“संगिनी”
आस्था के कमरे में आज अजीब-सी हलचल थी। दीवार पर टंगी घड़ी की टिक-टिक उसे बार-बार याद दिला रही थी कि शाम होने वाली है। माँ ने हल्के गुलाबी रंग की साड़ी निकालकर बिस्तर पर रख दी थी और खुद आईने के सामने खड़ी होकर उसके बाल सलीके से गूँथ रही थीं।
“इतनी चुप क्यों है?” माँ ने आईने में उसकी आँखों से झाँकते हुए पूछा।
आस्था ने हल्की-सी मुस्कान ओढ़ ली। “बस… ऐसे ही।”
असल में ‘ऐसे ही’ कुछ नहीं था। आस्था एक बड़े मीडिया घराने में काम करती थी। कैमरे, हेडलाइंस और डेडलाइंस के बीच रहने वाली आस्था खुद की जिंदगी में हमेशा शब्दों की कमी महसूस करती थी। वह अंतर्मुखी थी, शर्मीली भी, और अपने मन की बात कहने से पहले सौ बार सोचने वाली।
आज उसके लिए रिश्ता देखने बड़े घराने से लोग आ रहे थे।
लड़का - आरव मल्होत्रा।
एक मल्टिनैशनल कंपनी का सीईओ। नाम जितना भारी, व्यक्तित्व उतना ही सधा हुआ—कम से कम जितना लोगों ने बताया था।
ड्रॉइंग रूम में चाय की खुशबू फैल चुकी थी। पापा अख़बार छोड़कर सीधे बैठ गए थे, माँ ने परदों को ठीक किया, और आस्था को आवाज़ दी गई।
“आस्था, बेटा… आ जाओ।”
आस्था ने गहरी साँस ली और कमरे में दाख़िल हुई। नजरें अपने आप झुक गईं। सामने बैठे लोग मुस्कुरा रहे थे—संयमित, सधे हुए मुस्कान।
और वहीं, सोफे के कोने पर बैठे आरव ने पहली बार उसे देखा।
नीली साड़ी, हल्का मेकअप, और आँखों में झिझक—पर उस झिझक में भी एक सादगी थी, जो सीधे दिल तक उतर जाती है।
“नमस्ते,” आरव ने खुद कहा।
“न… नमस्ते,” आस्था की आवाज़ धीमी थी।
कुछ देर औपचारिक बातचीत चली। पापा और आरव के पिता बिज़नेस और जिम्मेदारियों पर बात करते रहे। माँ लोग रिश्तों और परंपराओं में उलझे रहे।
फिर वही क्षण आया—
“बच्चे आपस में थोड़ी बात कर लें,” आस्था की माँ ने कहा।
आस्था का दिल जोर से धड़का।
उन्हें बालकनी में भेज दिया गया।
बालकनी में हल्की ठंडी हवा चल रही थी। नीचे सड़क पर गाड़ियों की आवाज़ और ऊपर आसमान में डूबता सूरज।
आरव ने बात शुरू की, “आप… मीडिया में काम करती हैं?”
आस्था ने सिर हिलाया। “हाँ।”
“काफ़ी इंटरेस्टिंग फील्ड है। आप एंकरिंग करती हैं या बैकएंड?”
“बैकएंड,” उसने धीरे से कहा।
आरव मुस्कुराया। “शायद इसीलिए आप कैमरे के सामने नहीं, पर हर कहानी के पीछे होती हैं।”
आस्था ने पहली बार उसकी तरफ़ देखा। उसकी आँखों में जजमेंट नहीं था, बस सहज जिज्ञासा।
“आप कम बोलती हैं,” आरव ने बिना शिकायत के कहा।
आस्था हल्का-सा सकपका गई। “मुझे… सुनना अच्छा लगता है।”
“अच्छा है,” उसने सिर हिलाया, “क्योंकि मैं कभी-कभी ज़्यादा बोल जाता हूँ।”
आस्था के होंठों पर अनजाने में मुस्कान आ गई।
पहली मुलाकात यूँ ही खत्म हो गई—बिना किसी बड़े वादे के, लेकिन बिना किसी खटास के भी।
सगाई तय हो गई।
घर में हल्की नोंक-झोंक शुरू हो गई—कपड़ों को लेकर, तारीखों को लेकर, मेहमानों की लिस्ट को लेकर।
आस्था अपनी दुनिया में ही रहती, और आरव हर बार उसे बातचीत में शामिल करने की कोशिश करता।
एक दिन उसने फोन पर कहा, “आस्था, आप अपनी पसंद भी बताया करें।”
“आप जो ठीक समझें,” आस्था ने आदतन जवाब दिया।
आरव हँस पड़ा। “ये जवाब शादी के बाद नहीं चलेगा।”
“क्यों?” आस्था ने हिम्मत जुटाकर पूछा।
“क्योंकि तब मैं चाहता हूँ कि मेरी संगिनी सिर्फ़ साथ चले, अपनी राह भी बताए।”
उस शब्द ने आस्था को छू लिया—संगिनी।
शादी के बाद की पहली सुबह।
आस्था रसोई में चाय बना रही थी। नई जगह, नए लोग, नई जिम्मेदारियाँ—सब कुछ थोड़ा भारी लग रहा था।
आरव पीछे से आया। “चाय में चीनी कम है,” उसने मज़ाकिया शिकायत की।
आस्था घबरा गई। “माफ़ कीजिए, अगली बार—”
“अरे,” उसने हँसते हुए कहा, “शिकायत नहीं, आदत डाल रहा हूँ।”
आस्था ने पहली बार खुलकर कहा, “मुझे मीठी चाय पसंद नहीं।”
आरव ने चौंककर उसकी ओर देखा, फिर मुस्कुरा दिया। “तो फिर घर में दो तरह की चाय चलेगी।”
छोटी-छोटी बातों में नोंक-झोंक होने लगी—कभी देर से घर आने पर, कभी आस्था की चुप्पी पर, तो कभी आरव की ज़्यादा बातें करने की आदत पर।
एक दिन आस्था ने धीमी आवाज़ में कहा, “आप हर बात सबको क्यों बता देते हैं?”
आरव ने गंभीर होकर कहा, “और आप हर बात खुद में क्यों रख लेती हैं?”
कमरे में थोड़ी खामोशी छा गई।
फिर आरव ने उसका हाथ थाम लिया। “हम दोनों बीच का रास्ता सीखेंगे।”
आस्था की आँखें भर आईं।
वक़्त के साथ आस्था ने बोलना सीखा, और आरव ने सुनना।
परिवार में उसकी शांति एक सुकून बन गई, और आरव की बातें रिश्तों में सेतु।
एक शाम आस्था ने खुद कहा, “कल ऑफिस में मेरी स्टोरी छपी।”
आरव ने गर्व से उसकी तरफ़ देखा। “मेरी संगिनी… अब सिर्फ़ मेरी नहीं, खुद की पहचान भी है।”
आस्था मुस्कुरा दी—इस बार बिना झिझक के।
क्योंकि रिश्ते सिर्फ़ बोलने या चुप रहने से नहीं चलते,
बल्कि साथ निभाने से चलते हैं।
और आस्था के लिए आरव सिर्फ़ पति नहीं,
उसका संगिनी के रूप में साथी बन चुका था।