(एक चुप्पी में बिखरी मोहब्बत की कहानी)
कभी-कभी कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो खत्म तो हो जाते हैं,
लेकिन उनका असर हमारी सांसों में बरसों तक बाकी रहता है।
वेदांत और सिया की कहानी भी कुछ ऐसी ही थी।
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शुरुआत
उनकी शादी अरेंज थी, पर पहले दिन से ही उनके बीच एक अजीब-सी सहजता थी।
सिया को उसकी मुस्कान पसंद थी — और वेदांत को सिया की शांत आँखें।
धीरे-धीरे वो दो अजनबी, दो दोस्तों में बदल गए।
फिर दोस्ती ने प्यार का रूप लिया,
और दोनों को लगा — बस, अब सब ठीक रहेगा।
पर शादी के बाद जो “हम” था,
वो धीरे-धीरे “मैं” और “तुम” में बिखरने लगा।
वेदांत ऑफिस की व्यस्तता में खो गया,
और सिया अपने अकेलेपन में।
वो बातें जो कभी रातों तक चलती थीं,
अब बस एक लाइन में सिमट गईं —
“Dinner खा लिया?”
“हाँ, goodnight।”
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दरार
एक शाम सिया ने कहा,
“वेदांत, तुम बदल गए हो।”
वेदांत ने हँसकर जवाब दिया,
“शादी के बाद सब बदलते हैं।”
पर सिया को हँसी नहीं आई।
वो जानती थी कि “बदलना” और “दूर हो जाना” एक नहीं होता।
धीरे-धीरे दोनों के बीच की बातें खत्म होती गईं।
प्यार अब झगड़ों का रूप लेने लगा।
कभी बेमतलब के ताने,
कभी ego की दीवारें,
और बीच में दबा वो ‘हम’, जो अब कहीं खो गया था।
एक रात सिया ने कहा,
> “अगर किसी दिन मैं चली गई, तो याद रखना — मैंने हार नहीं मानी, बस थक गई थी।”
वेदांत ने कुछ नहीं कहा।
क्योंकि उस वक़्त उसे लगा —
वो बातें सिर्फ़ गुस्से में कही गई हैं।
पर सिया सच में थक चुकी थी।
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💔 अलगाव
एक सुबह जब वेदांत ऑफिस जाने को तैयार हुआ,
तो देखा — अलमारी आधी खाली थी।
टेबल पर एक खत रखा था —
> “वेदांत,
मैंने कोशिश की तुम्हें समझने की,
तुम्हारे साथ चलने की,
पर तुम हमेशा आगे निकल गए।
मैं पीछे रह गई — उस वक्त में, जहाँ हम ‘हम’ थे।
अब शायद मैं खुद को वापस पाना चाहती हूँ।
— सिया”
वो खत पढ़ते हुए वेदांत के हाथ काँप गए।
पर उसने कुछ नहीं किया।
वो बस सोचता रहा — शायद कुछ दिन में लौट आएगी।
पर वो नहीं लौटी।
और वेदांत कभी खुद से निकल नहीं पाया।
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सालों बाद
चार साल बाद,
एक शाम वही शहर, वही सड़क, वही पुराना कैफ़े —
वेदांत किसी क्लाइंट से मिलने गया था।
दरवाज़ा खोला — सामने सिया थी।
वो मुस्कुराई, बहुत हल्के से।
वो वही मुस्कान थी, पर अब उसमें प्यार नहीं,
बस सुकून था।
“कैसी हो?” वेदांत ने पूछा।
“अच्छी हूँ… और तुम?”
“जी रहा हूँ,” उसने कहा, लेकिन उसके स्वर में कुछ टूटा हुआ था।
उनके बीच पाँच मिनट की चाय थी —
और पाँच साल की चुप्पी।
सिया अब एक स्कूल में बच्चों को पढ़ाती थी।
उसने बताया, “बच्चे शोर मचाते हैं, पर उस शोर में सुकून है।”
वेदांत ने कहा, “मेरे घर में बहुत शांति है… पर उस शांति में सन्नाटा है।”
दोनों हँसे —
वो हँसी जो कभी उनके झगड़ों के बाद आती थी।
बस अब बीच में प्यार नहीं था।
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सच
सिया ने जाते-जाते कहा,
“वेदांत, अगर हम तब एक-दूसरे को थोड़ा और समझ पाते,
तो शायद आज भी साथ होते।”
वेदांत ने हल्की मुस्कान दी —
“हाँ, शायद।
पर अगर आज भी साथ होते,
तो शायद फिर भी खुश नहीं होते।”
उसने जाते-जाते पूछा,
“तुम खुश हो?”
सिया ने कहा,
> “हाँ… क्योंकि अब मैं खुद से नफ़रत नहीं करती।”
वो चली गई —
उसी चुप्पी में जिसमें वो सालों पहले चली गई थी।
बस फर्क इतना था कि अब दोनों ने ‘खुद’ को ढूँढ लिया था।
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अंत
वेदांत उसी कैफ़े की खिड़की से बाहर देखता रहा।
बारिश शुरू हो गई थी।
उसने धीरे से बुदबुदाया —
> “हम जो थे, अब नहीं हैं…
पर शायद वो ‘हम’ ही सबसे सच्चा था।”
उसने जेब से सिया का पुराना खत निकाला —
अब भी तह किया हुआ,
अब भी अधूरा।
कभी-कभी कुछ कहानियाँ खत्म नहीं होतीं,
बस रुक जाती हैं वहीं,
जहाँ दो लोग एक-दूसरे को समझ नहीं पाते —
पर फिर भी, हमेशा याद करते हैं।
- Tanya Singh