the storm of change in Hindi Moral Stories by Dayanand Jadhav books and stories PDF | बदलाव की आंधी

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बदलाव की आंधी

गाँव की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर चलते हुए सौरभ के कदम अचानक ठिठक गए। सामने वह पुराना पीपल का पेड़ खड़ा था, जिसकी छांव में कभी वह अपने दोस्तों के साथ बैठकर किस्से-कहानियाँ सुनता था। आज पाँच साल बाद वह अपने गाँव लौटा था – वही गाँव जहाँ उसकी जड़ें थीं, जहाँ उसके बचपन की स्मृतियाँ अब भी मिट्टी में रची-बसी थीं।

पर आज कुछ बदल गया था। न वह गाँव पहले जैसा था और न सौरभ। सड़कें अब पक्की हो गई थीं, पुराने कच्चे मकानों की जगह सीमेंट की इमारतों ने ले ली थी। लेकिन बदलाव सिर्फ बाहर नहीं, भीतर भी हुआ था – सौरभ के भीतर।

जब वह शहर गया था, तब एक सीधा-सादा, सच्चा और मेहनती युवक था। उसके मन में उच्च आदर्श थे, संस्कारों की नींव मज़बूत थी। पिता की कही बातें अब भी उसके ज़ेहन में गूंज रही थीं – “बेटा, जीवन में ईमानदारी ऐसी होनी चाहिए कि दूध का दूध और पानी का पानी अलग हो जाए।” माँ भी हर दिन कुछ न कुछ सिखाया करती थीं – “करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान।”

सौरभ का बचपन इन्हीं विचारों की छाया में बीता था। वह जानता था कि मेहनत का कोई विकल्प नहीं, और सच्चाई ही सबसे बड़ा हथियार है। इसलिए जब वह शहर गया, तो यही मूल्य उसके साथ थे।

शुरुआत में महानगर की चकाचौंध ने उसे चौंकाया। हर कोई जल्दी में था – जैसे किसी दौड़ में शामिल हो। लोगों की आँखों में सपनों के साथ-साथ चालाकी भी थी। “अपना हाथ, जगन्नाथ” का भाव हर चेहरे पर झलकता। यहाँ कोई किसी का सगा नहीं था। दोस्ती भी स्वार्थ से होती और रिश्ते भी सुविधा से।

सौरभ को लगा जैसे वह किसी और दुनिया में आ गया हो। लेकिन उसने हार नहीं मानी। अपनी पुरानी सोच और मेहनती स्वभाव के साथ उसने काम शुरू किया। एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब मिली। वह हर काम को ईमानदारी और लगन से करता। जब दूसरे छुट्टियाँ मना रहे होते, तब सौरभ ओवरटाइम करता। वह मानता था कि "परिश्रम ही सफलता की कुंजी है।"

लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, उसे महसूस हुआ कि शहर की इस दुनिया में सच्चाई और मेहनत से अधिक महत्व चापलूसी, चालाकी और स्वार्थ को दिया जाता है। उसका सहकर्मी राकेश – जो हर किसी से मीठा बोलता, पर पीठ पीछे वार करता – धीरे-धीरे बॉस का खास बनता गया।

प्रमोशन के समय सौरभ को आशा थी कि उसका मेहनत रंग लाएगी। पर जब लिस्ट आई, तो उसमें राकेश का नाम था। वही राकेश जो दूसरों का श्रेय चुराता और झूठी वाहवाही बटोरता। यह देखकर सौरभ का मन टूट गया। उसने पहली बार महसूस किया कि दुनिया में सिर्फ सच्चाई से काम नहीं चलता।

धीरे-धीरे सौरभ में भी बदलाव आने लगा। “अब की बार अपनी बारी,” सोचकर वह भी “जैसा देस, वैसा भेस” की राह पर चल पड़ा। उसने अपनी उस ईमानदारी की चादर को मोड़कर रख दिया, और चालाकी के कपड़े पहन लिए। जो बातें पहले उसे बुरी लगती थीं, अब वह खुद करने लगा। मीटिंग में बॉस की हाँ में हाँ मिलाना, दूसरों के काम में टाँग अड़ाना, और नंबर बढ़ाने के लिए जोड़-तोड़ करना – ये सब अब उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गए।

सफलता उसके कदम चूमने लगी। प्रमोशन मिला, तनख्वाह बढ़ी, गाड़ी आई, और उसके बाद आलीशान फ्लैट। अब वह भी “ऊँची उड़ान” भर रहा था। पर उस उड़ान में अब वह मासूमियत नहीं थी जो कभी उसकी पहचान हुआ करती थी।

एक दिन जब वह एक बड़ी मीटिंग से निकल रहा था, तभी फोन पर गाँव से खबर आई – माँ की तबियत खराब है। बिना एक पल गंवाए, सौरभ गाँव के लिए रवाना हो गया।

गाँव पहुंचते ही उसे सब कुछ अजनबी सा लगा। वह घर जिसके आँगन में कभी वह खेला करता था, अब खाली-खाली सा लग रहा था। माँ चारपाई पर लेटी थीं, आँखें बुझी हुई, पर जब सौरभ उनके पास बैठा, तो जैसे उनमें नई ऊर्जा आ गई।

माँ ने उसका चेहरा देखा और मुस्कुराते हुए पूछा – “बेटा, तरक्की तो बहुत कर ली तूने, लेकिन क्या तू अब भी वो पुराना सौरभ है?” माँ की इस एक पंक्ति ने जैसे उसके भीतर सो रहे सच्चे सौरभ को जगा दिया। वह सोचने लगा – क्या उसने वास्तव में सफलता पाई, या सिर्फ चकाचौंध को अपनाकर अपने आप को खो दिया?

रात को वह घर की छत पर लेटा, और तारों को देखने लगा। एक-एक तारा उसे उसके बचपन की बातें याद दिला रहा था। उसे वह दिन याद आया जब वह अपने दोस्तों को ईमानदारी की महत्ता समझाता था, जब वह पिता के साथ खेतों में काम करता था और माँ की कहानियाँ सुनते हुए सो जाता था।

अब उसकी जेब में पैसा था, पर दिल खाली। दोस्त थे, पर कोई सच्चा नहीं। शोहरत थी, पर शांति नहीं। “जब जेब भरी हो तो दिल खाली होता है” – यह कहावत आज उसकी हकीकत बन गई थी।

सुबह होते ही उसने एक निर्णय लिया – अब वह फिर से वही सौरभ बनेगा जो कभी था। उसने सोचा – “देर आयद, दुरुस्त आयद।” वह समझ गया था कि जीवन में चालाकी से भी रास्ते बनते हैं, पर वो रास्ते आत्मा की शांति नहीं दे सकते।

शहर लौटते समय उसकी आँखों में एक नई चमक थी। इस बार वह सिर्फ अपनी तरक्की की नहीं, समाज की सोच बदलने की बात सोच रहा था। उसने ठान लिया था कि वह एक ऐसा उदाहरण बनेगा जो दिखाएगा कि सच्चाई और सफलता एक साथ चल सकते हैं। वह अब समझदारी से चलेगा, पर ईमानदारी को कभी नहीं छोड़ेगा। क्योंकि उसे यकीन था – “सच्चाई की नाव डगमगाती है, डूबती नहीं।”