शांता के मंदिर के द्वार पर गिरते ही मानो सारा समय ठहर गया।
विद्या दौड़ती हुई आई और माँ को अपने सीने से लगा लिया। उसकी आँखों से आंसुओं की धार बह निकली।
"माँ... माँ! मैंने कहा था न, मैं तुम्हें वापस लाऊँगी...!"
शांता की सांसें धीमी थीं, चेहरा पीला और कपड़े चिथड़े। लेकिन वह जिंदा थी। यही सबसे बड़ा चमत्कार था।
गांववाले धीरे-धीरे मंदिर के बाहर जमा हो गए थे। कुछ की आंखों में पछतावा था, कुछ अब भी डरे हुए थे, और कुछ खामोश — जैसे वर्षों का बोझ उनकी जुबान पर ताले लगा गया हो।
पंडित हरिदत्त के पुराने शिष्य रामसेवक ने कांपती आवाज़ में पूछा,
"ये कैसे हुआ, बेटी?"
विद्या ने उसकी ओर देखा। अब उसकी आँखों में वो मासूमियत नहीं थी — अब उनमें वो आग थी जो मायरा की आत्मा में जलती रही, और अब विद्या के भीतर भड़क रही थी।
"तुम सबने मायरा को जलाया था," उसने कहा, आवाज़ धीमी लेकिन गूंजती हुई। "एक जीवित स्त्री को जलाकर उसे भूत बना दिया। और फिर सालों तक उसी के डर से छुपते रहे। कभी किसी ने उसकी आत्मा के लिए दीप जलाया? कभी उसकी अस्थियाँ बहाईं?"
चारों ओर सन्नाटा पसर गया। कोई उत्तर नहीं आया।
विद्या ने गहरी सांस ली, फिर कहा,
"मैंने उसकी राख को माँ शीतला के चरणों में अर्पण किया। उसने बदला नहीं लिया, न्याय चाहती थी। बस एक बार... कोई उसे 'डायन' नहीं, इंसान कहे। और मैंने वो कहा।"
गांववालों की नज़रें झुक गईं। बुज़ुर्गों ने सिर नीचे कर लिया, और बहुतों की आँखें नम हो गईं।
अगले दिन विद्या मायरा की बची हुई अस्थियाँ पास के पवित्र विष्णुप्रयाग घाट पर लेकर गई। वहाँ वैदिक विधियों से उसका विसर्जन किया। जब वह अस्थियाँ जल में प्रवाहित कर रही थी, तब हवा में एक अजीब-सी हल्कापन था — मानो कोई आत्मा अपना बोझ उतार रही हो।
उस दिन पहली बार, वर्षों बाद, गाँव में धूप निकली। खेतों पर गिरी ओस की बूंदें भी जैसे मुस्कुरा उठीं। लेकिन विद्या जानती थी — उसका सफर अभी पूरा नहीं हुआ।
गाँव की सोच अब भी पुराने साँचे में जकड़ी हुई थी — जहाँ बेटियों को मंदिर के भीतर नहीं जाने दिया जाता था, उन्हें स्कूल भेजना ज़रूरी नहीं समझा जाता था, और उनका भविष्य बस रसोई या ससुराल तक सीमित माना जाता था।
विद्या ने ठान लिया कि ये बदलेगा।
उसने पुराने पंचायत भवन को साफ़ करवाया और वहीं एक छोटी-सी पाठशाला शुरू की। शुरुआत में केवल तीन लड़कियाँ आईं — सहमी, चुपचाप, और खुद को अजनबी महसूस करती हुईं। लेकिन विद्या ने हार नहीं मानी। वह हर दिन खुद पढ़ाती, कहानियाँ सुनाती, आत्मरक्षा सिखाती और सबसे ज़रूरी — उन्हें अपनी आवाज़ पहचानने सिखाती।
हर शनिवार को वह मायरा की कहानी सुनाती। एक चेतावनी की तरह नहीं, बल्कि प्रेरणा की तरह। मायरा अब कोई डरावनी परछाई नहीं, बल्कि न्याय की देवी बन चुकी थी — जो अपने लिए नहीं, बाकी लड़कियों के लिए लड़ी।
एक दिन विद्या अपनी शिष्याओं को लेकर मंदिर गई और पहली बार एक लड़की ने मंदिर के भीतर घुसकर पूजा की, शंख बजाया और आरती गाई। गाँव के बहुत-से लोग चुपचाप देख रहे थे। कुछ बुज़ुर्गों ने विरोध करना चाहा, लेकिन फिर उनके ही पोतियों ने उनके हाथ पकड़कर उन्हें रोक दिया।
पंडित हरिदत्त जो पहले स्त्रियों को मंदिर की चौखट पार करने से मना करते थे, अब पीछे की पंक्ति में चुपचाप खड़े रहते थे — क्योंकि उन्हें समझ आ चुका था कि ईश्वर किसी के अधीन नहीं होते।
विद्या ने मंदिर के ठीक बगल में एक सुंदर "श्रद्धा स्तंभ" बनवाया। उस पर कोई मूर्ति नहीं थी, बस एक दीपक जलता था — और नीचे लिखा था:
"ये उस नारी की याद में, जिसे जला दिया गया — लेकिन जिसकी आत्मा आज भी हमें सिखा रही है कि अन्याय सहना भी पाप है।"
वहाँ हर शाम एक लड़की आकर दीप जलाती थी, और पूरे गाँव में एक नई ऊर्जा फैल जाती थी।
कई महीने बाद एक शाम, विद्या मंदिर में अकेली थी। वह श्रद्धा स्तंभ के पास बैठी थी, जब हवा में चंदन और रातरानी की मीठी खुशबू तैरने लगी। उसने मुड़कर देखा — कोई नहीं था।
लेकिन दीपक की लौ दो बार झपकी — जैसे कोई आँख मारकर मुस्कुरा रहा हो।
विद्या की आँखें भर आईं। वह जानती थी —
मायरा अब मुक्त है।
समय बीता। वह छोटी पाठशाला अब एक गर्ल्स एजुकेशन सेंटर बन चुकी थी, जहाँ आसपास के गाँवों से लड़कियाँ पढ़ने आती थीं। वे अब सवाल करती थीं, बोलती थीं, और अपने हक़ के लिए लड़ती थीं।
गाँव का नाम अब "विद्यापुर" पड़ चुका था। जहाँ पहले औरतें सिर्फ़ परछाई थीं, अब वे दीपक की लौ बन चुकी थीं — जलती हुई, चमकती हुई।
विद्या ने सिर्फ़ मायरा को मुक्ति नहीं दिलाई, उसने पूरे समाज को एक नया जीवन दिया — जहाँ डर की जगह हिम्मत ने ली, और अन्याय की जगह शिक्षा ने।
क्योंकि मायरा सिर्फ़ एक नाम नहीं, एक चेतावनी थी।
और विद्या, उस चेतावनी का उत्तर।