The Love That Was Incomplete - Part 19 in Hindi Horror Stories by Ashish Dalal books and stories PDF | वो इश्क जो अधूरा था - भाग 19

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वो इश्क जो अधूरा था - भाग 19

अपूर्व के सवाल पर फरजाना जोर से हंस दी और बोली - “वो अधूरा सच था, तुम्हारी माँ दफन हुई थी ।”
अपूर्व, डायरी और लॉकेट लेकर हवेली के सबसे पिछले हिस्से में गया। एक बाड थी — जंग लगी, टूटी-फूटी। उसके पार एक अकेली क़ब्र थी, जिस पर कोई नाम नहीं था।
उसने घास हटा कर देखा — पत्थर पर लिखा था - 
"अनुराधा . - वो जिसे पहचाना नहीं गया"
“अनुराधा ?” अपूर्व हैरान था। वो बुदबुदाया - “अनुराधा - मेरी माँ “ 
तभी हवा में फिर वही आवाज़ आई — “बेटा… अब तो मेरी तलाश पूरी करोगे ना?”
और उस क्षण अपूर्व की आँखों के आगे एक तेज़ रोशनी चमकी — जैसे सारा अतीत, सारा वर्तमान, और सारे अधूरे रिश्ते एक साथ उसके ज़हन में समा गए हों…
अपूर्व बाड के उस पार झुका रहा… हवा अब काँपती नहीं थी, बल्कि थमती सी लग रही थी। ।
तभी कब्र की मिट्टी एकाएक कुछ सरकी… और पत्थर के नीचे एक हल्की सी दरार से कुछ चमका।
अपूर्व ने काँपते हाथों से मिट्टी हटाई — वहाँ एक छोटा सिंदूरी रंग का मेटल केस था, जंग लगा, लेकिन अब भी मज़बूत।
उसने केस खोला — उसमें एक चिट्ठी थी। उसकी माँ की लिखी हुई।
“अगर ये पत्र तुम पढ़ रहे हो, अपूर्व, तो शायद मैं अब इस दुनिया में नहीं हूँ।
 लेकिन ध्यान रखना — मैंने तुम्हें इस हवेली से दूर रखने की पूरी कोशिश की थी।
 यह हवेली मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी।
 मैं यहाँ नहीं रहना चाहती थी पर तेरे पापा माने नहीं … और फिर रुख़साना की परछाईं मेरे भीतर उतर गई।
 मैं वो सब महसूस करने लगी जो मैंने कभी जिया ही नहीं था —
 एक अधूरा प्रेम, एक कटा हुआ गला, और एक वादा जो पूरा न हो सका…
 अगर मैं कभी अचानक बदल गई थी, चुप रहने लगी थी, तो वो मैं नहीं थी…
 वो ‘वो’ थी।
 मेरे जाने के बाद भी, ये हवेली तुम्हें पुकारेगी।
 पर याद रखना — तुम्हारी नींदें उसी दिन छिन जाएंगी जिस दिन तुमने इस अतीत को गले लगाया।
 अब फैसला तुम्हारे हाथ में है।”
अपूर्व वहीं बैठ गया — उसकी आँखें अब गीली नहीं थीं, लेकिन चेहरा सफेद पड गया था ।
 माँ, जिसे वह हमेशा एक शांत, सहज महिला समझता था — वो भीतर ही भीतर एक परछाईं की गुलाम थी?
रुख़साना — वो नाम फिर से ज़हन में गूंजा।
 और तभी, हवा में कोई सरसराया…
“अपूर्व…”
वह आवाज़ माँ की थी — लेकिन वह आवाज़ कब्र से नहीं, हवेली की छत से आ रही थी।
वह पलटा और भागते हुए हवेली की ओर दौडा ।
अपूर्व हवेली के उस हिस्से में पहुँचा जो हमेशा बंद रहता था — ऊपर का उत्तरी कमरा, जहाँ बचपन में उसकी माँ कभी भी नहीं जाने देती थी।
 आज वहाँ का दरवाज़ा खुला था — खुद-ब-खुद।
कमरे के अंदर एक पुराना झूमर, एक बड़ा दर्पण, और कोने में रखी सिलाई मशीन थी। दीवारों पर जगह-जगह धागों से बुनी आकृतियाँ थीं — उनमें कुछ चेहरे पहचाने जा सकते थे।
एक चेहरा — रुख़साना का।
दूसरा — फरज़ाना।
तीसरा — अनुराधा, उसकी माँ।
और चौथा चेहरा — अन्वेषा का!
वो चिल्लाया - “नहीं… यह कैसे संभव है?”
तभी दर्पण में कुछ हिलने लगा। वह पास गया।
दर्पण में वह अकेला नहीं था।
उसके बगल में एक औरत खडी थी — लंबा घूँघट, आँखें काजल से भरी, लेकिन चेहरा साफ़… और वह थी — अन्वेषा, मगर उसकी आँखों में कुछ और था।

“तुम अब भी नहीं समझे, अपूर्व?” उस परछाई ने कहा।
अपूर्व बोला - “अन्वेषा…?”
अन्वेषा बोली - “नहीं… अब मैं वो नहीं रही। अब मैं वो हूँ, जिसे तुमने कभी जाना ही नहीं…”
दर्पण थोडा हिला — और अपूर्व को लगा जैसे वह समय के भीतर खींचा जा रहा है।
वह उन्नीस सौ चालीस के एक शाम में पहुँच चुका था। हवेली वही थी — मगर एक रौनक के साथ।
सामने से एक औरत भागी चली आ रही थी — रुख़साना।
उसके पीछे एक आदमी — “आग़ाज़ ख़ान!” — वह नाम अपूर्व को याद था।
और उसी पल किसी ने रुख़साना को पकडा , उसका गला दबाया… वो वही तहख़ाना था जहाँ अपूर्व की माँ की मौत हुई थी।
“ये सब मैं क्यों देख रहा हूँ? मैं कौन हूँ?” अपूर्व चीखा।
तभी एक बूढी औरत की फुसफुसाती आवाज़ गूंजी — “तू वही है जो अधूरा रहा… तू ही आग़ाज़ है… और तू ही उसकी अंतिम माफ़ी है।”
अपूर्व ज़मीन पर गिर पडा । तेज़ साँसें, दिल की धडकनों से तेज़ वह रहस्य…
तभी कमरे में में एक औरत आई, जिसकी चाल लडखडा रही थी , पर आँखें बहुत तेज़ थीं।
उसने कहा - “मैं ज़हेरा बेग़म हूँ,” “मुझे लगा था, तुम कभी नहीं आओगे… पर अब जब आ गए हो, तो जाओगे नहीं…”
“मैं ज़हेरा बेग़म हूँ,” उसकी आवाज़ भारी थी, जैसे सदियों का बोझ उसकी साँसों में पल रहा हो।
 “तुम्हें शायद याद न हो… लेकिन मैंने तुम्हें पहले भी देखा है, आग़ाज़।”
अपूर्व का शरीर जैसे जम गया। “मैं अपूर्व हूँ… आप किस आग़ाज़ की बात कर रही हैं?”
ज़हेरा बेग़म धीरे-धीरे आगे बढी और सिलाई मशीन के पास रखे लकड़ी के संदूक की ओर इशारा किया।
“तुम्हारे पिता की आखिरी निशानी उस संदूक में है… पर उससे पहले, तुम्हें ये जानना ज़रूरी है कि रुख़साना की मौत एक इत्तिफ़ाक़ नहीं थी। फरज़ाना ने उसे मारा था… और आग़ाज़ ने सब कुछ होते हुए भी… कुछ नहीं किया।”
अपूर्व को झटका लगा — “नहीं… ये सच नहीं हो सकता…”
“सच तो वो होता है जिसे हम वर्षों तक झुठलाते हैं,” ज़हेरा ने कहा, “और अब वो सच लौट आया है — तुम्हारे रूप में।”
अपूर्व ने काँपते हाथों से लकडी का संदूक खोला।
अंदर एक पुरानी किताब थी — "रुख़साना की जि़न्दगी की आखिरी रातें" — हाथ से लिखी गई, स्याही अब भी महकती थी।
 कुछ पन्नों के कोने जल चुके थे, लेकिन एक वाक्य अब भी स्पष्ट था:
“अगर कोई फिर लौटे… मेरी रूह से माफ़ी माँगने… तो मैं उसके इंतज़ार में हूँ…”
अपूर्व ने पूछा - “ये रुख़साना ने खुद लिखा था?” 
“नहीं,” ज़हेरा बोलीं, “ये तुम्हारी माँ ने लिखा था… अनुराधा ने।”
“तुम्हारी माँ कभी रुख़साना को नहीं जानती थीं… लेकिन जब वो यहाँ आईं, उन्हें ये हवेली सौंप दी गई — और उसी रात उन्हें पहली बार उस तहख़ाने से किसी के गाने की आवाज़ सुनाई दी। ‘बेख़ुदी में खोया दिल...’”
“उन्हें लगा कोई पुरानी रिकॉर्डिंग है, पर जब उन्होंने पीछे मुडकर देखा, तो रुख़साना खडी थी — पूरी सफ़ेद पोशाक में, आँखों से आँसू बहते हुए। रुख़साना की रूह अपनी अधूरी कहानी किसी ऐसे में ढूंढ रही थी जो उसे पूरी कर सके। तुम्हारी माँ का शरीर… बस एक माध्यम बन गया था ।”
अपूर्व ने पूछा -“क्या मेरी माँ मुझसे कुछ छिपा रही थीं?” उसकी आवाज़ टूटी हुई थी।
“नहीं,” ज़हेरा बोलीं, “वो तुम्हें बचा रही थीं… और उसी कोशिश में खुद खो गईं।”
अचानक अपूर्व को होश आया — “अन्वेषा कहाँ है?”
ज़हेरा बेग़म की आँखें झुकीं, “वो अब हवेली में नहीं है…”
अपूर्व चौंका - “क्या?!”
जहेरा ने आगे कहा - “तुम्हारी माँ ने जब हवेली छोडी थी, उन्होंने अन्वेषा की तस्वीर रुख़साना के कमरे में रख दी थी — ताकि वह कभी अन्वेषा को न छू सके। लेकिन जब तुम दोनों लौटे, वो सीमा टूट गई।”
“अब रुख़साना की रूह अन्वेषा के भीतर पूरी तरह समा चुकी है।”
“रुख़साना की रूह अब उस वक़्त का इंतज़ार कर रही है जब उसे वो 'वादा' पूरा कर दिया जाए जो आग़ाज़ ने किया था…”
अपूर्व ने पूछा - “कैसा वादा?”
ज़हेरा ने गहरी साँस ली।
“रुख़साना और आग़ाज़ की शादी तय हो चुकी थी, लेकिन रुख़साना को प्यार हो गया था नासिर से… आग़ाज़ ने उसे माफ़ कर दिया था, पर एक शर्त पर — कि वो हवेली कभी न छोडे … और कभी न लौटे…”
“पर रुख़साना नासिर से मिलने आई… और वहीं मार दी गई। उसकी आत्मा अब तक इंतज़ार कर रही है कि आग़ाज़ उसके किए गुनाह की माफी माँगे…”
अपूर्व ने ये सब सुनकर कहा - “तुम झूठ बोल रही हो । “
तभी अचानक हवेली के भीतर से अन्वेषा की चीख सुनाई दी — “अपूर्व… मदद करो…”
अपूर्व ज़हेरा को छोडकर भागा। सीढियो उतरते हुए उसे लगा जैसे वक़्त और जगह की सीमाएँ मिट रही थीं।
वो तहख़ाने में पहुँचा — अन्वेषा फ़र्श पर पडी थी, उसकी आँखें खुली थीं पर पुतलियाँ स्थिर… होंठ थरथरा रहे थे।
वह धीमे स्वर में बुदबुदा रही थी — “बेख़ुदी में खोया दिल, कुछ तो बोल ज़ालिम…”
अपूर्व ने उसका हाथ पकडा — “अन्वेषा, मेरी बात सुनो… मैं तुम्हें छोडकर कहीं नहीं जाऊँगा… चाहे तुम कोई भी हो…”
एक पल को अन्वेषा की आँखों से आँसू बह निकले… और फिर जैसे बिजली कडकती हो — हवेली की दीवारें काँप उठीं।
एक अदृश्य झटका पूरे कमरे में फैला।
ज़मीन फटी — और तहख़ाने की दीवार में एक दरार खुली — उस पार एक कोठरी, जिसमें रुख़साना और नासिर की अंतिम रात के सबूत मौजूद थे।
अपूर्व और अन्वेषा की आँखें उस दरवाज़े की ओर मुडी … और एक आवाज़ आई — “अब फ़ैसला तुम्हारे हाथ में है…”