The other side of the decision in Hindi Motivational Stories by Dayanand Jadhav books and stories PDF | निर्णय का दूसरा पहलू

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निर्णय का दूसरा पहलू


गाँव सोनपुर के किनारे बसा एक छोटा-सा कस्बा था—शांत, सुंदर और अपने में मग्न। यहाँ के लोग सीधे-साधे थे, मेहनती थे, और अक्सर दूसरों के मामलों में दखल देने से कतराते थे। इसी कस्बे में रहता था अजय—तीस वर्षीय, पढ़ा-लिखा युवक जो शहर में नौकरी करता था, लेकिन कोरोना काल में नौकरी छूट जाने के बाद गाँव लौट आया था। अजय का स्वभाव सहज था, परंतु वह हर बात में तर्क खोजता और दुनिया को स्याह-सफेद में बाँटने का आदी हो गया था।

एक दिन गाँव में एक अजीब घटना हुई। पास के जंगल में रहने वाला बूढ़ा साधु, जिसे सब 'बाबा' कहकर बुलाते थे, अचानक गाँव में आया और मंदिर के बाहर बैठकर लोगों को उपदेश देने लगा। वह कहता, “हर बात का दूसरा पहलू देखो। जो तुम्हें सही लगे, ज़रूरी नहीं वह सबके लिए सही हो।” लोगों ने उसकी बातें सुनीं, कुछ हँसे, कुछ अनसुना कर गए। लेकिन अजय को उसकी बातों में गहराई नज़र आई।

अजय ने बाबा से पूछा, “आप कहते हैं हर बात के दो पहलू होते हैं, पर क्या हर बार बुरा पहलू देखना भी ज़रूरी है?”

बाबा मुस्कराए और बोले, “ज़रूरी नहीं कि हर बार बुरा देखा जाए, पर यह जानना ज़रूरी है कि जो हमें अच्छा लगता है, वह किसी और के लिए नुकसानदेह भी हो सकता है। निर्णय लेने से पहले सोचना चाहिए—क्या मैंने सभी पहलू देखे हैं?”

उस दिन के बाद से अजय हर बात में दोनों पक्षों को देखने की कोशिश करने लगा। पहले वह जल्दी निर्णय कर लेता था—किसी को गलत, किसी को सही ठहराना उसके लिए सहज था। पर अब वह रुकने, सोचने और समझने लगा।

कुछ महीनों बाद गाँव की पंचायत में बड़ा निर्णय लेना था। गाँव की नदी सूखने लगी थी और सरकार ने प्रस्ताव दिया था कि पास की ज़मीन में बाँध बनाया जाए जिससे पानी संग्रह हो सके। लेकिन वह ज़मीन रघु किसान की थी—गाँव का सबसे गरीब और मेहनती व्यक्ति। अगर सरकार उसकी ज़मीन लेती, तो उसे एकमुश्त मुआवज़ा मिलता, पर खेती उसकी समाप्त हो जाती।

गाँव के लोग दो धड़ों में बँट गए। कुछ कहते थे कि रघु को ज़मीन दे देनी चाहिए, क्योंकि यह गाँव के भले के लिए है। दूसरे कहते थे कि यह अन्याय है—किसी एक की कीमत पर सबका भला नहीं किया जा सकता।

अजय को पंचायत में बुलाया गया। सब उसकी समझदारी को मानते थे, और चाहते थे कि वह बीच का रास्ता बताए। अजय ने सबकी बात सुनी, फिर रघु के पास गया।

रघु की आँखों में आँसू थे। वह बोला, “मैं सबके भले के लिए अपनी ज़मीन दे सकता हूँ, पर क्या सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि मेरे बच्चों को दो वक़्त की रोटी मिल सके? क्या कोई मेरी जगह खेत जोतेगा?”

अजय लौटकर पंचायत में बोला, “हम यह सोचते हैं कि रघु की ज़मीन लेना गाँव के लिए अच्छा होगा, पर इसका दूसरा पहलू यह है कि हम एक मेहनतकश किसान की ज़िंदगी से खिलवाड़ कर रहे हैं। हमें समाधान ऐसा चाहिए जो दोनों पहलुओं को ध्यान में रखे।”

बात आगे बढ़ी और अजय के सुझाव पर गाँव वालों ने सरकार से निवेदन किया कि बाँध बनाने के लिए वैकल्पिक सरकारी भूमि दी जाए और रघु की ज़मीन को छोड़ा जाए। सरकार ने थोड़ा और प्रयास किया और पास की एक परती जमीन को बाँध के लिए चिन्हित किया। गाँव को पानी मिला, और रघु की खेती भी बची।

इस घटना के बाद अजय की सोच की सराहना हर तरफ़ होने लगी। लेकिन जीवन की परीक्षा एक बार में पूरी नहीं होती।

एक दिन अजय को एक निजी कंपनी से नौकरी का प्रस्ताव मिला। काम शहर में था, वेतन अच्छा था, पर शर्त यह थी कि वह छह महीने तक गाँव नहीं आ सकेगा और कार्यस्थल पर ही रहना होगा। अजय के पिता बीमार रहते थे, माँ बुज़ुर्ग थीं और खेती का थोड़ा-बहुत काम भी वही देखता था।

परिवार बोला, “जा बेटा, तुम्हारा भविष्य सुधरेगा।” गाँव के लोग बोले, “यह तो अच्छा अवसर है।” लेकिन अजय को भीतर से एक द्वंद्व मथ रहा था।

उसने बाबा से पूछा, “क्या करूँ? एक ओर नौकरी है, दूसरी ओर परिवार।”

बाबा बोले, “क्या तुम दोनों पहलू देख रहे हो, या सिर्फ़ अवसर देख रहे हो?”

अजय ने नौकरी की तरफ देखा—सुरक्षा, पैसा, सम्मान। फिर परिवार की तरफ—ज़रूरत, देखभाल, अपनापन।

कई रातों की उलझन के बाद अजय ने निर्णय लिया। उसने कंपनी से बात की और प्रस्ताव रखा कि वह घर से ऑनलाइन काम करेगा, कम वेतन पर, परंतु गाँव से बाहर नहीं जाएगा। शुरू में कंपनी झिझकी, पर जब अजय ने अपनी योग्यता और प्रतिबद्धता बताई, तो वे मान गए।

अजय अब गाँव से ही काम करता था, अपने परिवार की सेवा करता था और खेतों को भी समय देता था।

कुछ लोग कहते, “अगर वह शहर गया होता, तो आज बहुत आगे होता।” पर अजय जानता था कि वह जीवन के दोनों पहलुओं को देखकर जो निर्णय ले रहा है, वह संतुलित था—ना सिर्फ़ अपने लिए, बल्कि अपने आसपास के लोगों के लिए भी।

समय बीता। बाबा एक दिन चुपचाप गाँव छोड़कर चले गए। उनके जाने के बाद मंदिर की दीवार पर एक वाक्य लिखा मिला—

“हर निर्णय में अच्छाई छिपी होती है, यदि हम बुराई को भी समझने का धैर्य रखें।”

अजय यह बात दिल में बसा चुका था। अब जब कोई गाँव में झगड़ा करता, विवाद होता या लोग उलझते, तो वह उन्हें बस एक ही बात कहता—

“ज़रा सोचो, जो तुम्हें सही लगता है, क्या वह दूसरे के लिए भी सही है? क्या तुमने बात का दूसरा पहलू देखा है?”