Arjun in Hindi Film Reviews by Sanjay Sheth books and stories PDF | अर्जुन

Featured Books
Categories
Share

अर्जुन

अर्जुन (1985): जब एक आम लड़का व्यवस्था से भिड़ गया

1980 के दशक का भारत एक कठिन दौर से गुजर रहा था। बेरोजगारी आसमान छू रही थी, भ्रष्टाचार ज़मीन से जुड़ चुका था, और आम आदमी की आवाज़ सरकारों तक पहुँच ही नहीं पा रही थी। शहरों में पढ़े-लिखे नौजवान दर-दर की ठोकरें खा रहे थे, और गांवों में लोग ज़िंदगी के सबसे बुनियादी सवालों से जूझ रहे थे। ऐसे समय में हिंदी सिनेमा ने कुछ कहानियाँ दीं जो उस दौर की सच्चाई को पर्दे पर बिना लाग-लपेट के पेश करती थीं। उन्हीं में से एक थी “अर्जुन” — जो आज तक याद की जाती है, और जिसकी गूंज अब भी कई सच्चाइयों को छू जाती है।

इस फिल्म की कहानी अर्जुन मल्होत्रा नाम के एक बेरोजगार युवक की है, जो अपनी माँ के साथ मुंबई की एक आम सी बस्ती में रहता है। अर्जुन न तो किसी अपराधी गिरोह से जुड़ा है, न किसी राजनीतिक संगठन से, न ही उसके पास कोई आर्थिक या सामाजिक ताक़त है। उसके पास सिर्फ़ उसकी मेहनत, ईमानदारी और अपनी अंतरात्मा की आवाज़ है। लेकिन यह आवाज़ तब तक किसी को सुनाई नहीं देती जब तक वह व्यवस्था के खिलाफ़ बोलना शुरू नहीं करता।

फिल्म की शुरुआत ही इस बात से होती है कि अर्जुन रोज़गार की तलाश में जगह-जगह भटक रहा है। उसे काम नहीं मिलता, क्योंकि वह सिफारिश नहीं लाता, रिश्वत नहीं देता, और झूठ बोलना नहीं जानता। उसका गुस्सा, उसकी तकलीफ़ और भीतर जमा बेचैनी धीरे-धीरे परदे पर दिखने लगती है। फिर एक दिन जब वह अपने इलाके में एक गुंडे को गरीब दुकानदारों से ज़बरदस्ती वसूली करते देखता है, तो खुद को रोक नहीं पाता और उसे पीट देता है। बस, यही वो पल है जब एक आम आदमी 'अर्जुन' बन जाता है — एक ऐसा युवक जो चुप नहीं रहता, और जो अन्याय को अपनी आँखों के सामने होते नहीं देख सकता।

उसकी यह हरकत उसके मोहल्ले में चर्चा का विषय बन जाती है। लोग उसे सराहने लगते हैं, उसकी बहादुरी की मिसाल देने लगते हैं। इसी बीच राजनीति भी उसकी ताक़त को पहचान लेती है। नेता देवनाथ (अनुपम खेर) अर्जुन को अपने संगठन में शामिल करता है और उसे 'युवाओं की आवाज़' बना देता है। शुरुआत में अर्जुन को लगता है कि वह वाकई किसी बदलाव की ओर बढ़ रहा है। वह जनता की समस्याएं उठाता है, ग़रीबों के हक़ में बोलता है, पुलिस के भ्रष्टाचार पर सवाल करता है।

लेकिन फिर धीरे-धीरे उसे समझ आता है कि ये सब एक बड़ा खेल है। जो लोग उसके आसपास हैं, वे सिर्फ़ उसका इस्तेमाल कर रहे हैं। नेता देवनाथ और एक स्थानीय समाजसेवी रवि अन्ना (प्रेम चोपड़ा) आपस में मिले हुए हैं। रवि अन्ना बाहर से नेकदिल दिखता है — दान करता है, मंदिर में पूजा करवाता है, गरीबों में अनाज बांटता है — लेकिन असल में वह पूरे शहर का सबसे बड़ा गुंडा और माफिया है। ज़मीन हथियाना, गुंडागर्दी, हत्या और जबरन वसूली — उसके रोज़मर्रा के काम हैं। और नेता लोग उसकी इस ताक़त को अपनी सत्ता बचाने के लिए इस्तेमाल करते हैं।

प्रेम चोपड़ा ने रवि अन्ना का जो किरदार निभाया है, वो उनके बाकी खलनायकों से अलग है। यहाँ वह ज़्यादा चिल्लाता नहीं, गुस्से में नहीं दहाड़ता — उसकी खामोश चालें, मीठे बोल और सधे हुए षड्यंत्र ही असली डर पैदा करते हैं। रवि अन्ना और देवनाथ मिलकर अर्जुन को भी उसी गंदे खेल में खींचने लगते हैं। और जब अर्जुन सवाल उठाता है, तब उसका साथ देने वाला कोई नहीं बचता। वह अकेला पड़ जाता है — इस्तेमाल किया गया, धोखा खाया हुआ, लेकिन अब पूरी तरह जागा हुआ।

फिल्म का दूसरा हिस्सा अर्जुन के इस जागरण की कहानी है। अब वह समझ चुका है कि बदलाव बाहर से नहीं, भीतर से शुरू होता है। वह न तो अब नेताओं पर भरोसा करता है, न ही किसी कानून या संगठन पर। अब वह अकेला रवि अन्ना के खिलाफ़ खड़ा होता है। उसके पास हथियार नहीं, गुंडे नहीं, न कोई सेना — लेकिन उसके पास सच्चाई है, जुनून है और हार मानने से इनकार करने वाला हौसला है।

फिल्म का क्लाइमेक्स बड़ा ही सधा हुआ और असलियत के करीब है। अर्जुन रवि अन्ना के अड्डे पर पहुँचता है, उसे बेनकाब करता है और पूरी व्यवस्था को ललकारता है। कोई बड़ा भाषण नहीं, कोई नाटकीय अंत नहीं — बस एक साधारण लड़का, जो अब अपनी ताक़त को पहचान चुका है, सामने खड़ा है। वह नायक नहीं, प्रतीक बन जाता है — उस हर युवा का, जो अपने भीतर के गुस्से को आवाज़ देना चाहता है।

फिल्म का निर्देशन राहुल रवैल ने बड़े संतुलन और सादगी से किया है। उन्होंने कहानी को ग्लैमर या ओवरड्रामा में नहीं बहने दिया। जो दिखाया है, वह यथार्थ के बेहद करीब है। मुंबई की गलियाँ, किरदारों के कपड़े, घर, बोली — सब कुछ इतना सहज है कि लगता है जैसे यह किसी की असली कहानी है, न कि कोई फिल्म। सलीम खान की लिखी पटकथा सीधी है, लेकिन बहुत मारक। खासकर अर्जुन के कुछ संवाद आज भी लोगों की जुबान पर हैं।

अब बात करें फिल्म के संगीत की, तो आर.डी. बर्मन ने इस फिल्म में जो धड़कनें रची हैं, वो आज भी दिल में गूंजती हैं। “मम्मया केरो केरो मम्मा” गीत तो जैसे उस दौर की क्रांति का प्रतीक बन गया था। किशोर कुमार की ऊर्जावान आवाज़ और पंचम दा की जोशीली धुन ने इसे आज भी अमर बना दिया है। “मम्मी मुझे कुछ कहना है” गाना अर्जुन के भीतर की मासूमियत और माँ के प्रति उसके रिश्ते को बेहद भावुक तरीके से दिखाता है। “बम्बई का बाबू नाम है अर्जुन” जैसे गीत उसके नए आत्मविश्वास और जनता में उसकी पहचान को गहराई देते हैं।

अर्जुन की सफलता सिर्फ उसकी कहानी या अभिनय में नहीं थी, वह उस समय के माहौल में छिपे एक सच्चे ‘कनेक्शन’ की वजह से थी। इस फिल्म की लागत उस वक्त करीब ₹1.5 करोड़ थी और इसने लगभग ₹5.5 करोड़ का कारोबार किया। यानि उस दौर में यह एक हिट फिल्म साबित हुई — न सिर्फ बॉक्स ऑफिस पर, बल्कि लोगों के दिलों में भी। यह बात और है कि आज उस कमाई को हम कम समझें, लेकिन तब के हिसाब से यह फिल्म अपनी लागत से कहीं ज्यादा कमा चुकी थी और लंबे समय तक सिनेमाघरों में चली थी।

"अर्जुन" एक ऐसे नौजवान की कहानी है जो किसी चमत्कारिक ताक़त के भरोसे नहीं, बल्कि अपने आत्मबल के भरोसे खड़ा होता है। यह फिल्म हमें याद दिलाती है कि व्यवस्था बदलने के लिए बड़े-बड़े नारे नहीं, बल्कि एक सचेत और जागरूक इंसान की ज़रूरत होती है। और अगर वो इंसान अकेला भी हो, तो भी वह पूरी व्यवस्था को आईना दिखा सकता है।

आज भी जब कोई युवा अन्याय देखकर चुप नहीं बैठता, जब कोई बेरोजगार व्यवस्था से टकराने की हिम्मत करता है — तो कहीं न कहीं उसकी रगों में ‘अर्जुन’ का ही खून दौड़ रहा होता है।