अध्याय 11 – मासूमियत से आत्मबोध की ओर
स्कूल की दीवारें सिर्फ पढ़ाई की जगह नहीं थीं, बल्कि तनु के लिए नए-नए अनुभवों का संसार भी थीं। अब वह सातवीं कक्षा में थी और उम्र भी उस मोड़ पर थी जहाँ बचपन धीरे-धीरे किशोरावस्था की ओर बढ़ने लगता है।
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बाउंड्री के पास का अनुभव
एक दिन लंच टाइम में वह स्कूल की बाउंड्री के पास खेल रही थी। हँसी-ठिठोली चल रही थी कि तभी अचानक पास के बॉयज़ स्कूल का कोई लड़का दीवार पर चढ़ गया।
उसने मुस्कुराते हुए कहा—“अरे… बिलोरी ...गेंद पकड़ ले!”
तनु ठिठक गई। पहली बार उसने किसी को अपनी आँखों के बारे में कुछ कहते सुना।“बिलोरी आंखे "— मतलब उसकी आँखें पारदर्शी, चमकदार।यह सुनकर तनु का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसने महसूस किया कि लोग उसके चेहरे की खूबसूरती को नोटिस करने लगे हैं।
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गालों की तारीफ
कुछ ही समय बाद किसी और ने उसके गालों की ओर देखकर कहा—“तेरे गाल तो सेब जैसे लाल हैं।”
तनु के लिए यह नई अनुभूति थी। अब तक वह खुद को सिर्फ पढ़ाई और खेल-कूद में देखती थी। लेकिन अब उसे अहसास हुआ कि उसके चेहरे और शरीर में भी कुछ अलग आकर्षण है।उसे लगने लगा कि वह भी कुछ खास व्यक्तित्व रखती है
वह बार-बार आईने में अपने गाल और आँखों को देखने लगी।धीरे-धीरे उसका ध्यान अपने रूप पर भी जाने लगा।
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दीदी का साथ और फैशन की चीजें
घर में मां हमेशा जरूरत की चीज़ों तक सीमित रहती थीं, पर बड़ी दीदी तनु की सहेली जैसी थीं। जब भी दीदी कहीं घूमने जातीं, तनु के लिए कपड़े, जूते या कोई न कोई फैशन की चीज़ जरूर ले आतीं।
एक बार तो उन्होंने तनु के लिए बॉबी फ्रॉक खरीदी।फ्रॉक पहनकर तनु आईने के सामने देर तक घूमती रही।उसे लगा जैसे वह भी किसी फिल्म की हीरोइन है।
दीदी की लाई चीज़ें उसके लिए किसी खजाने से कम नहीं थीं। वही कपड़े और जूते पहनकर वह स्कूल जाती और सहेलियों से तारीफ पाती। धीरे-धीरे उसमें आत्म-सजगता आने लगी थी।
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टीवी का आकर्षण
उस समय के दिनों में टीवी हर घर में नहीं होता था। मोहल्ले में कोई एक-दो ही घर ऐसे थे जिनके पास टीवी था। जब शाम को चित्रहार आता, तो उन घरों की खिड़कियाँ खुल जातीं।
लोग बाहर चौक में कुर्सियाँ डालकर बैठते, बच्चे जमीन पर।तनु भी अपनी सहेलियों के साथ वहाँ पहुँच जाती।7 बजे से ही लोग जगह घेरने बैठ जाते, क्योंकि 8 बजे चित्रहार शुरू होना होता।
गानों की धुन, रंग-बिरंगे दृश्यों और नाचते कलाकारों को देखकर तनु मंत्रमुग्ध हो जाती।उसे लगता मानो वह भी उसी दुनिया का हिस्सा है।
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पड़ोस की सहेलियाँ और खेल
तनु के घर के आसपास लड़कियाँ ही लड़कियाँ रहती थीं।शाम ढलते ही सब मिलकर बाहर खेलतीं—
पकड़ा-पकड़ी,
छुपन-छुपाई,
गुड्डे-गुड़िया का खेल।
हंसी और खिलखिलाहट से मोहल्ला गूंज उठता।तनु का दिल इन खेलों से कभी भरता ही नहीं था।
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सपनों की दुनिया
तनु को टीवी देखना जितना अच्छा लगता, उससे भी ज्यादा अच्छा लगता था सपनों में खो जाना।
वह किसी गाने या दृश्य को अपनी आँखों में भर लेती और फिर बार-बार वही ख्वाब देखती।कभी खुद को फिल्म की नायिका मानती, कभी मंच पर गाती-बजाती कलाकार।
उसके लिए सपने सिर्फ कल्पना नहीं थे, बल्कि मन का सहारा थे।सपनों की उस रंगीन दुनिया में वह अपने सारे दुख भूल जाती।
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भीतर का अलगाव
हालांकि बाहर से तनु हंसती-खेलती रहती, लेकिन उसके भीतर कहीं न कहीं एक अलगाव भी था। उसे लगता कि वह बाकी लड़कियों जैसी पूरी तरह नहीं है।
जहाँ बाकी सब आपस में गहरी दोस्ती निभातीं, तनु का जुड़ाव थोड़ा ढीला रहता। वह सबके साथ होते हुए भी कहीं न कहीं अकेली महसूस करती।
शायद उसकी संवेदनशीलता, उसकी कल्पना और उसके सपने उसे बाकी सब से अलग बना रहे थे।
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खुद को समझना
अब तनु को अपने शरीर और रूप-रंग का एहसास होने लगा था।
उसे अपनी आँखें पसंद आने लगीं,
अपने गाल प्यारे लगने लगे,
दीदी के लाए कपड़े पहनकर वह खुश होती।
लेकिन इन सबके साथ-साथ उसमें एक झिझक भी थी।वह खुलकर कभी इन बातों पर बात नहीं कर पाती थी।दिल में यह सब बस एक राज़ की तरह छुपाए रखती।
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सपनों के धागे
तनु अक्सर रात को सोते-सोते वही सपने दोहराती—
कभी मंच पर गाती,
कभी भीड़ तालियाँ बजाती,
कभी खुद को किसी खूबसूरत शहर में पाती।
वह सपनों को बस एक बार नहीं देखती थी, बल्कि बार-बार उन्हें वहीं से दोहराना उसकी आदत बन गई थी।
यह आदत उसके जीवन का सबसे प्यारा हिस्सा थी।सपनों ने उसे जिंदा रखा, उम्मीदों से भरा रखा।
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मासूम उम्र का आत्मबोध
अब तनु उस उम्र में थी जहाँ मासूमियत धीरे-धीरे आत्मबोध में बदलती है।उसे यह समझ आने लगा था कि दुनिया उसे किस नजर से देखती है।लेकिन साथ ही यह भी जान रही थी कि खुद की असली पहचान सिर्फ रूप में नहीं, बल्कि उसके भीतर की प्रतिभा और आत्मबल में है।
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मोहल्ले का उत्सव
चित्रहार के अलावा त्योहारों का भी खास मज़ा होता।दीपावली पर सब घर सजते, होली पर रंग उड़ते।लेकिन तनु का मन सबसे ज्यादा खिंचता जनमाष्टमी और रामलीला की ओर।
रामलीला देखने वह मोहल्ले की सहेलियों संग जाती।झिलमिलाते पर्दे, कलाकारों का अभिनय, और कथा—सब उसे किसी जादू की तरह खींचते।उसे लगता कि उसका जीवन भी किसी नाटक का हिस्सा है जहाँ हर किसी की भूमिका तय है।
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अलग सी लड़की
धीरे-धीरे सबको भी महसूस होने लगा कि तनु थोड़ी अलग है।वह हंसती तो थी, खेलती भी थी, लेकिन उसके भीतर गहराई थी।सहेलियाँ कहतीं—“तू बहुत सोचती है।”
और सचमुच, तनु बहुत सोचती थी।हर घटना, हर शब्द, हर सपना वह अपने मन में बार-बार जीती।
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इस तरह सातवीं-आठवीं की उम्र में तनु का जीवन मासूम खेलों से आगे बढ़कर आत्मबोध और सपनों की ओर मुड़ रहा था।
अब उसे अपने रूप का एहसास था, सपनों की आदत थी और दुनिया को समझने की कोशिश भी।उसके लिए यह समय बहुत खास था—क्योंकि इसी उम्र में उसने खुद को पहचानना शुरू किया।