा और धीमे स्वर में बोले—
“गाँव का झंडा केवल वस्त्र नहीं, यह तुम्हारे विश्वास का ध्वज है। इसे उठाना केवल दौड़ना नहीं, यह प्रतिज्ञा लेना है कि तुम सब कठिनाइयों में भी एक-दूसरे का साथ दोगे। याद रखो—झंडा कभी अकेला नहीं लहराता, हवा की दिशा उसे साथ देती है। उसी तरह गाँव का कोई भी युवक अकेला नहीं, उसके पीछे पूरा समाज है।”
लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे।
पुजारी आगे बोले—
“यह झंडा केवल कपड़ा नहीं है। यह हमारी आस्था का प्रतीक है। यह हमें याद दिलाता है कि हम अकेले नहीं, एक परिवार हैं। जिस तरह यह डंडा आसमान से जुड़ा है और ज़मीन में धँसा है, वैसे ही हमारी आत्मा भी धरती और आकाश से जुड़ी हुई है।”
भीड़ चुपचाप सुन रही थी।
उन्होंने आगे कहा—
“याद रखना, ताक़त केवल शरीर में नहीं होती। असली ताक़त मन में होती है। जो अपने गाँव, अपने लोगों, और अपने वचन के प्रति सच्चा है—वही सबसे बड़ा योद्धा है।”
धरम की आँखें चमक उठीं। उसे लगा जैसे यह वाणी सीधे आर्यन के लिए कही जा रही है।
आर्यन भी पास ही खड़ा था। उसने ध्यान से सुना, उसकी आँखों में गहरी चमक उतर आई। सुधा भी भीड़ में थी। उसने आर्यन के चेहरे को देखा—वह स्थिर खड़ा था, पर भीतर से जैसे कुछ जाग रहा था।
भीड़ में हलचल थी, पर वातावरण श्रद्धा और गर्व से भरा रहा।
पुजारी ने अंत में कहा—
“यह मेला केवल उत्सव नहीं, यह परीक्षा है। यहाँ तुम आनंद के साथ यह भी देखो कि तुम्हारी एकता कितनी गहरी है। जो टूट जाएगा, उसे आने वाले समय में भारी कीमत चुकानी होगी।”
उनके ये शब्द जैसे हवा में ठहर गए। कुछ ने इसे आशीर्वाद माना, तो कुछ ने चेतावनी।
इसके बाद मंत्रोच्चार शुरू हुआ। औरतों ने थालियों में दीप और फूल सजाए। ढोल की थाप हल्की हो गई, बांसुरी की धुन हवा में गूँज उठी। झंडे के नीचे दीप जलाए गए और पूरा चौक एक पवित्र आभा से भर गया।
झंडा दौड़ की सफलता और पुजारी के उपदेश के बाद गाँव का मेला पूरी रौनक में आ गया—झूले झूलने लगे, मिठाई की खुशबू फैल गई, और गीत-नृत्य गूँजने लगे। धरम धर्म ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया, और उसके होंठों पर मुस्कान के साथ वह अपने काम में व्यस्त हो गया।
आर्यन को इस बार मेले की कई जिम्मेदारियाँ सौंपी गई थीं। धर्म ने धीरे-धीरे उसे गाँव के कामों में लगाना शुरू कर दिया था। गाल थोड़े सख्त, आँखों में चमक, और चाल में एक संजीदगी थी जो उसकी उम्र से कहीं ज़्यादा परिपक्व लगती थी।
“आर्यन, तुम जाओ और झूले का रस्सी जाँचो, ढीली न रह जाए।”
“ठीक है।”
“और हाँ, बच्चों को मिठाई बँटवाने में भी मदद करना।”
आर्यन सिर हिलाकर काम में जुट गया। वह अपनी जिम्मेदारियों को लेकर गंभीर रहता। बच्चे उसके पास हँसते-खिलखिलाते आते, पर वह सिर्फ़ मुस्कुराकर अपना काम करता और आगे बढ़ जाता। गाँव की लड़कियों में कई बार उसके बारे में धीमे स्वर में बातें होतीं—पर आर्यन का मन कामों में इतना उलझा था कि उन पर ध्यान देने का समय ही नहीं था।
इसी भीड़ में सुधा भी आई थी। उसने हल्के नीले रंग का कुर्ता पहन रखा था और उसके गले में सफेद दुपट्टा ढीला-सा झूल रहा था। गाँव की गलियों से निकलते हुए वह भी मेले की रौनक में खो गई थी, पर जैसे ही उसकी निगाह आर्यन पर पड़ी, उसके क़दम थम गए।
वह देख रही थी—आर्यन बच्चों को झूले पर चढ़ा रहा है। उसका चेहरा सीधा और गंभीर था, लेकिन उसकी आँखों में एक अदृश्य नरमी थी। सुधा को कुछ समझ नहीं आया कि क्यों?
वह चाहती थी कि आर्यन से कुछ कहे, कुछ बात करे, पर आर्यन हर बार की तरह उसे देखकर भी बेरुख़ी से काम में लग गया। सुधा के चेहरे पर एक क्षणिक उदासी आई, पर उसने खुद को सँभाल लिया।
मेला और चहल-पहल से भरता गया। कहीं कठपुतली का खेल चल रहा था, कहीं नाच-गाने का आयोजन। बच्चे चीनी की रेवड़ियाँ खाते दौड़ रहे थे, बूढ़े लोग ताश खेल रहे थे, और औरतें गीत गा रही थीं।
इसी भीड़ के बीच एक अजनबी भी था। उसका चेहरा किसी को याद नहीं था। साधारण गहरा गेरुआ वस्त्र, जो अब काला पड़ चुका है। पीठ पर केवल एक मंत्र उकेरा है —
"सोऽहम्" (मैं वही हूँ)
वह यूँ ही भीड़ में घूम रहा था। लेकिन उसकी आँखें अलग थीं—गहरी, ठंडी और अजीब-सी स्थिर। वह न तो खिलौना खरीदता, न मिठाई। बस लोगों को चुपचाप देखता।
धर्म की निगाह उस पर पड़ी। कुछ क्षणों के लिए धर्म को ऐसा लगा जैसे उसने यह चेहरा कहीं पहले देखा हो। पर कहाँ? याद नहीं आया।
वह अजनबी धीरे-धीरे एक बूढ़े के पास पहुँचा और हल्की आवाज़ में पूछा—
“इस गाँव में… कोई ऐसा बच्चा तो नहीं मिला था… जो अपने घर का न हो?”
बूढ़ा चौंका। “कौन सा बच्चा?”
अजनबी मुस्कुराया, लेकिन उसकी मुस्कान में गर्माहट नहीं थी—सिर्फ़ ठंडापन।
“छोड़िए… यूँ ही पूछ लिया।”
धर्म दूर से यह सब देख रहा था। उसके भीतर हल्की बेचैनी उठी। अजनबी की नज़रें जब भीड़ पर घूमीं, तो एक पल के लिए आर्यन पर ठहर गईं। उसकी आँखों में कुछ था—जैसे वह आर्यन को पहचानता हो, या शायद ढूँढ ही रहा हो।
आर्यन उस समय झूले की रस्सी कस रहा था, उसे इस निगाह का अंदाज़ा भी नहीं था।
अगले ही पल, वह अजनबी भीड़ में गुम हो गया।
धर्म वहीं खड़ा रह गया—मन में एक अनजाना डर और शक लिए।
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