Adhure Sapno ki Chadar - 4 in Hindi Women Focused by Umabhatia UmaRoshnika books and stories PDF | अधूरे सपनों की चादर - 4

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अधूरे सपनों की चादर - 4

अध्याय 4

तनु अभी छोटी ही थी, मगर माँ ने रसोई की पूरी ज़िम्मेदारी उसके कंधों पर डाल दी थी। जैसे ही सूरज ढलता और घर में सब बच्चे खेलने के लिए बाहर निकलते, तनु को आँगन छोड़कर रसोई की चौखट पर बैठ जाना पड़ता। चूल्हे की आँच, धुएँ की जलन और आँसुओं से भरी आँखें उसके बचपन का हिस्सा बन गई थीं। उसके भी मन में खेलकूद की चाह होती, मगर माँ कहतीं—"पहले काम निपटाओ, फिर खेलना।"

तनु के छोटे-छोटे हाथ रोटियाँ बेलते, लकड़ियाँ जलाते और सब्ज़ी काटते थक जाते। बाहर से आती बच्चों की हँसी की आवाज़ उसके कानों में गूंजती और मन में टीस उठती। उसे लगता, जैसे वह किसी अदृश्य कैद में बंधी हो।

माँ की अपनी मजबूरी थी। वे अक्सर बीमार रहतीं। कभी दाँतों का दर्द, कभी सिरदर्द, तो कभी बदन दर्द। घर के कामकाज का बोझ तनु पर डालना उनके लिए विवशता थी, सज़ा नहीं। पर बच्ची यह कहाँ समझ पाती! वह तो बस इतना जानती थी कि उसकी उम्र खेलने और पढ़ने की थी, मगर उस पर बड़ी-बड़ी ज़िम्मेदारियाँ थोप दी गई थीं।

तनु को अपनी माँ से भी कभी-कभी अजीब दूरी-सी महसूस होती। उसकी सहेलियाँ अपनी माँ को "मम्मी" कहकर पुकारतीं। वह घर जातीं तो माँ उन्हें गोदी में उठाकर प्यार करतीं। मगर तनु अपनी माँ को "अम्मा" कहती और जब उसने एक दिन मासूमियत से पूछा—"अम्मा, आप इतनी बूढ़ी क्यों लगती हैं? सबकी मम्मी तो जवान हैं..."तो माँ बस मुस्कुरा दीं। उनके चेहरे की झुर्रियों और थकी आँखों में तनु को उत्तर नहीं, बल्कि एक गहरी चुप्पी मिली।

उधर घर की तंगी कभी खत्म नहीं होती थी। बाबूजी ने खर्चा चलाने के लिए एक कमरा किराए पर दे रखा था। वहाँ एक विधवा माताजी अपने जवान बेटे के साथ रहती थीं। उनकी उपस्थिति ने घर के वातावरण में थोड़ी नयापन ज़रूर लाया, मगर जल्द ही हालात बदल गए। बिहार में भयंकर बाढ़ आई। माताजी के रिश्तेदारों ने चार बच्चों को अस्थायी रूप से उनके पास भेज दिया। बाबूजी ने दया दिखाते हुए उन सबको हमारे घर में जगह दे दी।

पहले से ही बड़ा घर अब और भी भीड़भाड़ से भर गया। आँगन में बच्चों की चहल-पहल बढ़ गई। सब ओर भाग-दौड़, हँसी-ठिठोली और शोरगुल छा गया। तनु को शुरू में यह अच्छा लगा, मगर धीरे-धीरे उसे एक लड़की से खलने लगा।

वह लड़की थी सुधि— तनु की हमउम्र। सुधि बहुत सयानी थी। वह कामकाज में निपुण, बातचीत में तेज़ और व्यवहार में मधुर थी। रसोई में झटपट मदद करती, कपड़े तह कर देती, झाड़ू लगा देती। उसकी समझदारी देखकर घर के सब लोग उसकी तारीफ़ करने लगते।"सुधि तो बहुत अच्छी बच्ची है। तनु को भी इससे सीखना चाहिए," कोई न कोई कह ही देता।

तनु का मन कचोट जाता। उसे लगता कि उसके अपने घर में, उसकी मेहनत को कोई नहीं देखता, और एक बाहर से आई लड़की सबकी चहेती बन गई है। धीरे-धीरे उसके भीतर ईर्ष्या का बीज पनपने लगा। वह सुधि से छोटी-छोटी बातों पर उलझ पड़ती। कभी खेलने में झगड़ा, कभी रसोई में। माँ समझातीं, पर तनु की खीझ बढ़ती ही जाती।

कुछ महीनों बाद जब बाढ़ का पानी उतर गया तो वे सब रिश्तेदार वापस लौट गए। सुधि भी चली गई। घर फिर अपनी पुरानी अवस्था में आ गया। मगर तनु के मन में उसकी छवि हमेशा के लिए रह गई। उसने पहली बार समझा था कि तुलना और उपेक्षा का अनुभव कितना गहरा होता है।

इन सबके बीच बड़ा भाई दिन-प्रतिदिन और भी गुस्सैल होता जा रहा था। उसकी असफलताएँ, पैसों की कमी और बाबूजी की बेरुख़ी उसे भीतर से तोड़ रही थी। मगर उसका ग़ुस्सा दूसरों पर निकलता। तनु को लगता, जैसे घर का वह पुराना साया अब और गाढ़ा हो गया है।

घर की चारदीवारी तनु के लिए डर, काम और बोझ का पर्याय बन चुकी थी। उसके भीतर अब तक मासूमियत तो थी, लेकिन उसके ऊपर अनुभवों की परतें चढ़ रही थीं। वह समझने लगी थी कि जीवन सिर्फ़ किताबों, खेलों और दोस्तों की बात नहीं है; इसमें संघर्ष, त्याग और छुपा हुआ दर्द भी शामिल होता है।