भूमिका
कहते हैं कि इंसान अपनी किस्मत खुद बनाता है, लेकिन अगर हालात साथ न दें तो? तब आदमी या तो हालात का सहारा लेकर ऊँचाइयाँ छूता है, या फिर उन्हीं हालात के बहाने बनाकर अपने फिसलने का ज़िम्मेदार दूसरों को ठहराता है। यह कहानी ऐसे ही एक आदमी की है—रघुनाथ प्रसाद उर्फ़ 'रघु बाबू', जो हालात के सहारे अपने जीवन की ऊँचाइयों और गिरावटों के बीच झूलते रहते हैं।
अध्याय 1: नौकरी और नाकामी
रघुनाथ प्रसाद, एक सरकारी कार्यालय में बाबू थे। उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी—काम को टालने की अद्भुत कला। दफ़्तर में हमेशा कोई न कोई बहाना उनके पास तैयार रहता था—
- 'कल फाइल पूरी कर दूँगा, आज बिजली नहीं है!'
- 'साब, आज तबीयत ठीक नहीं लग रही, कल पक्का!'
- 'देखिए, सिस्टम डाउन है, मैं क्या करूँ?'
लेकिन दफ़्तर के नए बॉस, चौबे साहब, बहानों के शौकीन नहीं थे। उन्होंने सख्त आदेश दिया कि अगर फाइल समय पर पूरी न हुई तो सस्पेंशन पक्का!
अब रघु बाबू के लिए हालात थोड़े कठिन हो गए। उन्होंने तुरंत एक नया बहाना ढूँढ निकाला—
'सर, मेरी सासू माँ अस्पताल में हैं, मैं कैसे काम कर सकता हूँ?'
लेकिन चौबे साहब समझ चुके थे कि रघु बाबू बहानेबाज हैं और उन्हें रंगे हाथों पकड़ने की तैयारी करने लगे।
अध्याय 2: राजनीति का सहारा
जब नौकरी खतरे में पड़ी तो रघु बाबू को समझ आया कि सरकारी दफ़्तर की कुर्सी पर जमे रहने के लिए सिर्फ़ बहाने नहीं, बल्कि ऊपर तक 'पहुँच' भी ज़रूरी है। वे स्थानीय विधायक के खासमखास, कक्कड़ चाचा के पास पहुँचे।
कक्कड़ चाचा ठेठ देसी राजनीति के उस्ताद थे। उन्होंने कहा—
'देखो रघु, राजनीति में दो चीज़ें ज़रूरी होती हैं—एक, सही समय पर सही व्यक्ति की जय-जयकार; और दूसरा, खुद को बेचारा दिखाने की कला!'
रघु बाबू ने तुरंत 'बेचारा मोड' ऑन कर दिया और विधायक जी के नाम का राग अलापना शुरू कर दिया। कक्कड़ चाचा ने चौबे साहब को फोन किया, और नतीजा—रघु बाबू की नौकरी बच गई! लेकिन यह कब तक चलेगा?
अध्याय 3: शादी में हालात का सहारा
रघु बाबू की शादी को दस साल हो चुके थे, लेकिन उनकी पत्नी सुनीता अब उनके बहानों से ऊब चुकी थी।
- 'रघु, ज़रा बर्तन धोने में हाथ बँटा दो!'
- 'अरे, आज तो कमर में भयानक दर्द हो रहा है!'
सुनीता ने तंज किया—'ओह! तो ताश खेलते वक्त दर्द नहीं होता?'
एक दिन सुनीता ने भी रघु बाबू को उन्हीं के अंदाज में जवाब देना शुरू कर दिया, जिससे रघु बाबू को समझ में आने लगा कि अब हालात का सहारा यहाँ नहीं चलेगा।
अध्याय 4: जब बहाने भारी पड़े
दफ़्तर में चौबे साहब ने चेतावनी दी कि अब कर्मचारियों का मूल्यांकन होगा। रघु बाबू ने हमेशा की तरह बहाना बनाया—'सर, मेरी पुरानी कमर दर्द की शिकायत फिर से बढ़ गई है!'
लेकिन इस बार चौबे साहब बोले—'कोई बात नहीं, अब दफ़्तर में डॉक्टर बैठने वाला है, वही चेकअप करेगा!'
अब तो रघु बाबू बुरी तरह फँस गए।
घर में भी सुनीता अब उनकी बहानेबाज़ी पर ध्यान नहीं दे रही थी। धीरे-धीरे उन्हें एहसास होने लगा कि हालात के सहारे हमेशा ज़िंदगी नहीं चल सकती।
अध्याय 5: नया रघु बाबू
रघु बाबू ने पहली बार मेहनत करना शुरू किया।
उन्होंने पहली बार समय पर एक फाइल पूरी की, और सहकर्मियों को विश्वास नहीं हुआ।
घर में भी बदलाव आया—जब सुनीता ने कहा 'राशन ले आओ', तो रघु बाबू बिना किसी बहाने के तुरंत चले गए!
चौबे साहब ने भी उनकी तारीफ़ की और कहा—'अब तुम असली सरकारी बाबू बन रहे हो!'
रघु बाबू को पहली बार एहसास हुआ कि मेहनत से जो संतोष मिलता है, वह किसी भी बहाने से कहीं अधिक मूल्यवान होता है।
उपसंहार
'हालात का सहारा' कभी-कभी इंसान को बचा सकता है, लेकिन अगर इंसान खुद अपने हालात का मालिक बन जाए, तो ज़िंदगी और भी आसान हो जाती है। इस कहानी का संदेश है कि खुद पर विश्वास करें, मेहनत करें, और हालात को अपने अनुसार मोड़ने की कोशिश करें। यही असली सफलता है!