Ishq Benaam - 6 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | इश्क़ बेनाम - 6

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इश्क़ बेनाम - 6

06

दुविधा

जब रागिनी के मम्मी-पापा, बहन शिखर जी से लौट कर आए तो घर में एक अजीब-सी खामोशी छा गई। 

रागिनी और मंजीत उस वक्त हॉल में बैठे चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे, और बाहर टैक्सी के रुकने की आवाज ने उनकी बातचीत को बीच में ही रोक दिया था। रागिनी का दिल तेजी से धड़कने लगा। उसने मंजीत की ओर देखा, जिसके चेहरे पर हल्की-सी बेचैनी थी, पर वह शांत बना रहा।

रागिनी ने उठकर दरवाजा खोला, और रागिनी की माँ, पिताजी और बहन रमा अंदर आ गए। उनके चेहरों पर थकान साफ झलक रही थी, लेकिन माँ की नजर जैसे ही मंजीत पर पड़ी, उनकी भौंहें सिकुड़ गईं। 

‘ये यहाँ क्या कर रहा है?’ उन्होंने कड़क आवाज में पूछा, बिना किसी मुलाहिजे के। वे उसे तब से जानती थीं, जब शुरू-शुरू में रागिनी उन्हें गोष्ठियों में अपने साथ ले जाती।

उसने गहरी साँस ली, और धैर्यपूर्वक कहा, ‘माँ, पिताजी, रमा... आप लोग बैठो पहले। मैं सब बताती हूँ...’ 

उसकी आवाज में एक मजबूत संकल्प था, जो पहले कभी नहीं दिखा था। मंजीत भी उठ खड़ा हुआ था और हाथ जोड़कर सबको नमस्ते कहा, पर उसकी नजरें जमीन पर टिकी रहीं।

पिताजी ने बैग एक तरफ रखा और सोफे पर बैठते हुए कहा, ‘बताओ, क्या माजरा है? हम चार दिन के लिए गए थे, और यहाँ क्या-क्या हो गया?’ उनकी आवाज में नाराजगी थी। 

रमा, जो अपनी छोटी बहन को अच्छे से समझती थी, चुपचाप कोने में खड़ी रही, मानो उसे पहले से कुछ अंदाजा हो।

रागिनी ने हिम्मत जुटाई और बोलना शुरू किया, ‘माँ, पिताजी, मैंने अपनी जिंदगी का एक फैसला लिया है... मंजीत और मैं साथ रहना चाहते हैं। हम एक-दूसरे से प्यार करते हैं, और अब इसे छुपाने का कोई मतलब नहीं है।’ 

उसकी बात सुनकर माँ का चेहरा लाल हो गया, वे अपने आप को जब्त न कर सकीं, ‘ये क्या बकवास है कि तुझे हमारी इज्जत, परिवार-समाज का कुछ ख्याल ही नहीं...?’

मंजीत ने आगे बढ़कर कहा, ‘आंटी जी, मैं आप लोगों का पूरा स-स...म्मान करता हूँ। हम कोई गलत काम नहीं कर रहे। ह-ह...म बस अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीना चाहते हैं।’ 

उसकी बात में सच्चाई थी, हकलाहट में भोलापन जो रागिनी को बींध गया, पर माँ को ये चीज महसूस न हुई। वे उसे गुस्से में घूरती उठीं और बोलीं, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हमारे घर में आकर ये सब बोलने की? निकलो यहाँ से!’

पिताजी ने माँ को शांत करने की कोशिश की और कहा, ‘सुनो पहले, गुस्से में फैसला मत लो।’ फिर रागिनी की ओर मुड़कर बोले, ‘बेटी, हमें पता है कि तुम समझदार हो। लेकिन ये जो तुम कर रही हो, इसके बारे में सोचा है? लोग क्या कहेंगे? हमारा परिवार, हमारी साख...’

रागिनी की आँखों में आँसू आ गए, पर उसने उन्हें पोंछते हुए कहा, ‘पिताजी, मैंने सब सोच लिया है। लोग बातें करेंगे, पर क्या मैं अपनी पूरी जिंदगी दूसरों की बातों के लिए जिऊँ? मुझे मंजीत के साथ सुकून मिलता है, और यही कीमती है।’

रमा, जो अब तक चुप थी, आगे आई और बोली, ‘रागिनी, मुझे तुम पर भरोसा है। लेकिन माँ-पिताजी को थोड़ा वक्त दो। ये सब उनके लिए अचानक है।’ 

उसकी बात में समझदारी थी, और रागिनी ने उसकी ओर देखकर हल्का सा सिर हिलाया।

माँ अभी भी गुस्से में थीं, पर पिताजी ने उन्हें कमरे में ले जाकर बात करने की कोशिश की। मंजीत ने रागिनी का हाथ थामा और धीरे से कहा, ‘सब ठीक हो जाएगा। हमें बस धैर्य रखना है।’ 

रागिनी ने उसकी ओर देखा, और उसकी आँखों में एक उम्मीद जगी।

...

उस रात घर में तनाव का माहौल रहा। माँ ने रागिनी से बात नहीं की, और पिताजी चुपचाप अपने विचारों में खोये रहे। वे लगातार यही सोच रहे थे कि जैन कम्युनिटी सिख समुदाय को स्वीकार कैसे करेगी! जहाँ पानी भी छानकर पीने का चलन हो और जीवदया के चलते बच्चे से लेकर बूढ़े तक निरामिषभोजी हों वे आमिषभोजी और शराब तक से परहेज न करने वालों को रोटी-बेटी के संबंध के लिए कैसे स्वीकारेंगे?

एक रमा ही थी जिसने रागिनी को गले लगाया और कहा, ‘छोटी, मैं तुम्हारे साथ हूँ। जो सही लगे, वो करो।’

...

दो-तीन दिन बाद, सुबह जब सब नाश्ते की मेज पर बैठे, तो पिताजी ने कहा, ‘रागिनी, हमें तुमसे बात करनी है। मंजीत को भी बुलाओ।’ रागिनी का दिल फिर से धक-धक करने लगा। क्या होने वाला है? क्या परिवार उसे स्वीकार करेगा, या ये उनकी कहानी का अंत होगा? 

सुबह की चुप्पी नाश्ते की मेज पर भारी पड़ रही थी। रागिनी ने मंजीत को फोन किया और उसे घर आने को कहा। उसकी आवाज में एक अजीब-सा डर और उम्मीद का मिश्रण था। 

मंजीत आधे घंटे में रागिनी के घर पहुँच गया। दरवाजे पर दस्तक देते ही रागिनी ने गेट खोल उसे अंदर ले लिया। हॉल में माँ, पिताजी और रमा पहले से बैठे थे। माहौल में तनाव साफ झलक रहा था, जैसे कोई तूफान आने से पहले की खामोशी हो।

पिताजी ने मंजीत को बैठने का इशारा किया और सीधे बात शुरू की, ‘मंजीत, हमने रात भर सोचा। रागिनी हमारी बेटी है, और उसकी खुशी हमारे लिए सबसे जरूरी है। लेकिन हमें ये समझना है कि तुम दोनों का रिश्ता आगे कैसे चल सकता है। तुम्हारी जिंदगी के बारे में हमें सब कुछ जानना होगा; तुम क्या करते हो, तुम्हारा परिवार क्या सोचता है, सब कुछ।’

मंजीत ने एक गहरी साँस ली। उसने रागिनी की ओर देखा, जो चुपचाप उसकी बगल में बैठी थी। सोच-समझ कर वह बोला, ‘वो सब आपके सामने आ जायेगा, अंकल! वैसे मैं एक गवर्नमेंट एम्प्लॉयी हूँ और अपनी जिंदगी का खुद मुख्तयार भी। पर हम दोनों ही नहीं चाहते,’ उसने रागिनी की ओर देखा, ‘कि इस अंतर्जातीय सम्बन्ध की आँच आपकी बड़ी बेटी पर आए!’

‘मतलब!?’ माँ ने कौड़ी-सी ‘आँखें निकाल बीच में पूछा। और मंजीत ने समझाया, ‘देखिए माँ जी, अगर हमने पहले विवाह कर लिया तो आपको रमा जी के विवाह में अड़चन आएगी!’

इतना सुनते ही माँ, पिताजी और रमा तीनों को ही लगा कि मंजीत हितैषी है उनका। रागिनी भी उसकी तुरत बुद्धि की कायल हो गई। 

मंजीत की इस बात से सभी का तनाव भी रिलीज हो गया। तय हो गया कि पहले रमा, फिर रागिनी। भले साल-छह महीने का समय लग जाय!

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