चंद्रवा की सुबह उस दिन कुछ ज़्यादा ही शांत थी।
हवा में धान की हल्की गंध तैर रही थी, तालाब के पानी पर सूरज की किरणें चमक रही थीं, और कमल के फूल अपनी पूरी आभा में खिले थे। औरतें घड़ों में पानी भरते हुए धीरे-धीरे हँस रही थीं—किसी की बात पर ठहाका, किसी की झेंपी मुस्कान। बच्चे किनारे पर रस्सी कूद रहे थे, और कभी-कभी हँसते-चिल्लाते हुए गिर पड़ते। जीवन, जैसा था, अपनी सहज धुन में चल रहा था।
आर्यन तालाब की सीढ़ियों पर बैठा, पत्थर चुनकर पानी में उछाल रहा था। हर पत्थर के साथ फैलती लहरों में उसे कुछ ढूँढने की आदत थी—शायद शांति, या शायद खुद को। उसके पास रखी एक छोटी लकड़ी की नाव अधूरी पड़ी थी, जैसे किसी अधूरे सपने की निशानी।
उधर बबलू सुबह-सुबह पंचायत के काम से गाँव के बाहर निकला था। धरम चौपाल पर खड़ा गाँववालों से बात कर रहा था—उसका चेहरा गंभीर था, पर आवाज़ में दृढ़ता थी।
गाँववाले उसकी बातों को ध्यान से सुन रहे थे। उनके चेहरों पर एक हल्का डर तो था, पर उससे ज़्यादा भरोसा था धरम पर — वह आदमी जिसने सालों से चंद्रवा को संभाल रखा था। किसी को अंदाज़ा नहीं था कि धरम की “अजनबी हवा” वाली चेतावनी इतनी जल्द सच्ची साबित होने वाली है।
दोपहर होते-होते सूरज ऊपर चढ़ आया था। खेतों में काम करते लोगों की आँखों में पसीने के साथ थकान झलक रही थी। तभी एक बच्चे की तेज़ आवाज़ गूंजी—
“देखो! देखो, दूर-दूर घोड़े दौड़ रहे हैं!”
लोगों ने सिर उठाए। धूल की एक मोटी रेखा, खेतों के पार से, गाँव की ओर बढ़ रही थी। पहले किसी ने सोचा, शायद कोई व्यापारिक काफ़िला होगा। लेकिन कुछ ही पल में घोड़ों की टापें साफ़ सुनाई देने लगीं — लयबद्ध, भारी, और अशुभ।
औरतें, जो तालाब के किनारे थीं, रुक गईं। किसी ने काँपती आवाज़ में कहा—
“ये तो सेना लगती है… पर ये ध्रुवखंड की नहीं।”
अब तक पूरा गाँव चौकन्ना हो चुका था।
धरम चौपाल से बाहर आया। उसने दूर क्षितिज पर नज़र डाली — लोहे की झनझनाहट, बख्तरबंद सैनिकों की चमक और काले झंडों पर लाल लकीरें, जैसे खून से सनी हों।
वह बुदबुदाया, “नवगढ़ की सेना... इतने अंदर तक क्यों आई है?”
आकाश अचानक भारी हो गया। हवा में एक अनकहा भय तैरने लगा। खेतों की सरसराहट जैसे किसी आने वाली तबाही की फुसफुसाहट बन गई।
सेनापति ने घोड़े की लगाम खींची और हाथ उठाया। उसके इशारे से सैकड़ों सैनिक रुक गए।
“यहीं है वह गाँव,” उसने कहा, “आधे लोग खेतों की ओर से घेरो, बाकी सीधे चौपाल की तरफ चलो। किसी को भागने मत देना।”
गाँववालों में खलबली मच गई।
औरतें बच्चों को पकड़कर घरों की ओर दौड़ीं, दरवाज़े बंद करने लगीं।
बुज़ुर्ग चौपाल के किनारे खड़े होकर इधर-उधर देखने लगे, जैसे समझने की कोशिश कर रहे हों कि गलती कहाँ हुई।
लेकिन धरम ने ऊँची आवाज़ में पुकारा —
“कोई भागेगा नहीं!
हमारा गाँव हमारा किला है।
जितनी साँसें यहाँ बसी हैं, उतनी ही ताक़त में बदलेंगी।”
उसकी आवाज़ ने जैसे ठहरती साँसों को हिला दिया।
लोग धीरे-धीरे बाहर निकलने लगे — कोई हल लेकर, कोई दरांती, कोई जलती मशाल।
वे सैनिक नहीं थे, पर उस वक़्त सब योद्धा लग रहे थे।
आर्यन आगे आया। उसके चेहरे पर बालपन की झलक अब नहीं थी।
उसने धरम की ओर देखा —
“पिताजी, अगर ये आए हैं तो बिना लड़े लौटेंगे नहीं।
हमें रास्ता नहीं, जवाब देना होगा।”
धरम ने एक पल उसकी आँखों में देखा — गहरी, दृढ़, और शांत।
“तो फिर याद रखना,” उसने कहा, “लड़ाई ताक़त से नहीं, विश्वास से जीती जाती है।”
गगन और रेखा आगे बढ़े, लाठियाँ थामे हुए।
सुधा बच्चों को घर के अंदर ले गई, पर उसकी आँखों में डर नहीं, एक अजीब-सी दृढ़ता थी। वह खिड़की से बाहर झाँकती रही, जैसे हर हरकत पर नज़र रखे।
अब गाँव की गलियाँ मौन नहीं थीं।
हर दरवाज़े पर कोई खड़ा था —
किसी के हाथ में दरांती, किसी के पास पत्थर, किसी के पास केवल एक लाल चुनरी जो अब पसीने से भीग चुकी थी।
हवा में मिट्टी और पसीने की गंध घुल गई थी।
बच्चे, जो कभी रस्सी कूदते थे, अब खिड़कियों से झाँक रहे थे।
तालाब का पानी भी जैसे ठहर गया था।
धरम ने एक पत्थर उठाकर अपने हाथ में मसल दिया, मानो किसी पुराने वादे को याद कर रहा हो।
आर्यन ने आख़िरी बार तालाब की ओर देखा, जहाँ उसकी अधूरी नाव अब भी किनारे पड़ी थी।
वह जानता था, आज के बाद कुछ भी पहले जैसा नहीं रहेगा।
गाँव की गलियाँ अब मौन नहीं थीं।
हर दरवाज़े पर कोई न कोई खड़ा था—
किसी के हाथ में हल, किसी के हाथ में दरांती, किसी के हाथ में पत्थर।
वे हथियार नहीं थे, पर इरादे ज़रूर थे।
और धूल की वह रेखा… अब गाँव के दरवाज़े तक पहुँच चुकी थी।
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