6.
ज्ञान बड़ा या भक्ति ?
तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके ||२८||
अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये ||२९||
अर्थ : कुछ आचार्यों का मत है परम-प्रेम-रूपा भक्ति का साधन ज्ञान ही है ।। २८ ।।
दूसरे आचार्यों के मतानुसार भक्ति तथा ज्ञान एक दूसरे पर आधारित हैं ।। २९।।
ईश्वर के अनुयायियों में सदियों से इस बात पर बहस छिड़ी रहती है कि ज्ञान बड़ा है या भक्ति । ज्ञान मार्गी खोजी ज्ञान को भक्ति से ऊपर रखते हैं, वहीं दूसरी ओर भक्ति मार्ग के खोजी भक्ति को ज्ञान से ऊपर रखते हैं। बहुत कम साधक दोनों की बराबर महत्ता स्वीकार करते हैं।
इसी बात को नारद जी भी कह रहे हैं कि कुछ आचार्यों के मत से परम प्रेम स्वरूपा भक्ति को पाने के लिए ज्ञान का आलंबन आवश्यक है और कुछ आचार्य ज्ञान और भक्ति को एक दूसरे पर आधारित बताते हैं यानी ज्ञान बिना भक्ति नहीं हो सकती और भक्ति बिना ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।
कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो ज्ञान को बिलकुल नकारते हैं और सिर्फ भक्ति की महिमा ही गाते हैं। देखा जाए तो यह बिलकुल व्यर्थ की बहस है। कैसे? आइए, समझते हैं। मान लीजिए, एक टैक्सी कार है, निश्चय ही वह यात्रा के लिए बहुत महत्वपूर्ण साधन है जो आपको कहीं से कहीं पहुँचा सकती है। अब आपके सामने ४ लोग खड़े हैं उनमें से एक को दो घंटे में ही हज़ार किलोमीटर दूर स्थित शहर जाना है। दूसरे को ऐसे पहाड़ पर बसे गाँव जाना है, जहाँ पहुँचने के लिए कोई सड़क नहीं। तीसरे को हाईवे से दूसरे शहर जाना है और चौथे को शहर की पतली-पतली संकरी गलियों से होकर अपने घर पहुँचना है तो उनमें से कौन वह टैक्सी ले सकता है?
निश्चय ही वह इंसान लेगा जिसे हाईवे से किसी दूसरे शहर जाना है क्योंकि उसे वही साधन पहुँचा सकता है, वही उसकी ज़रूरत है। दो घंटे में दूसरे शहर पहुँचने की चाहत रखनेवाला हवाई जहाज़ से जाएगा। पतली-पतली संकरी गलियों में चलनेवाले को साइकिल या स्कूटर की ज़रूरत होगी, कार की नहीं। पहाड़ पर चढ़नेवाले को पैरों से ही चलना पड़ेगा। ऐसे में यदि साइकिलवाला बोलने लगे कि 'यात्रा के लिए साइकिल बेस्ट है, कार नहीं' और एक्सप्रेस हाईवे पर कार से चलनेवाला बोलने लगे, 'यात्रा के लिए हवाई जहाज़, साइकिल, स्कूटर सब बेकार हैं, गाड़ी ही बेस्ट है' तो आप क्या कहेंगे? आप निश्चय ही उन सभी को बेवकूफ कहेंगे क्योंकि अपनी-अपनी ज़रूरत अनुसार चीजें उपयुक्त या अनुपयुक्त होती हैं।
बस अध्यात्म में भी ऐसा हो रहा है। किसी खोजी की ज़रूरत कैसी है इसे देखे बिना कैसे निश्चय किया जा सकता है कि उसके लिए भक्ति मार्ग अच्छा है या ज्ञान मार्ग? जिस खोजी की जिस समय जैसी ज़रूरत है, उसे उसी मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए।
उदाहरण के लिए रामकृष्ण परमहंस से मिलने से पहले नरेंद्र नाथ बहुत ज्ञानी थे किंतु उनमें भक्ति का अभाव था। वे ईश्वर को भी बुद्धि और तर्क की कसौटी पर तौलते थे। इसलिए उनकी आध्यात्मिक अवस्था उन्नति पर नहीं थी। गुरु रामकृष्ण के संपर्क में आने पर उन्होंने ईश्वर को सही अर्थों में जाना और उनके प्रति भक्ति भाव से भर उठे जिस कारण उन्हें आत्मबोध प्राप्त हुआ।
मीरा कृष्ण भक्त थी, उनके सिर्फ कृष्ण मूर्ति में ही ईश्वर दर्शन होते थे, अन्य कहीं नहीं। किंतु जब वे गुरु रविदास की शरण में आई तो उन्हें सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ तब उनके भीतर राम और श्याम का भेद मिट गया और वे अपने अंदर के कृष्ण से ऐकाकार हो गई।
सत्य तो यह है कि भक्ति के अभाव में ज्ञान एक ढोल की तरह है बाहर से बड़ा और भारी दिखनेवाला मगर भीतर से खाली, खोखला और हलका है। बड़ेबड़े ज्ञान ग्रंथ पढ़कर कुछ लोग खुद को परम ज्ञानी समझने लगते हैं। वे बेकार के शास्त्रार्थ में, ज्ञान वचनों में उलझे रहते हैं और उसे दूसरों को सुना-सुनाकर प्रशंसा हासिल करते हैं। इस तरह से वे अहंकारी हो जाते हैं और बजाए ईश्वर के पास आने के उससे और दूर चले जाते हैं।
वहीं दूसरी ओर दिन-रात भगवान का नाम लेनेवाले भक्त भी ज्ञान के अभाव में कट्टर और संकीर्ण सोचवाले हो जाते हैं। वे बाहरी शुद्धता, जात-पात, उच्चनीच, कर्मकाण्ड, मूर्ति पूजा के बेकार के नियमों में ही उलझे रहते हैं और निराकार की ओर नहीं बढ़ पाते। ऐसे में ज्ञान उनकी भक्ति को सही राह पर लाता है जैसे संत नामदेव के साथ हुआ। उनमें विट्ठल के प्रति परम भक्ति भाव था किंतु भक्ति में ज्ञान की ज्योति का अभाव था। गुरु विसोबा से परम ज्ञान मिला तो उनकी भक्ति ने अपनी सही मंज़िल पाई जिसका ज़िक्र उन्होंने अपने अभंगों में भी किया। इस तरह से ज्ञान और भक्ति अलग नहीं बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिनको अलग नहीं रखा जा सकता।
स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः ||३०||
अर्थ : ब्रह्म कुमारों का मत है कि भक्ति स्वयं फल रुपा है ||३०||
प्रस्तुत सूत्र में नारद जी ने भक्ति पर ब्रह्म कुमारों का मत कहा है। हिंदू धर्म में सृष्टि के जनक ब्रह्मा जी कहे जाते हैं। पुराणों में उनके चार पुत्र बताए गए हैं जो सनक, सनन्दन, सनातन व सनत्कुमार नाम से जाने जाते हैं। इन्हीं को ब्रह्म कुमार कहा गया है। उनके अनुसार भक्ति कोई फल पाने के लिए नहीं की जाती बल्कि भक्ति अपने आपमें ही फल है। आइए, इस बात को स्पष्टता से समझते हैं।
आप जानते ही हैं बच्चे खेलकूद के कितने शौकीन होते हैं। उनका मन हर समय खेलों में ही रमा रहता है। वे यही जतन करते रहते हैं कि कब पढ़ाई से, मातापिता की नज़र से बचें और खेलकूद में मग्न हो जाएँ। वह समय उनके लिए सबसे ज़्यादा आनंददायी होता है।
एक दिन एक ऐसे ही बच्चे को उसके पिता ने कहा, 'बेटा अगर तुम खेलने जाओगे तो मैं तुम्हें चॉकलेट दूँगा।' इस पर वह बच्चा हँसते हुए बोला, 'पिताजी मुझे खेलने जाने के लिए किसी इनाम की ज़रूरत नहीं है, खेलना मेरे लिए खुद इनाम है।' बस! भक्त के लिए भक्ति भी ऐसा ही फल है, जैसा बच्चे के लिए खेलना। भक्ति में मिलनेवाला आनंद और बेफिक्री ही भक्ति का फल है।
सत्संग और प्रवचनों में अकसर लोगों को कहा जाता है, 'भक्ति करोगे तो यह मिलेगा, भक्ति करोगे तो वह मिलेगा.... भक्ति करने पर ईश्वर तुमसे प्रसन्न होकर तुम्हारी फलाँ-फलाँ मनोकामनाएँ पूरी करेगा....' यानी लोगों में भक्ति को प्रेरित करने के लिए उन्हें फल का लालच दिया जाता है। ज्ञान के अभाव में लोग माला फेरने, धार्मिक ग्रंथों का पाठ करने, मंदिरों, तीर्थों में जाने, यज्ञ-हवन आदि करने को ही भक्ति करना मान लेते हैं, जबकि ऐसा नहीं है।
अध्यात्म के सारे मार्ग जैसे जप-तप, ज्ञान, पठन-पाठन, तीर्थ यात्राएँ आदि साधन भक्ति को जगाने के लिए किए जाते हैं, वह भक्ति नहीं है।
भक्ति, भाव में उतरनेवाला ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम का एहसास है। ऐसा नहीं है कि आपने इतनी मालाएँ फेर ली, सारे धाम घूम लिए तो आप भक्त हो गए। और यदि घर बैठे ही भक्ति जगी हुई है, अपने दैनिक कर्म करते हुए, ज़िम्मेदारियों का पालन करते हुए भक्ति भाव जगा हुआ है तो न संन्यासी होने की ज़रूरत है, न ही कोई कर्मकाण्ड करने की ज़रूरत है। संत रविदास कहकर गए हैं- 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' अर्थात मन भक्ति से भरा है तो गंगा (ईश्वर) के दर्शन को कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं, वह तुम्हारे पास ही है।
कहने का तात्पर्य– ज्ञान का फल भी भक्ति है और भक्ति का फल भी भक्ति है। जब किसी के अंदर सच्ची भक्ति जागृत होती है तो उसमें उसकी सारी इच्छाएँ, सारी मनोकामनाएँ विलीन हो जाती हैं, यहाँ तक कि ईश्वर को पाने की, मुक्ति मिलने की इच्छा भी विलीन हो जाती है क्योंकि जो भक्त है, वह सदा मुक्त ही है।
तुलसीदास जी ने भी कहा है- 'सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन...' यानी जो राम की भक्ति में लीन हो गया, वह सारी कामनाओं से हीन हो गया। जिसने सच्ची भक्ति का स्वाद चख लिया, वह जान जाएगा किं भक्ति स्वयं फल है। जब वह मिल जाती है तो और किसी चाहना की ज़रूरत ही नहीं रहती। भक्ति के फलस्वरूपा होने पर कबीर जी कहकर गए हैं–
भक्ति जो सीढ़ी मुक्ति की, चदै भक्त हरषाय
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय।
भक्ति ही वह मुक्ति की सीढ़ी है, जिस पर चढ़कर भक्त हर्षित होता है। भक्त बने बिना इस पर किसी और भाव के साथ चढ़ा ही नहीं जा सकता। भक्ति ही एकमात्र वह कर्म है, जिसका फल भी भक्ति है।