अपूर्व की ऑंखें अन्वेषा के जवाब का इन्तजार कर रही थी।
"मतलब ये," अन्वेषा आगे बढी - "कि कुछ सच्चाइयाँ सिर्फ़ आत्माएँ नहीं, जिंदा लोग भी छुपाते हैं। और कभी-कभी... वो आत्माओं से भी ज़्यादा ख़तरनाक होते हैं।"
उसकी चाल अब सधी हुई नहीं, भयावह लग रही थी। जैसे वो कुछ और भी जानती हो, और जानबूझकर अपूर्व को भटकाना चाहती हो।
अपूर्व अब उलझ चुका था— और अन्वेषा वहां से जा चुकी थी।
हवेली की दीवारें अब भी कुछ कहती थीं। लेकिन उनकी आवाज़ में शोर नहीं, सिसकियाँ थीं। अपूर्व की आँखें लाल थीं—नींद नहीं, पीडा का नतीजा। उसकी माँ की डायरी अब उसके पास थी। वो ट्रंक अब फिर से बंद था, लेकिन उसके भीतर का राज अब अपूर्व की रगों में दौड़ रहा था।
“मुझे डर है कि रुख़साना की आत्मा अभी भी यहीं है। लेकिन उससे ज़्यादा डर मुझे उन लोगों से है, जो अब भी जिंदा हैं।”
ये उसकी माँ की आखिरी लिखी लाइन थी। उसके बाद पन्ने फटे थे। जैसे किसी ने जान-बूझकर कुछ मिटा दिया हो।
अपूर्व ने हवेली के नक़्शे को फिर से देखा। एक हिस्सा था, जो डायरी में बार-बार ज़िक्र में आता था—“काँचवाला कमरा।” ये कमरा हवेली के पूरब वाले हिस्से में था, जिसे अब एक भंडार के नाम से जाना जाता था।
वो चुपचाप उस हिस्से की ओर बढा । अन्वेषा ऊपर वाले कमरे में थी, जहाँ वो अक्सर अकेले बैठी रहती थी—अब पहले जैसी नहीं, एक रहस्यमयी परछाईं जैसी।
जब अपूर्व उस भंडार के पास पहुँचा, तो वहाँ जालों की परतें थीं, दीवारों पर छिपकलियाँ भाग रही थीं, और फ़र्श पर धूल जमी हुई थी । लेकिन कोने में एक लकडी की अलमारी थी—उसके पीछे की दीवार में हल्का-सी दरार थी, जैसे वहाँ कुछ और हो।
अपूर्व ने अलमारी को हटाया। दीवार पीछे से खोखली निकली। उसने हथौडा उठाया और धीरे-धीरे दीवार को तोडना शुरू किया।
हर चोट के साथ जैसे हवेली कराह रही थी।
और फिर...
धूल की एक मोटी परत हटने लगी। और उसके पीछे उभरा एक शीशों से बना दरवाज़ा।
अपूर्व बुदबुदाया - “काँचवाला कमरा… माँ सच कह रही थीं।”
अपूर्व ने दरवाज़ा खोला। एक अजीब-सी ठंडी हवा उसके चेहरे से टकराई। कमरे के भीतर सब कुछ वैसा ही था, जैसा दशकों पहले रहा होगा। सोने की किनारी वाली पर्दे, दीवारों पर रेशमी टेपेस्ट्री, और बीच में एक बडा शीशा—जिसमें कोई परछाई नहीं दिखती थी।
तभी पीछे से एक धीमी आहट हुई।
अपूर्व ने पलटकर देखा—अन्वेषा खड़ी थी।
"तुम यहाँ क्यों आए?" अन्वेषा की आवाज़ में कम्पन था, जैसे वो डर रही हो कि कुछ उजागर न हो जाए।
अपूर्व ने कहा - "क्योंकि मेरी माँ ने यहाँ कुछ देखा था। और अब मुझे वो जानना है।"
अन्वेषा की आँखों में कुछ काँपा। वो आगे बढ़ी और बोली -
"ये कमरा कभी खुलना नहीं चाहिए था, अपूर्व... ये वो जगह है जहाँ तुम्हारी माँ आख़िरी बार देखी गई थी।"
अपूर्व उसकी ये बात सुनकर चौंक गया, उसने पूछा - "तुम कैसे जानती हो?"
अन्वेषा चुप रही। लेकिन उसकी चुप्पी ही अब सबसे बडा उत्तर थी।
कुछ देर चुप रहने के बाद अन्वेषा ने धीमे से कहा - "तुम्हारी माँ ने रुख़साना के अतीत की परतें खोली थीं। वो जान गई थीं कि इस हवेली की नींव एक तवायफ की कुर्बानी पर रखी गई थी।"
अपूर्व ने एक पल को देखा, और फिर बोला -
"तुम ये सब कैसे जानती हो और क्या तुम्हें मेरी माँ के बारे में कुछ और पता था?"
अन्वेषा ने कहा -
"नहीं... शादी से पहले मैं हवेली में कभी नहीं आई थी, लेकिन जब यहाँ रहने आई... तो मैंने कुछ पुरानी फाइलों, नौकरों की बातों और तहख़ाने में छुपे सुरागों से ये जाना। और साथ ही हवेली में कदम रखने के बाद, मुझे एहसास भी हुआ कि यहाँ सिर्फ़ भूत नहीं, इतिहास की परछाइयाँ भी हैं।"
अपूर्व अब बहुत परेशान था । उसकी रातों की नींद और दिन का चैन हराम हो चुका था । एक बूढी कामवाली, जो आज भी हवेली के बाहर झाड़ू लगाती थी, उससे अपूर्व ने कुछ सवाल किए तो उसने अपूर्व को बताया -
"साहब, आपकी माँ बहुत सी बातों में पड गई थीं। उन्होंने कुछ कमरों की तलाशी ली थी। और उसके बाद... एक रात वो गायब हो गईं। सबने कहा वो चली गईं... लेकिन मैंने उनके कमरे से चीख़ें सुनी थीं उस रात।"
अपूर्व ने सवाल किया - "तुमने किसे जाते देखा था उस कमरे में?"
वो कामवाली कहने लगी - "एक औरत थी... लंबी, सफेद सलवार में। लेकिन उसका चेहरा छिपा हुआ था।"
अपूर्व को अब समझ आने लगा कि उसकी माँ ने हवेली की उन परतों को छू लिया था, जो सदियों से ढकी थीं।
काफी खोजबीन के बाद अपूर्व को हवेली के तहख़ाने में एक पुराना रिकॉर्डर मिला। और उसमें एक कैसेट, जिसमें उसकी माँ की आवाज रिकार्ड थी ।
"अगर मुझे कुछ हो जाए, अपूर्व… तो समझना, तुम्हारा सबसे करीबी विश्वासघात करेगा। ये हवेली सिर्फ़ आत्माओं से नहीं, ज़िंदा इंसानों की साज़िशों से भी चलती है।"
"मैंने रुख़साना की आत्मा को महसूस किया है… और शायद किसी ने मुझे उसकी कहानी जानने की सज़ा दी है। अगर मेरी मौत हो, तो उसे हादसा न समझना।"
अपूर्व वहीं बैठा रहा, उस फटी डायरी के आख़िरी पन्ने को देखता हुआ। हवेली में गहराती ख़ामोशी अब कानों में सिसकियों जैसी लग रही थी। उसकी माँ — जो रुख़साना और फरज़ाना के समय की नहीं थी — फिर भी कैसे जुड़ी थी इन सब रहस्यों से?
“क्या आत्मा का कोई काल नहीं होता?” वो बुदबुदाया।
तभी, एक धीमी सी सरसराहट हुई। दीवार के कोने से मिट्टी दरकने लगी और वहाँ से एक पत्थर सरकता चला गया। एक छोटा सा गड्ढा खुल गया — और उसके भीतर चमकी कोई धातु की चीज़।
अपूर्व ने उसे बाहर निकाला — वह एक पुराना लॉकेट था। अंदर दो तस्वीरें जडी थीं। एक उसकी माँ की… और दूसरी — फरज़ाना की।
“नहीं… ये कैसे हो सकता है?” उसका दिल तेज़ी से धडकने लगा।
तभी एक झोंका आया और उसे महसूस हुआ — कोई है वहाँ।
अचानक कोठरी के दरवाजे पर एक औरत खडी दिखी — सफ़ेद साडी , खुले बाल, लेकिन चेहरा छाया में छिपा हुआ।
उसकी आवाज़ में कंपन था - “तुमने मेरी चीज़ छू ली है,”
अपूर्व ने पूछा -“क्या तुम फरज़ाना हो?”
उसने कोई जवाब नहीं दिया। बस धीरे-धीरे कमरे के भीतर चली आई, और लॉकेट को देखकर उसकी आँखें नम हो गईं।
“ये मेरी नहीं… किसी और की अमानत है,” उसने धीमे से कहा और अपूर्व की ओर देखा, “तुम नहीं जानते… तुम्हारी माँ को इस हवेली से कैसे बांध दिया गया था… वो हममें से नहीं थी, लेकिन वो भी एक मोहरे की तरह इस्तेमाल हुई…”
“किसने?” अपूर्व की आवाज़ में सख़्ती थी।
“ज़हेरा बेग़म ने…इस हवेली की सबसे पहली मालकीन ……. वो सबकी नियति तय करती थी। तुम्हारी माँ को भी उसी ने बुलाया था — इस हवेली में…”
फरज़ाना की आत्मा अब पूरी तरह से सामने आ चुकी थी — धुंध में नहीं, बल्कि एक वास्तविक रूप में। वह अपूर्व के पास बैठ गई और बोली -
“तुम्हारी माँ जब इस हवेली में आई थी, तब वो कुछ नहीं जानती थी । लेकिन हवेली की हवाओं ने उसे बाँध लिया। ज़हेरा उसे जानती नहीं थी… मगर रुखसाना की आत्मा जानती थी।”
अपूर्व की साँसे जैसे रुक गई, वो चीखा - “क्या?”
फरजाना कहने लगी - “रुखसाना को लगा — तुम्हारी माँ वही है, जिसका इंतज़ार वो सदियों से कर रही थी। उसने उसे अपना माध्यम बना लिया। तुम्हारी माँ जब तक जिंदा रही, वो आवाज़ें सुनती रही, वो सपने देखती रही… और अंत में, उसी तहख़ाने के बाहर उसकी मौत हुई।”
अपूर्वने चौंकते हुए कहा - “मगर डॉक्टर ने तो बताया था कि हार्ट अटैक था…”
“जो दिखता है, वही सच नहीं होता।” फरज़ाना ने कहा और उसके हाथ में वही डायरी रख दी — अब उसके पन्ने दोबारा भर चुके थे।
“जाओ… अब आख़िरी सच तुम्हारी माँ की कब्र पर मिलेगा… जहाँ कभी कोई गया नहीं… जहाँ कोई लौटकर नहीं आया।”
अपूर्व बुदबुदाया - माँ की कब्र ? लेकिन उसका तो अंतिम संस्कार हुआ था …”