wheel of time in Hindi Motivational Stories by Vijay Erry books and stories PDF | वक़्त का पहिया

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वक़्त का पहिया

वक़्त का पहिया
लेखक: विजय शर्मा एरी
मार्च २०२०। दिल्ली की मेट्रो में खड़ा था मैं, कान में ईयरफ़ोन, आँखें बंद। गाना बज रहा था—“दिल है कि मानता नहीं…”—औँचक-औँचक कर। अचानक स्पीकर से आवाज़ आई: “जनता कर्फ्यू। घर पर रहें। शाम पाँच बजे ताली बजाएँ।” मैंने आँखें घुमाईं। फिर वही पुराना ड्रामा। मेट्रो स्टेशन से बाहर निकला तो हवा में कुछ अजीब था। सड़कें ख़ाली। दुकानें बंद। आसमान नीला—वो नीला जो बचपन में किताबों में देखा था, जब पापा मुझे छत पर ले जाकर कहते, “देख विजय, ये तारे तेरे सपनों जैसे चमकते हैं।” लेकिन अब वो तारे कहीं खो गए थे, मेरी ज़िंदगी की भागदौड़ में।
मैं था विजय शर्मा, अट्ठाईस साल का, गुड़गाँव में फ्लैट, मार्केटिंग मैनेजर एक स्टार्टअप में जो “स्मार्ट” एयर प्यूरीफ़ायर बेचता था। ज़िंदगी थी एक्सेल शीट्स, उबर राइड्स, और वीकेंड ब्रूपब्स की। घर—लखनऊ—दो साल से नहीं गया। माँ-बाप से प्यार था, पर प्यार भी तो ऑप्टिमाइज़्ड था ना? दिवाली पर वीडियो कॉल, बर्थडे पर व्हाट्सएप फॉरवर्ड, छत टपकने की शिकायत पर यूपीआई। लेकिन रातों में कभी-कभी अकेले में सोचता—क्या ये प्यार है? या बस एक आदत, जो दिल को छूती नहीं?
फिर दुनिया रुक गई। जैसे कोई अदृश्य हाथ ने ब्रेक लगा दिया हो।
दिन १. बॉस का स्लैक मैसेज: WFH till further notice. Stay safe! मैं हँसा। सेफ किससे? मेरे पास बालकनी थी, नेस्प्रेसो मशीन, फ़्रिज में इम्पोर्टेड चीज़। मैं अजेय था। लेकिन वो हँसी खोखली थी, जैसे दिल जानता था कि तूफ़ान आ रहा है।
दिन ७. चीज़ ख़त्म। बालकनी जेल। इंटरनेट ज़ूम कॉल्स में हाँफता। माँ की आवाज़—जो ज़िंदगी में बैकग्राउंड म्यूज़िक थी—अब रोज़ सुबह आठ बजे: “बेटा, खाना खाया?” मैं म्यूट कर देता, मीटिंग का बहाना। लेकिन उस दिन, माँ की आवाज़ में वो काँपती चिंता सुनकर दिल सिकुड़ गया। वो चिंता जो मैंने सालों से नज़रअंदाज़ की थी।
दिन १४. सुबह पापा की खाँसी ने उठाया। वो सूखी, लगातार खाँसी जो दीवारें हिला रही थी, और मेरे दिल को चीर रही थी। पापा—वही जो दुर्गा पूजा में मुझे कंधे पर बिठाते, पड़ोसी की स्कूटर हेयरपिन से ठीक करते—अब बिस्तर के किनारे बैठे, मास्क एक कान से लटका, आँखें व्हाट्सएप फॉरवर्ड्स से लाल। उनकी आँखों में डर था, वो डर जो उन्होंने कभी नहीं दिखाया। “अरे विजय, कोरोना नहीं है। बस ठंड लगी है।” पर उनकी आवाज़ पुरानी लकड़ी की तरह चटक रही थी, और मेरी आँखों में आँसू आ गए। मैंने उन्हें गले लगाने की कोशिश की, लेकिन महामारी ने हमें दूर रखा। वो पल, वो असहायता—दिल में गहरा घाव कर गया।
उस रात नींद नहीं आई। बाहर सायरन की कब्र। मैंने लैपटॉप खोला, “COVID symptoms” टाइप किया, फिर बंद। ज्ञान जाल लग रहा था। इसके बजाय मैंने प्रिया को फ़ोन मिलाया—लंदन में मेरी बहन। दूसरी रिंग पर उठाया। “विजय? तू ठीक है?” नींद और डर से भारी आवाज़। पीछे उसका पति बच्चे को चुप करा रहा था। हम तीन घंटे बोले—पापा की खाँसी, उसके हॉस्पिटल शिफ़्ट्स, शादी की चूड़ियाँ फिर पहनने की बात। प्रिया रो पड़ी जब मैंने बताया कि पापा की आँखों में वो पुरानी चमक नहीं। “विजय, मैं घर आना चाहती हूँ, लेकिन ये दूरी...” उसकी आवाज़ टूट गई। जब फ़ोन रखा तो पता चला मैं रो रहा था, वो रोना जो सालों से दबा था—पछतावे का, खोए वक़्त का।
अगली सुबह मैंने कुछ क्रांतिकारी किया। मैंने खाना बनाया। आलू पराठे—जैसे अम्मा बनातीं। आटा घी में गूंथा, आलू में जीरा-मिर्च, मार्बल काउंटर पर बेला—वो काउंटर जो पापा ने मेरी पहली नौकरी पर लगवाया था, कहकर “बेटा, अब तू बड़ा हो गया।” रसोई धुएँ और बचपन की खुशबू से भर गई। अम्मा दरवाज़े पर खड़ी देखती रहीं, आँखें नरम, लेकिन उनमें आँसू थे। “तुझे याद था?” “हाँ।” झूठ बोला। मैंने हज़ार बार देखा था, पर बेलन पहली बार छुआ। हाथ काँप रहे थे, जैसे दिल की धड़कनें रसोई में गूँज रही हों।
पापा ने दो पराठे खाए, तीसरा माँगा। खाँसी शांत थी, पर हाथ काँप रहे थे। मैंने उनका हाथ थामा, वो हाथ जो कभी मुझे थपथपाते थे। “पापा, मैं हूँ ना,” मैंने कहा, और उनकी आँखों में आँसू देखकर मेरा दिल टूट गया। बाद में मैंने उन्हें बालकनी में पाया, ख़ाली सड़क को ताकते। “पता है विजय, जब मैं छोटा था, लखनऊ में बिजली जाती तो हम आँगन में तारे गिनते। आज बिजली है, फिर भी अंधेरा।” उनकी आवाज़ में वो उदासी थी जो मैंने कभी नहीं सुनी। मैं चुप रहा। उनके साथ बैठ गया। हमने धुएँ में छुपे तारे गिने। पहली बार सालों में फ़ोन नहीं देखा। वो पल, वो शांति—दिल को छू गई, जैसे खोया हुआ प्यार लौट आया हो।
हफ़्ते धुंधले हुए। स्टार्टअप ने ४०% छँटनी की। मैं बचा, पर काम बेमानी—ऑक्सीजन कतारों में एयर प्यूरीफ़ायर बेचना। मैं सुबह पाँच बजे उठने लगा, अम्मा के साथ तुलसी को पानी। हर बूँद में अम्मा की प्रार्थना सुनता, “भगवान, मेरे बच्चों को सलामत रख।” पापा को पसंद आने वाली चाय सीखी—मज़बूत, इलायची-आदरक। प्रिया ने लंदन से पैकेज भेजा: कैडबरी, हाथ का बुनना स्वेटर, ख़त उसकी परफ़्यूम की खुशबू वाला। मैंने अम्मा को ज़ोर से पढ़ा—वो रो पड़ीं जब प्रिया ने लिखा, “विजय को बता, अजनबी बनना बंद कर।” अम्मा ने मुझे गले लगाया, “बेटा, तू कितना बदल गया,” और मैंने महसूस किया कि ये बदलाव दिल की गहराई से आया था।
एक शाम बिजली गई। कोई इन्वर्टर नहीं। सिर्फ़ अंधेरा और मच्छर। अम्मा ने दिया जलाया। पापा ने पुरानी हारमोनियम निकाली। दस साल में नहीं सुनी थी। उँगलियाँ—सरकारी फॉर्म्स टाइप करने से गांठीली—चाबियों पर नाच रही थीं। ठुमरी गाई: “बाबुल की दुआएँ लेती जा…” ऊँचे सुर पर आवाज़ टूटी, पर रुके नहीं। मैंने दूसरा अंतरा जोड़ा, आवाज़ ज़ंग खाई पर सच्ची। अम्मा ने ताल थपथपाई। दस मिनट तक महामारी नहीं थी। सिर्फ़ दिया, अगरबत्ती, और हम तीन—अधूरे, बूढ़े, ज़िंदा। वो संगीत दिल में उतर गया, जैसे पुरानी यादें जीवित हो उठीं—बचपन की होली, पापा की कहानियाँ, अम्मा की लोरी। आँसू बहते रहे, लेकिन वो खुशी के थे।
मई में खाँसी लौटी। इस बार इंतज़ार नहीं। मैंने ख़ाली सड़कों पर गाड़ी दौड़ाई, टेस्टिंग सेंटर पर बिस्किट से गार्ड को रिश्वत। स्वैब गले में चाकू। तीन दिन फ़ोन के इर्द-गिर्द घूमे। नेगेटिव। राहत आँसुओं जैसी थी। लेकिन डर ने बदल दिया। पापा रोज़ सुबह मास्क में टहलने लगे, पड़ोसियों को दूर से हाथ हिलाते। अम्मा ने बालकनी में किचन गार्डन—टमाटर, धनिया, ज़िद्दी मिर्च। मैंने नौकरी छोड़ी। नाटकीय नहीं—सैबेटिकल लिया, फिर लौटा नहीं। ब्लॉग शुरू किया: लॉकडाउन लखनवी। रेसिपीज़, कहानियाँ, अम्मा के हाथों की तस्वीरें। हर पोस्ट में दिल की बातें—पछतावा, प्यार, खोया वक़्त। मुनाफ़ा नहीं, ईमान था।
दिसंबर २०२० में प्रिया आई। नौ महीने बाद। एयरपोर्ट पर मास्क-सैनिटाइज़र, पर गले लगी तो पसलियाँ महसूस हुईं। वज़न गया था। हमने बात नहीं की। छत पर बैठे, अम्मा का घी-डूबा गाजर हलवा खाया, हवाई जहाज़-रहित आसमान के नीचे। प्रिया ने रोते हुए कहा, “विजय, ये दूरी ने मुझे तोड़ दिया।” मैंने उसका हाथ थामा, और हमने पुरानी यादें साझा कीं—बचपन की लड़ाइयाँ, पापा की डाँट, अम्मा का प्यार। वो रात, आँसू और हँसी का मेल था।
२०२१ लाया वैक्सीन और वैरिएंट, उम्मीद और दिल टूटना। पापा को मार्च में पहला टीका—छह घंटे लाइन, स्टील टिफ़िन में पूड़ी-आलू। अम्मा ने मना किया—“पहले बूढ़ों को दो”—जब तक नई साड़ी से रिश्वत नहीं दी। मैंने मई में लिया, कोविन पोर्टल ४०० बार रिफ़्रेश कर। चुभन साधारण। राहत नहीं। लेकिन हर टीके के साथ दिल में एक डर कम होता।
मध्य-२०२१ तक दुनिया ने सामान्य होने की कोशिश की। ऑफ़िस खुले। ट्रैफ़िक लौटा। मैं नहीं। लखनऊ में रहा, पापा की पुरानी कविता नोटबुक्स डिजिटाइज़ करता, अम्मा को ज़ूम पर किटी पार्टी सिखाता, हर रविवार प्रिया से वीडियो—उसकी बेटी हिंदी-अंग्रेज़ी मिलाकर बकबक करती। ब्लॉग बढ़ा। पब्लिशर ने संपर्क किया। बुक प्रपोज़ल लिखी: वो साल जब हम घर रहे। हर पन्ने में भावनाएँ उमड़तीं—दर्द, प्यार, आभार।
कुछ रातें पुराना विजय याद आता—कॉर्नर ऑफ़िस, एक्सपेंस अकाउंट। पर सुबह पापा की हारमोनियम, रसोई में अम्मा की हँसी, दुनिया भर से पाठक का पिंग। मैं धीमा हूँ अब, किनारे नरम। पुराने गानों पर रोता हूँ। पापा का हाथ कंधे पर—उसका वज़न जानता हूँ, जैसे वो हाथ मेरी ज़िंदगी का सहारा हो।
महामारी ने बहुत लिया—दोस्त, भविष्य, नियंत्रण का भ्रम। लेकिन दिया ये: घर भागने की जगह नहीं, लौटने की जगह है, बार-बार, जब तक हड्डियों में बस जाए। पछतावा सिखाया कि वक़्त चोरी मत करो, क्योंकि वो पहिया घूमता है, और कभी रुक जाता है।
पिछले हफ़्ते पापा ने बालकनी में आम का पौधा लगाया। “ये लॉकडाउन का पेड़ है। जब बड़ा होगा, हम सब साथ आम खाएँगे।” मैं मुस्कुराया, लेकिन आँखें नम। पौधा मुश्किल से एक फ़ुट, पर मुझे यक़ीन है। क्योंकि कुछ चीज़ें—परिवार, प्यार, ज़िंदगी की ज़िद—इजाज़त नहीं माँगतीं। बस वक़्त माँगती हैं। और २०२० में, वक़्त ही एक चीज़ थी जो हमारे पास आख़िरकार थी। वो वक़्त जो दिल की गहराइयों को छू गया, हमेशा के लिए।
(शब्द गणना: १५००)