Dard se Jeet tak - 6 in Hindi Love Stories by Renu Chaurasiya books and stories PDF | दर्द से जीत तक - भाग 6

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दर्द से जीत तक - भाग 6

गाँव के जलसे में जब सबने बधाई दी

तभी कुछ ज़ुबानें ज़हर भी उगल गईं।

अरे, याद है न? यही तो था जो गलियों में पागल की तरह ‘एंजल, एंजल’ पुकारता फिरता था।

भाई के पैसों पर पलकर बड़ा बन रहा है।

अपने दम पर क्या कर पाया?”

“पढ़ाई तो ठीक है, पर औक़ात याद रखो।

गाँव से निकलकर बड़ा आदमी बनना इतना आसान नहीं।”

ज़हन सब सुनता रहा।

उसके होंठ बंद थे, पर आँखें नम हो गईं।

भीड़ में ठहाके गूंजे, मगर किसी ने उसके आँसुओं की तरफ़ ध्यान नहीं दिया।

उस पल उसका सीना जैसे पत्थर से दब गया

हो।

रात को, जब सब सो गए,

ज़हन छत पर अकेला बैठा था।

आसमान की ओर देखते हुए उसकी आँखों से आँसू लगातार बह रहे थे।

दिल बार-बार कह रहा था—

“शायद सचमुच मैं लायक नहीं… शायद मैं सिर्फ़ भाई के सहारे हूँ…”

तभी भाई उसके पास आया।

उसने बिना कुछ कहे ज़हन का कंधा थामा।

ज़हन फूट पड़ा—

“भैया, सब कहते हैं मैं आपके सहारे जिंदा हूँ… मेरी कोई औक़ात नहीं… मैं एंजल के काबिल भी नहीं…”

भाई ने उसका चेहरा अपने दोनों हाथों में थामा और गहरी आवाज़ में कहा—

“ज़हन, याद रख… लोग तुझे नीचा दिखाएँगे, क्योंकि तेरे उठने का डर उन्हें सताता है।

तू सिर्फ़ पढ़ाई नहीं करेगा, तू उन्हें जवाब देगा—अपने काम से।

अब तेरी मंज़िल गाँव की टॉपर लिस्ट नहीं… तेरी मंज़िल है दिल्ली है।

, तेरी मंज़िल है UPSC!”

ज़हन ने हैरानी से भाई को देखा।

“UPSC?”

भाई ने दृढ़ नज़र से कहा—

“हाँ, बेटा। अब तू देश का सबसे बड़ा अफ़सर बनेगा।

तू देख, वही लोग जो आज तुझे ताने दे रहे हैं,

कल तेरे घर के बाहर खड़े होकर तुझे सलाम करेंगे।”

ज़हन की आँखों में आँसू थे,

तुझे पता है जब में छोटा था ।

और पढाई कर रहा था ।

तब मुझे भी दिल्ली जाकर  UPSC  की तैयारी करना चाहता था।

मेरा हमेशा से सपना एक बड़ा अधिकारी ,बनने का था 

पर  कुछ परिस्थितियां ऐसी हुई कि मेरा सपना टूट गया ।

पर आज तुझे देखकर मुझे फिर से अपना सपना जीने का मन करता है।

क्या तू मेरा ये सपना पूरा नहीं करेगा ।

ज़हन ने भाई की आंखों में देखा उनमें कोई झूठ देखने की कोशिश की ।

पर वहां उसे सच्चाई के अलावा कुछ नहीं मिला।

उसने कभी भी अपने भाई को अपने बारे में बात करते नहीं देखा था ।

उसका भाई जो हर हाल में खुश रहता है।

जितना बन सके लोगो की मदद करता है।

जिसने अपनी छोटी बहन को बड़ा किया, और काबिल बनाया ।

उस जैसे पागल का सहारा बना ,और उसे जीना सिखाया ।

आज उसने अपने उस भाई का अलग ही रूप देखा।

एक अधूरा और टूटा हुआ आदमी।

जिसे मजबूरी के बोझ के तले दब कर, अपने  सपनों को भुलाना पड़ा।

और उसी पल उसने अपने दिल में निश्चित कर लिया।

 की वो भाई का सपना पूरा करेगा ।

और इसके लिए उसे जितनी मेहनत करनी पड़े करेगा।

पर ये सपना पूरा करेगा।

वो भाई के सामने घुटनों के बल बैठ गया ।

और अपना सिर ऊपर उठकर भाई आंखों में देखकर कहा में करूंगा भाई ।

भाई ने ध्यान से उसकी आंखों में देखा ।

इस बार उसे उसकी आंखों में  अपमान का दर्द नहीं, बल्कि जुनून की चमक दिखी।

उसने भाई का हाथ पकड़कर कहा—

“भैया, मैं वादा करता हूँ—अब कभी हार नहीं मानूँगा।

मैं इतना बड़ा बनूँगा कि लोग मेरी मेहनत को देखेंगे,

और कहेंगे—हाँ, यही है असली ज़हन।”

भाई ने उसे गले से लगा लिया।

उस पल से ज़हन का असली सफ़र शुरू हुआ।

अगले कुछ दिन तैयारी में बीत गए 

भाई  ज़हन को दिल्ली भेजने में जुट गया।

और आखिर वो दिन आही गया।

जब   भाई उसे छोड़ने स्टेशन गया।

स्टेशन पर विदाई के समय भाई ने उसका हाथ कसकर थामा—

“याद रख, ज़हन, तू सिर्फ़ मेरे सपनों का नहीं, पूरे गाँव के सपनों का बोझ उठा कर जा रहा है।

थकान आए तो मेरी बातें याद कर लेना… और कभी हार मत मानना।”

नाम आंखों से उसने भाई की तरफ देखा ।

,तभी दूर खड़ी एक आकृति ने उसकी तरफ मुस्कराते हुए हाथ हिलाया ।

ज़हन का दिल एक बार फिर से धड़क उठा ।

उसने बस गहरी सांस ली ,

और गाड़ी में चढ़कर अपनी मंजिल के लिए निकल पड़ा ।

दिल्ली पहुँचा तो शहर की भीड़, ट्रैफ़िक और दौड़-भाग ने ज़हन को चौंका दिया।

गाँव की मिट्टी और सन्नाटे से निकला ये लड़का अब लाखों सपनों की भीड़ में खड़ा था।

उसका कमरा इतना  छोटा और तंग था, कि सांस लेन मुश्किल होने लगा।

कमरे में एक चारपाई, एक मेज़, और एक बल्ब जिसकी रोशनी अक्सर टिमटिमाती रहती।

खिड़की से बाहर हॉर्न और भीड़ की आवाज़ें आतीं,

पर अंदर ज़हन की आँखों में बस किताबों की दुनिया बस गई थी।

सुबह 5 बजे उठना,

लाइब्रेरी जाना,

घंटों तक नोट्स बनाना,

कभी भूख को चाय से दबाना,

कभी नींद को ठंडे पानी से भागाना—

उसकी दिनचर्या बस यही बन गई।

कभी थकान इतनी बढ़ जाती कि आँखें बंद होने लगतीं।

उस वक्त भाई की आवाज़ कानों में गूंजती—

“ज़हन, हार मानना गुनाह है।”

और वही शब्द उसे फिर से उठा देते।

क्लासेस में बैठे-बैठे अक्सर उसे गाँव के ताने याद आ जाते—

“भाई के पैसों पर पलने वाला…”

वो पन्ने पलटते-पलटते बुदबुदाता—

“अब दिखाऊँगा… सबको दिखाऊँगा।”

कभी कमरे की तंगहाली उसे रुला देती,

पर अगले ही पल एंजल का चेहरा उसकी यादों में उभरता—

“अगर मैं उसके लायक बनना चाहता हूँ,

तो मुझे दुनिया का सबसे मुश्किल इम्तिहान जीतना होगा।”

और फिर…

पन्ने पलटने लगते, रातें लंबी हो जातीं,

लेकिन उसका हौसला अब अटूट हो चुका था।

दिल्ली की लाइब्रेरी में जब ज़हन पहली बार बैठा,

उसके चारों ओर लड़के-लड़कियाँ अंग्रेज़ी किताबों में डूबे हुए थे।

किसी की जुबान पर "इंटरनेशनल रिलेशन्स" था,

किसी के नोट्स में "पॉलिटिकल साइंस" के बड़े-बड़े शब्द।

ज़हन ने अपनी हिंदी की किताब खोली।

उसमें साफ-साफ लिखा था— “राजनीति शास्त्र”।

पर बगल वाले लड़के ने अंग्रेज़ी में वही टॉपिक समझाया,

और उसकी तेज़-तर्रार भाषा ने ज़हन के दिल में गहरी चोट की।

वो बुदबुदाया—

“मैं कहाँ फँस गया हूँ?

ये सब तो मुझसे बहुत आगे हैं।

मैं तो एक गाँव का लड़का हूँ, हिंदी मीडियम का…

क्या सचमुच मैं इनसे मुकाबला कर पाऊँगा?”

क्लासरूम में तो और भी मुश्किल थी।

शिक्षक अंग्रेज़ी में धाराप्रवाह बोलते,

और ज़हन आधे शब्द समझ पाता, आधे उसके सिर के ऊपर से निकल जाते।

नोट्स बनाते-बनाते उसकी कॉपी गीली हो जाती—

कभी पसीने से, कभी आँसुओं से।

एक दिन बाहर आकर उसने गहरी साँस ली और अपने आप से कहा—

“क्या मैं यहाँ हार मान लूँ?

क्या गाँव वाले सही कहते थे कि मैं बस भाई के सहारे हूँ?”

रात को वो कमरे में अकेला बैठा था।

मेज़ पर खुली किताबें,

हाथ में कलम,

और सामने दीवार पर भाई की दी हुई चिट्ठी—

"ज़हन, भाषा न तेरी रुकावट नहीं है।

अगर तू ठान ले, तो हर शब्द तेरे सामने झुक जाएगा।"

उस चिट्ठी को देखते ही उसकी आँखें पोंछ दीं।

उसने अंग्रेज़ी की मोटी किताब उठाई और हिंदी किताब के साथ रख दी।

धीरे-धीरे एक-एक शब्द का अर्थ समझने लगा।

रात भर जागा,

सुबह तक उसके पन्नों पर अंग्रेज़ी शब्दों के हिंदी मतलब भरे हुए थे।

भाषा की लड़ाई आसान नहीं थी,

पर अब ज़हन ने ठान लिया था—

“अगर मेरी शुरुआत हिंदी में हुई है,

तो मेरी मंज़िल अंग्रेज़ी में भी चमकेगी।”

कई महीनों की तैयारी के बाद,

आख़िरकार ज़हन का पहला प्रीलिम्स एग्ज़ाम आया।

उस दिन लाइब्रेरी में सबके चेहरों पर आत्मविश्वास था,

पर ज़हन का दिल काँप रहा था।

उसने अपनी कॉपी देखी,

कुछ सवाल आसान लगे,

पर ज्यादातर अंग्रेज़ी के पेचदार शब्दों ने उसका दिमाग़ उलझा दिया।

जब रिज़ल्ट आया—

उसका नाम लिस्ट में नहीं था।

उस रात ज़हन ने खुद को कमरे में बंद कर लिया।

उसकी किताबें ज़मीन पर बिखरी पड़ी थीं।

वो सिर पकड़कर रो रहा था—

“मैं कभी नहीं कर पाऊँगा…

ये मेरी औक़ात नहीं…

शायद गाँव वाले सही थे।”

अगले दिन भाई का फोन आया।

आवाज़ में वही ठहराव, वही मज़बूती—

“ज़हन, गिरना हार नहीं है।

हार तब है जब तू उठने से इंकार कर दे।”

ज़हन चुप रहा, पर उसके आँसू बहते रहे।

भाई ने आगे कहा—

“तेरी हर असफलता तुझे और मज़बूत बनाएगी।

याद रख, सफलता उन लोगों को मिलती है जो आख़िरी साँस तक कोशिश करते हैं।”

भाई की बातें उसकी रगों में आग की तरह दौड़ गईं।

उसने फिर से किताबें उठाईं।

दूसरा प्रयास… की तैयारी में जुट गया

वो और मेहनत से पढ़ा,

लेकिन इस बार भी लिस्ट में उसका नाम नहीं था।

ज़हन टूट गया।

उसने सोचा ...शायद ये लड़ाई मेरे बस की नहीं।”

वो कमरे से बाहर निकला,

दिल्ली की सड़कों पर बेख़याली में चलता रहा।

उसके कदम लड़खड़ाते रहे,

पर अचानक से भाई की तस्वीर उसकी ,आँखों में उभर आई—

वो खेतों में मेहनत कर रहा था,

पसीने में लथपथ, पर चेहरे पर उम्मीद।

ज़हन वहीं फुटपाथ पर बैठ गया और फूट-फूटकर रो पड़ा।

उसने आसमान की ओर देखा और बुदबुदाया—

“भैया… अगर मैं हार गया तो आपकी मेहनत बेकार हो जाएगी।

नहीं! मैं फिर से कोशिश करूँगा।”

दिल्ली की ठंडी रात थी।

कमरे के कोने में किताबें बिखरी थीं,

नोट्स पर अधखाई रोटी के टुकड़े पड़े थे।

ज़हन कुर्सी पर सिर झुकाकर बैठा था।

कई बार की नाकामी ने उसकी आत्मा को खोखला कर दिया था।

पहला प्रयास… असफल।

दूसरा प्रयास… असफल।

तीसरा प्रयास… फिर असफल।

हर बार गाँव वालों के ताने,

“भाई के पैसों पर पलने वाला…”

“अपने दम पर कुछ नहीं…”

“पागल…”

ये शब्द उसके कानों में गूँजते रहते।

आज रात ये शब्द उसे काट रहे थे।

उसके दिमाग में फिल्म की तरह पुरानी यादें घूमने लगीं—

पागलखाना, गलियों में “एंजल” पुकारना,

भीड़ की हँसी,

भाई की मेहनत,

माँ-बाप का छोड़ना,

एंजल का चेहरा…

उसने सिर उठाया,

आँखों में आँसू थे और होंठ कांप रहे थे—

“मैं किसके लिए जी रहा हूँ?

माँ-बाबा के लिए? वो तो मुझे छोड़ कर चले गए।

भाई के लिए? मैं उस पर बोझ  के सिवाय कुछ नहीं हूँ।

एंजल के लिए? वो  अब एक सफल इंसान है ।

क्या वो मेरे जैसे नाकाम इंसान को अपनी  ज़िंदगी  अब भी चाहेगी?"

गाँव वालों के लिए? उनके लिए मैं बस मज़ाक हूँ।

तो मैं क्यों जिंदा हूँ?”

बार बार उसके दिल में  पागल शब्द गूंजने लगा ।

उसका पूरा स्वाभिमान इस पल में चूर चूर हो गया।

उसकी साँस तेज़ होने लगी।

दिल की धड़कन असामान्य हो गई।

कमरे में जैसे सब कुछ घूम रहा था।

उसने मेज़ के किनारे से उठकर खिड़की की तरफ़ देखा।

दिल में एक ही सोच कौंधी:

“अगर मैं इस पल सब खत्म कर दूँ… तो सब बोझ ख़त्म।”

उसके कदम धीमे-धीमे खिड़की की ओर बढ़े।

उसकी उँगलियाँ कांपते हुए खिड़की की ग्रिल पकड़ने लगीं।

आँसू आँखों से गिरते रहे।

उसने अपने आप से कहा—

“माफ़ करना भैया… माफ़ करना एंजल…”

इसी पल, टेबल पर रखा मोबाइल कंपन करने लगा।

स्क्रीन पर नाम चमका—“भैया”।

ज़हन का हाथ ठिठक गया।

वो फोन की तरफ देखता रहा।

रिंग बजते बजते बंद हो गई।

एक बार फिर से उसने ,खिड़की की तरफ कदम बढ़ाया

 मोबाइल फिर से बज उठा

इस बार उसने फोन उठाया।

भाई की आवाज़ आई—

“ज़हन, बेटा… क्यों चुप हो?

तू ठीक है न?”

ज़हन की आँखों से आँसू फूट पड़े।

उसके होंठ काँपते हुए बोले—

“भैया… मैं अब और नहीं कर सकता…

मैं बोझ हूँ… आप सबके लिए…

मुझे क्यों जीना है।

मुझे मारना जाना चाहिए?”

भाई की आवाज़ गहरी और प्यार भरी थी,

लेकिन इस बार उसमें तेज़ी भी थी—

“ज़हन! एक बात ध्यान से सुन…

तू बोझ नहीं है।

तू मेरी साँस है।

तेरे बिना मैं भी नहीं हूँ।

तू मेरे लिए हार नहीं सकता।

तू चाहे जितना गिर, मैं हमेशा तुझे उठाऊँगा।”

भाई की आवाज़ ज़हन के भीतर ऐसे गूंजी जैसे किसी अंधेरी गुफा में दीया जल गया हो।

उसके कदम रुक गए।

वो वहीं घुटनों के बल बैठ गया और फोन पकड़े-पकड़े रो पड़ा।

भाई ने कहा—

“बेटा, मैं आ रहा हूँ।

तू बस एक काम कर—हिम्मत मात हर कल सुबह जब तू उठेगा में तेरे पास होऊंगा ।

जा, पहले पानी पी । 

और सोजा  जब तू उठेगा में तेरे लिया आऊंगा।

तेरे हर आँसू की कसम, मैं तुझे इस अंधेरे से बाहर निकालूँगा।

बस एक बार मेरे आने तक तू हार मत मानना।”

ज़हन ने सिसकते हुए कहा—

“भैया… आप आओगे?”

भाई की आवाज़ में वादा था—

“आऊँगा।

तू मेरा बेटा है, तू मेरे सपनों का सूरज है।

मैं तुझे इस अंधेरे में नहीं छोड़ूँगा।

तू बस वादा कर—ऐसा कदम नहीं उठाएगा।”

जिससे तेरे भाई को दर्द हो,

भाई बातों ने ज़हन पर जादू सा कम किया 

और ज़हन वहीं बैठ गया,

उसकी हथेलियों में पानी का गिलास था , और आंखों से  आँसू   टपक रहे थे।

उसने धीमे स्वर में कहा—

“भैया… मैं वादा करता हूँ।”

उस पल, मौत का दरवाज़ा खुलते-खुलते बंद हो गया।

कमरे में फिर से साँस की आवाज़ आई।

और पहली बार उस रात ज़हन ने महसूस किया—

भाई का भरोसा किसी दवा से बड़ा है।

रात ने अपनी ठंडी चादर और भी घनी कर ली थी।

कमरे के अंदर वह वही बदरंग स्टूल, किताबों के ढेर, और खिड़की की ठंडी हवा थी — और ज़हन वहीं गिड़गिड़ाते हुए बैठा।

उसने खिड़की के पास अपने घुटनों को सर लगाया हुआ था;

आँसु अब भी उसकी आंखों के कोने में चमक रहे थे,

 उसके लिये हर पल इतने भारी थे कि उसे लगा—साँसें भी कैसे चल रही हैं, यह समझ नहीं आता।

घनघोर अँधेरे में उसने मोबाइल बार-बार देखा—पर स्क्रीन खाली ही रही।

उसने खुद से कहा, “भाई आ जाएगा…” 

और इंतजार करने लगा ।

आप्त नहीं कब उसकी आंख लग गई और वो बही सो गया ।

जब  सुबह  ...घंटी बजी — तब उसे होश आया।

कई घंटों के बाद—शायद अमानवीय सी तन्हाई के दौर में—दरवाज़े पर हल्की-सी आहट हुई।

ज़हन ने चौंक कर सिर उठाया।

दरवाज़ा खुला।

बाहर थोड़ा सा उजाला था,  अंधेरा पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ था ।

उसने दरवाजा खोला पर दरवाज़े पर खड़ा प्रतिबिंब दिखाई दिया।

उसकी आंखों में  थकान  साफ झलक रही थी ।

 फिर भी वो मुस्करा रहा था ,

ये उसका भाई था।

जो हर वादा बनाता है।

चाहे कुछ भी हो।

भरी साँसें, लेता हुआ ,पर आँखों में उतनी ही दृढ़ता।

भाई ने बिना किसी शक्ति  के कमरे में कदम रखा। उसने देखा—

ज़हन वहीँ, झुका हुआ, आँसू पोंछता हुआ।

भाई की आँखें नम हो आईं, पर उनके होंठों पर एक मजबूर मुस्कान आ गई। वो धीरे-धीरे ज़हन के पास आया, झुककर उसके पास बैठ गया, और अपना हाथ उसके कंधे पर रखा।

ज़हन ने अपना सर उठाया।

उसकी आँखों में कमजोरी नहीं, सिर्फ़ बेचैनी और पछतावे का अंजाम था।

भाई ने उसे चिढ़ाते हुए नहीं, बल्कि माँ जैसा सहलाते हुए कहा—

“तू बेवकूफ़  बन रहा  था।

इतना छोटा नहीं हूँ

जब मैं—तूने मुझको पागलखाने से निकाला था 

क्या तुझे याद है?

उस पल भी तूने हर नहीं मानी ।

लेकिन अब तू हर मन रहा है जब मैने तुझे अपना बेटा माना है।

उसकी आवाज़ में प्यार भी था, पर डर भी।

ज़हन चुप रहा  — पर उसके होंठों के निचले हिस्से में एक हल्की रगड़ सी हुई;

फिर वह रो पड़ा; इस बार आँसू न शिकवे के थे न आत्म-दोष के — वे सिर्फ़ शुद्ध राहत के थे।

भाई ने उसे उठाया, दोनों आँखों से गिरते आँसू पोंछे, और कहा—

“चल, पहले नहा धोकर खाना खा, फिर बात करेंगे।

अब हम मिलकर योजना बनाएँगे।”

जहज उठकर नहाने चला गया

भाई ने कंधे पर एक झोला टाँगा हुआ था

— उसमें घर की बनी रोटी, सब्जी निकाली।

और एक छोटा-सा तोहफ़ा निकाला, जो एंजिल ने दिया था।

और...एक पुराना नोट जिस पर उसके माता पिता ने  लिखा था—

“हिम्मत रखना  बेटा चाय मंजिल कितनी भी दूर हो।

ज़हन जब नहाकर बाहर आया तब भाई ने खाना पुरुष दिया था।

भाई ने उसे देखा आओ खाओ

वो दोनों छोटे-छोटे चकले पर बैठकर खाना खाने लगे।

भाई ने पहले ज़हन को खाना खिलाया—जैसे माँ अपने बच्चे को  खिलाती हो।

—और धीरे-धीरे ज़हन को शब्द देर शब्द  समझाया:

“सब ठीक हो जाएगा।

पर अब एक बात तय है—तू अकेला नहीं लड़ेगा।

मैं तेरे साथ रहूँगा, हम मिल्र कर पढ़ेंगे लिखूगए, और जो भी कमी हो उसे भरेंगे।”

फिर भाई ने ज़हन के लिए एक ठोस कदम बताया—

वो अगले दिन एक कमरे का बेहतर इंतज़ाम करता है।

कुछ अच्छे ट्यूटर से मिलने बात करने गया, 

ज़हन ने सिर हिलाया—उसकी आँखों में अब जो चमक थी, वो कमजोरी की नहीं, नए संकल्प की थी।

उसने डिब्बे में से एक खोला—एक नोट मिला जिस पर छोटे अक्षरों में लिखा था: “तू मेरा बेटा है—तू हार नहीं मान सकता।

” वो नोट भाई ने  आते वक़्त पर दिया था—और वही अब ज़हन की हर साँस में दौड़ आया।

रात बीत गई — पर इस बार ज़हन ने नींद में भी किताबों के सपने देखे

— भविष्य के वे पन्ने जहाँ उसके मेहनत के अक्षर साफ़ दिख रहे थे।

भाई के हाथ में उसकी उँगलियाँ थीं — और दोनों ने मिलकर अगली सुबह को संकल्प के साथ देखा।

सुबह की हल्की रोशनी खिड़की से कमरे में झाँक रही थी।

रात के आँसुओं के बाद अब पहली बार कमरे में एक सुकून-सा था।

भाई ने ज़हन को उठाया, उसके चेहरे पर पानी छींटा और मुस्कुराकर कहा—

“चल, नया दिन है… अब हमें फिर से शुरू करना है।”

---

एक  टाइमटेबल बनाया

भाई ने पेपर पर पेन से लिखते हुए कहा—

“सुबह 5 बजे उठना।

5 से 8 — रिवीज़न।

8 से 9 — नाश्ता और वॉक।

9 से 1 — लाइब्रेरी।

1 से 2 — लंच और आराम।

2 से 6 — क्लासेस या सोलो स्टडी।

6 से 7 — एक टेस्ट भाई लेगा।

7 से 10 — मॉक टेस्ट और एनालिसिस।

10 बजे सोना।”

ज़हन चुपचाप देख रहा था।

भाई ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा—

“अब ये तेरा नया धर्म है।

रोज़, बिना बहाना।”

---

भाई अगले ही दिन ज़हन को दिल्ली के एक अच्छे कोचिंग सेंटर ले गया।

वहाँ उसने टीचर्स से साफ़ कहा—

“मेरा छोटा भाई गाँव से आया है।

हिंदी मीडियम से पढ़ा है।

आप उसे सिर्फ़ पढ़ाइए नहीं, उसे समझाइए भी।”

कुछ लोग हँसे, कुछ ने कहा कि यह बच्चा मुश्किल से टिक पाएगा।

पर भाई ने उनकी आँखों में आँखें डालकर कहा—

“ये बच्चा एक दिन यहीं का नाम ऊँचा करेगा।

आप देख लेना।”

---

दिल्ली में रहना आसान नहीं था।

भाई ने अपनी थोड़ी-सी ज़मीन बेच दी, और  एक अस्थाई , दुकान किराए पर ली उसने उसमें पैसा लगाये।

जब तब वो यह था खाली हाथ तो नहीं बैठ सकता था।

उसने कहा—

“ज़हन, तेरा सिर झुकना नहीं चाहिए,

ये सोचकर कि पैसे कहाँ से आएँगे।

तेरा काम सिर्फ़ पढ़ाई है।

पैसा मैं संभालूँगा।

तू सिर्फ़ मेहनत संभाल।”

रात का वो खौफ़नाक लम्हा,

जब भाई ने फोन पर ज़हन की टूटी हुई आवाज़ सुनी,

उसके  वो कांपते शब्द — अब भी भाई को सुनाई देते है।

“भैया… मैं बोझ हूँ…”

भाई के दिल पर जैसे किसी ने चाकू चला दिया ।

उसने उसी पल तय कर लिया —

“अब ये बच्चा अकेला नहीं रहेगा।

अब इसकी हर सांस मेरी आँखों के सामने होगी।”

उसने एक पल भी बर्बाद नहीं किया।

उसी पल गांव से भगा ।

उसको अंदर से इतना डर लग रहा था, कि वो सांस लेना भूल गया था।

अगली सुबह ही वह दिल्ली पहुँचा।

और ज़हन के कमरे के बाहर पहुंचने तक

उसके कदम इतने भारी थे , कि उनको उठाना मुश्किल था।

एक अंजना सा डर उसके दिल में घर कर गया ।

जब उसने दरवाजा खोला तब 

ज़हन अभी भी उसी जगह बैठा था,

आँखों में थकान, चेहरे पर उदासी।

भाई ने उसे उठाया, गले लगाया और बिना कुछ बोले उसके पास बैठ गया।

फिर उसने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा—

“बस बेटा, अब बस।

अब मैं तेरे पास रहूँगा।

तू पढ़ाई करेगा, मैं तेरे साथ रहूँगा।

खाना मैं बनाऊँगा, तुझे पढ़ना होगा।

कोई ताना तुझे नहीं तोड़ेगा,

क्योंकि मैं तुझे अपने सामने रखकर संभालूँगा।”

उसने तुरंत दूसरा कमरा लिया —

एक ओर किताबें, एक ओर रसोई का कोना।

भाई खुद वहीं शिफ्ट हो गया।

सुबह ज़हन के साथ लाइब्रेरी तक जाता,

रात को उसके साथ ही नोट्स बनाता,

बीच में उसके लिए खाना बनाता।

ज़हन कई बार कहता—

“भैया, आप क्यों इतनी परेशानी उठा रहे हैं?

आप गाँव का काम देखिए।”

भाई बस मुस्कुराकर कह देता—

“गाँव तो मैंने पूरे जीवन देखा है।

अब मे शहर देखूंगा।

जब तक तू खड़ा नहीं हो जाता, मैं तेरे साथ ही रहूँगा।”

दिन गुज़रते गए।

अब दोनों की ज़िंदगी एक टीम की तरह हो गई।

भाई उसकी ढाल था, और ज़हन उसके सपनों की तलवार।

अब ज़हन अकेला नहीं था।

कमरे के हर कोने में भाई की मौजूदगी उसे सहारा देती।

सुबह भाई उसके साथ उठता, नाश्ता बनाता और कहता—

“बेटा, आज कितने पन्ने पलटोगे?”

ज़हन जवाब देता—

“भैया, सौ पन्ने।”

भाई मुस्कुरा कर कहता—

“चलो, मैं भी गिनता हूँ।”

लाइब्रेरी तक भाई उसके साथ चलता।

कभी ज़हन थककर किताब बंद करता तो भाई उसकी पीठ थपथपाकर कहता—

“तू बस कोशिश कर, जीत मैं तेरे लिए माँग लाऊँगा।”

धीरे-धीरे, ज़हन का डर कम होने लगा।

अब वह क्लास में सवाल पूछने लगा।

नोट्स साफ़-सुथरे बनाने लगा।

अंग्रेज़ी में लिखने की कोशिश करता, गलतियाँ करता, हँसता और फिर सीखता।

मॉक टेस्ट का दिन

कोचिंग सेंटर में पहला बड़ा मॉक टेस्ट हुआ।

हज़ारों बच्चे बैठे थे।

ज़हन के हाथ काँप रहे थे, लेकिन इस बार भाई बाहर खड़ा था।

भाई ने जाते-जाते कान में कहा—

“डर मत, तू अकेला नहीं है।

हर सवाल में मेरी दुआ तेरे साथ है।”

तीन घंटे बाद जब रिज़ल्ट बोर्ड पर आया—

ज़हन का नाम टॉप-20 में था।

उसकी आँखें यकीन नहीं कर पा रही थीं।

वो बोर्ड को देखता रहा, नाम पढ़ता रहा।

भीड़ में किसी ने कहा—

“अरे, ये तो वही लड़का है… हिंदी मीडियम वाला।”

“वाह! इसने तो कमाल कर दिया।”

ज़हन का दिल धड़क रहा था।

वो बाहर निकला।

भाई वहाँ खड़ा था, बेसब्री से इंतज़ार करता हुआ।

ज़हन ने धीमी आवाज़ में कहा—

“भैया… मेरा नाम टॉप-20 में है।”

भाई कुछ पल उसे देखता रहा,

फिर उसकी आँखों से आँसू झर-झर गिर पड़े।

उसने ज़हन को कसकर गले लगाया और बोला—

“मेरे छोटे… तूने मेरी सांसें लौटा दीं।

ये तो बस शुरुआत है।

अब देख, तू कहाँ पहुँचेगा।”

उस रात दोनों ने छोटे-से कमरे में जश्न मनाया।

भाई ने खुद अपने हाथों से खिचड़ी बनाई,

और हँसते हुए कहा—

“आज ये खिचड़ी शाही दावत से भी बढ़कर है।”

ज़हन ने प्लेट हाथ में ली और  बोला—

“ये जीत मेरी नहीं, हमारी है।”

 और देखते ही देखते ........ प्रीलिम्स 

वो दिन जैसे परीक्षा नहीं, बल्कि रणभूमि थी।

पन्नों की खड़खड़ाहट, घड़ी की टिक-टिक, और दिल की धड़कन—

सब एक साथ ज़हन को घेर रहे थे।

परीक्षा हॉल में बैठते ही उसने आँखें बंद कीं।

भाई के शब्द उसके कानों में गूँजे—

"डर मत, हर सवाल में मेरी दुआ तेरे साथ है।"

उसने गहरी साँस ली और कलम उठाई।

तीन घंटे में उसने अपनी पूरी मेहनत उस कॉपी पर उँडेल दी।

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रिज़ल्ट का दिन

दिल्ली के कोचिंग सेंटर में भीड़ जमा थी।

हर कोई बोर्ड पर झुका था।

ज़हन का दिल इतनी ज़ोर से धड़क रहा था कि उसे लगा जैसे सब सुन सकते हैं।

भाई उसके साथ खड़ा था,

आँखें उसी बोर्ड पर टिकी हुईं।

धीरे-धीरे लिस्ट स्क्रॉल हुई…

और अचानक—

वहाँ लिखा था: “ज़हन – पास”।

ज़हन कुछ पल तक देखता ही रह गया।

उसे लगा शायद सपना है।

उसकी आँखों से आँसू छलक पड़े।

भाई ने उसका हाथ पकड़ा—

“बेटा… तूने कर दिखाया।”

ज़हन ने काँपते होंठों से कहा—

“भैया… मैंने कर दिखाया।

अब लोग मुझे बोझ नहीं कहेंगे न।”

भाई ने उसे गले लगाया,

आँखों से आँसू गिरने लगे,

पर चेहरा गर्व से चमक रहा था।

जब गाँव में खबर पहुँची

गाँव के चौपाल पर जैसे तूफ़ान आ गया हो।

लोग चिल्लाने लगे—

“अरे, ज़हन ने प्रीलिम्स पास कर लिया!”

तालिया बजने लगे

और वही लोग,

जिन्होंने कभी कहा था—“भाई के पैसों पर पलता है, किसी काम का नहीं”—

आज भीड़ में सबसे आगे खड़े होकर बाते कर  रहे थे।

किसी ने कहा—

“वाह! अब तो ये गाँव का नाम रोशन करेगा।”

दूसरे ने जोड़ा—

“याद है, कभी पागल कहते थे? अब देखो, अफसर बनने जा रहा है।”

पर दूर  भाई लिए ये जीत ,सिर्फ लोगों का जवाब नहीं था।

ये जीत उसके बच्चे का नया जन्म था।

................ धन्यवाद .....................


लेखक की ओर से


“यह कहानी एक सच्ची घटना से प्रेरित है।

यह उस इंसान की दास्तान है

जिसने तमाम संघर्षों, तानों और मुश्किलों के बावजूद

हार नहीं मानी और जीत का रास्ता चुना।


कहानी के कई हिस्से सच्चाई से लिए गए हैं,

और कुछ हिस्सों को मैंने अपनी कल्पना से गढ़ा है—ताकि भावनाओं को और गहराई से महसूस कराया जा सके।


यह सिर्फ़ ज़हन या एंजल की कहानी नहीं है,

बल्कि उन तमाम लोगों की है जो दर्द से जूझकर सपनों की ओर बढ़ते हैं।”



मैंने इसमें अपने दिल की भावनाएँ, संघर्ष और सपनों की उड़ान को शब्द दिए हैं।

कई जगह यह कहानी हक़ीक़त से मिलती-जुलती लगेगी,

तो कई जगह आपको कल्पना की उड़ान महसूस होगी।


मेरा उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पाठक को यह एहसास हो सके—

मुश्किलें चाहे जितनी भी गहरी क्यों न हों,

अगर हिम्मत और विश्वास हो तो हर कोई अपनी ‘जीत का रास्ता’ बना सकता है।”