सुबह गाँव में कुछ अलग ही तरह का उजाला था। रात की भारी चुप्पी के बाद यह रोशनी मानो हल्की-सी राहत जैसी लगी। मुर्गे की आवाज़, दूर किसी घर में बर्तन बजने की ध्वनियाँ—कुछ-कुछ सामान्य-सा माहौल। बच्चों की नींद खुलते ही दोनों की एक ही ज़िद शुरू हो गई—स्कूल जाना है।
आरव तो ख़ास तौर पर उत्साहित था। “पापा, गाँव का स्कूल देखना है,” उसने आँखें चमकाते हुए कहा। मायरा भी नए बच्चों से मिलने के लिए उतावली थी। निशिका ने हँसते हुए कहा, “चलो, जाने दो। दिन में तो सब ठीक ही लगता है इस गाँव में।”
मैंने अपनी सर्विस हैंडगन कंधे पर ठीक की और ऊपर से एक मोटा कोट डाल लिया ताकि हथियार दिखे नहीं। निशिका हल्की-सी शर्ट और घुटनों तक की स्कर्ट में तैयार हुई—ब्रिटेन में बिताए उसके सालों की एक सहज छाप अब भी उसके पहनावे में दिखती थी।
हम कार में बैठकर धीमे धीमे गाँव के कच्चे पक्के रास्तों से होते हुए स्कूल की ओर निकल पड़े। रास्ते में गाँववाले दिन के उजाले में सामान्य से ज़्यादा सामान्य दिखाई दे रहे थे—मानो रात उनके लिए कोई अलग ही दुनिया हो, और सुबह होते ही वे फिर से साधारण दिनचर्या में लौट आते हों।
स्कूल की इमारत गाँव के बाकी हिस्सों से बिलकुल अलग थी—साफ़-सुथरी पक्की दीवारें, नीली खिड़कियाँ, और सामने एक छोटा हरा लॉन। जमालीपुरा की कच्ची गलियों और टेढ़ी छतों के बीच यह इमारत किसी दूसरे संसार की लग रही थी।
लेकिन असल विचित्रता स्कूल के बाहर थी—दो हथियारबंद सिपाही गेट पर खड़े थे, बंदूकें कंधे पर, नज़रें चौकन्नी।
मैंने भौंहें सिकोड़ीं। निशिका भी चौंक गई।
अंदर जाने पर दृश्य और भी अटपटा लगा—बरामदे में पाँच लठैत डंडे लिए तैनात थे। दिन की उजली धूप में यह सुरक्षा सामान्य लग सकती थी, पर फिर भी कुछ तो था जो सामान्य नहीं था।
मैंने एक सिपाही से पूछा, “इतनी सुरक्षा क्यों? गाँव का स्कूल है… इतनी कड़ी निगरानी किसलिए?”
उसने हल्की-सी मुस्कान दी, “पिछले कुछ महीनों में जंगली जानवरों के हमले हुए हैं। बच्चों की सुरक्षा सबसे ज़रूरी है।”
उसकी बात ठीक लगी—पहाड़ी इलाकों में ऐसा होना अनसुना नहीं। पर फिर भी, उनकी नज़रों में कुछ बेचैनी थी… जैसे वे किसी और ही चीज़ पर नज़र रख रहे हों।
हम आरव और मायरा को कक्षा तक लेकर गए। कक्षाओं की दीवारों पर रंगीन चार्ट टंगे थे, बच्चे खिलखिला रहे थे—अंदर का माहौल हैरान कर देने वाला सहज था। जैसे इस इमारत की चारदीवारी के भीतर गाँव का अंधेरा कोई असर ही नहीं डाल पाता।
क्लास-टीचर, एक युवा महिला, मुस्कुराते हुए बोली, “वाह, आज शहर के बच्चे हमारे गाँव के स्कूल का भी मज़ा चखेंगे।”
आरव और मायरा तुरंत घुल-मिल गए। और शायद पहली बार, जमालीपुरा में मुझे डर बिलकुल नहीं लगा।
दिन की रोशनी, सख़्त सुरक्षा, और बच्चों की हँसी—इन सबने माहौल को हल्का और सुरक्षित बना दिया था। हमने बच्चों को वहीं छोड़ दिया।
बाहर निकलते हुए हल्की धूप पसरी हुई थी और हवा में ताज़गी थी—रात की बेचैनी जैसे घुलकर गायब हो गई थी।
तभी निशिका ने अचानक कहा, “रंजीत, मुझे वो नदी देखनी है… मौसी कह रही थीं, गाँव की सबसे सुन्दर जगह वही है।”
मैंने उसकी ओर देखा—आँखों में उत्सुकता थी, चेहरे पर हल्की चमक। रात का डर मानो उसके चेहरे से मिट चुका था।
मैंने कहा, “चलो देखते हैं। बच्चे यहाँ सुरक्षित रहेंगे… थोड़ी देर में ले आएँगे।”
हम दोनों कार में बैठे नदी की ओर निकल पड़े—अनजान इस बात से कि जमालीपुरा की असली सच्चाई… पानी के उस किनारे हमारा सामना करने वाली थी।