Chhaya - Bhram ya Jaal - 21 - Last Part in Hindi Horror Stories by Meenakshi Mini books and stories PDF | छाया भ्रम या जाल - भाग 21 (अंतिम भाग)

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छाया भ्रम या जाल - भाग 21 (अंतिम भाग)

भाग 21 (अंतिम भाग)

बेसमेंट की ठोस दीवार के पीछे काली छाया कैद थी। उस भयानक रात को हफ़्ते बीत गए थे। एक खोखली शांति ने हर चीज़ को अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। छाया, विवेक, रिया और अनुराग ने अपनी-अपनी ज़िंदगियों में लौटने की कोशिश तो की, पर वे सब जानते थे कि कुछ बदल गया है। वे एक अदृश्य धागे से बंधे थे, जो अब कमज़ोर पड़ने लगा था।

यह छाया के साथ शुरू हुआ। उसे अब डरावने सपने नहीं आते थे। बल्कि, एक ज़्यादा खतरनाक चीज़ ने उसके मन में घर बना लिया था—संदेह। एक रात वह बिस्तर पर लेटी सोच रही थी, 'क्या वह सब सच था? या हम सब बस डरे हुए थे? क्या वह काली परछाई सिर्फ़ मेरे मन का वहम थी?'

यह सवाल एक मीठे ज़हर की तरह था। उसे इस सोच से डर नहीं लगा बल्कि एक अजीब सी राहत महसूस हुई। अगर वह सब झूठ था, तो वह आज़ाद थी। अब कोई खतरा नहीं था।

अगले दिन जब वह रिया से मिली, तो उसने झिझकते हुए पूछा, "रिया, क्या तुम्हें... क्या तुम्हें कभी लगता है कि हमने सब कुछ बढ़ा-चढ़ाकर सोच लिया था?"

रिया की आँखें एक पल के लिए कहीं और देखने लगीं। "पता नहीं, छाया। अब सब कुछ एक सपने जैसा लगता है। धुंधला और अविश्वसनीय।"

यही हाल विवेक और अनुराग का भी था। जिस भयानक अनुभव ने उन्हें एक फौलादी टीम बनाया था, अब वही एक शर्मिंदगी भरी याद बनता जा रहा था, जिसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहता था।

एक रात, जब छाया लगभग सो चुकी थी, उसके कानों में एक फुसफुसाहट गूँजी। यह काली छाया की डरावनी आवाज़ नहीं थी। यह एक शांत, तर्कपूर्ण और फुसलाने वाली आवाज़ थी।

"शायद तुम बीमार हो, छाया... तुम थक गई थी। कोई बेसमेंट नहीं है कोई छाया नहीं है। यह सब एक कहानी थी जो तुमने खुद को सुनाई थी। अब आराम करो। सब भूल जाओ। तुम आज़ाद हो।"

यह सुनकर छाया का मन हुआ कि वह इस बात को मान ले। वह इस लड़ाई से थक चुकी थी।

लेकिन उसके अंदर कहीं एक छोटी सी चिंगारी अब भी जल रही थी। उस चिंगारी ने उसे विवेक को फोन करने पर मजबूर किया। उसने विवेक, रिया और अनुराग को आख़िरी बार डॉ. मेहता के पास चलने के लिए मना लिया।

जब वे चारों डॉ. मेहता के सामने बैठे थे, तो उनके चेहरों पर शर्मिंदगी और उलझन थी। उन्होंने बताया कि उन्हें अब अपनी ही यादों पर शक हो रहा है। उन सबको लगता है जो कुछ भी हुआ वो सच नहीं था सिर्फ़ उनके मन का भ्रम था।

डॉ. मेहता ने सब कुछ पत्थर जैसे चेहरे के साथ सुना। जब सब चुप हो गए, तो उन्होंने अपनी आँखें खोलीं और उनकी नज़रों में गुस्सा और चिंता का एक भयानक मिश्रण था।

"मूर्ख!" वह लगभग चिल्लाए। "तुम जिसे आज़ादी समझ रहे हो, वह गुलामी की पहली ज़ंजीर है!"

सब चौंककर उन्हें देखने लगे।

"तुमने उसके शरीर को पत्थर और सीमेंट में कैद कर दिया," डॉ. मेहता ने अपनी काँपती ऊँगली उठाते हुए कहा। "अब वह तुम्हें छू नहीं सकती, इसलिए उसने वह रास्ता चुना है जो सीधे तुम्हारे दिमाग़ तक जाता है। यह उसका आखिरी और सबसे घातक वार है—संदेह का ज़हर!"

उन्होंने गहरी साँस ली। "वह तुम्हें यह यकीन दिलाना चाहती है कि वह कभी थी ही नहीं। वह तुम्हें पागल साबित करना चाहती है। सोचो, जिस पल तुम यह मान लोगे कि वह सब तुम्हारा वहम था, उसी पल तुम अपने सारे मानसिक कवच उतार फेंकोगे। तुम उन मंत्रों को भूल जाओगे, उस विश्वास को खो दोगे जिसने तुम्हें बचाया था। तुम फिर से अकेले और कमज़ोर पड़ जाओगे।"

डॉ. मेहता आगे बढ़े और उन्होंने छाया के कंधे पर हाथ रखा। "छाया, यह कोई मानसिक बीमारी नहीं है। यह एक मानसिक युद्ध है। वह तुम्हें अंदर से तोड़ रही है, ताकि जब तुम पूरी तरह टूट जाओ, तो वह तुम्हारे ही दिमाग़ के रास्ते इस दुनिया में वापस लौट सके।"

कमरे में मौत जैसा सन्नाटा छा गया।

एक-एक करके चारों ने अपनी आँखें उठाईं और एक-दूसरे को देखा। उनकी आँखों में अब कोई शक नहीं था। कोई शर्मिंदगी नहीं थी। उनका डर एक फौलादी गुस्से में बदल चुका था। उन्हें समझ आ गया था—लड़ाई खत्म नहीं हुई थी, बस उसका मैदान बदल गया था।

छाया ने अपने दोस्तों को देखा, जो अब फिर से उसके योद्धा भाई-बहन लग रहे थे। उसने महसूस किया कि असली कवच लोहे का नहीं, बल्कि उनके अटूट विश्वास का था।

उसने मन ही मन कहा, "तो तुम मुझे पागल साबित करना चाहती हो? अब देखो, हम तुम्हें कैसे मिटाते हैं।"

यह अंत नहीं था। यह असली युद्ध की घोषणा थी।

समाप्त