अगस्त्य वहाँ से निकल गया।
सय्युरी गुस्से में पास में रखा वास तोड़कर ज़ोर से चिल्लाती है:
"आआआआआआ........!"
पिछली बार इतना सब होने के बाद भी उसका गुस्सा और अकड़ कम नहीं हुई... इसे तो शुक्र मनाना चाहिए कि मैं इसे हासिल करना चाहती हूँ!
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दूसरी तरफ,
अगस्त्य बाहर आया... उसकी कार वहीं खड़ी थी, पर जब उसने कार के पास जाकर देखा — रात्रि वहाँ नहीं थी।
अगस्त्य (साँस भरते हुए): As expected, वो चली गई...
...और वो भी वहाँ से निकल गया।
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रात्रि टैक्सी में बैठी जा रही थी...
(अपने और अगस्त्य के अच्छे पलों को याद करते हुए...)
तभी उसके फोन पर एक कॉल आई।
रात्रि: "हेलो एवी...!"
एवी: "तुम हो कहाँ? और ठीक हो? तुम यहाँ आ जाओ, I promise मैं सब बता दूँगा!"
रात्रि (ठंडी आवाज में): "मुझे कुछ नहीं जानना..."
...और कॉल काट देती है।
एवी गुस्से में सोचता है:
जरूर अगस्त्य ने ही कुछ किया होगा...
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दूसरी तरफ,
अगस्त्य घर पहुँचा और सीधे जाकर हॉल के सोफे पर लेट गया।
अर्जुन बड़ी ख़ुशी से आता है और उसे बधाई देता है।
अर्जुन: "Congratulations भाई... आपका केस तो बनने से पहले ही ख़त्म हो गया!"
अगस्त्य (बिना रिएक्शन): "हम्म..."
अर्जुन: "क्या हुआ? आप खुश नहीं हो?"
अगस्त्य: "तुम्हारी मूवी का कितना शेड्यूल बचा है?"
अर्जुन: "अभी 60% बाकी है... पर क्यों?"
अगस्त्य: "नहीं, कुछ नहीं... शूटिंग शुरू करवाओ। और प्रोजेक्ट तुम्हारा वेट कर रहे हैं।"
अर्जुन: "जी भाई... मैं ट्राय कर रहा हूँ। पर और कौन से प्रोजेक्ट मेरा वेट कर रहे हैं?"
(वो देखता है — तब तक अगस्त्य गहरी नींद में जा चुका था।)
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दृश्य बदलता है — गरुड़ लोक।
गरुड़ शोभित: "तुम्हें इस लड़की से प्रेम करना है।"
वर्धान: "प्रेम...?"
गरुड़ शोभित: "हाँ... और इस तरह तुम्हें उसे गरुड़ लोक लाना होगा!"
वर्धान: "मैं कुछ समझा नहीं?"
गरुड़ शोभित (गंभीर होकर):
"ये लड़की कोई आम लड़की नहीं है, ये एक ब्रह्मवर्दानी है।
ये स्वर्ग लोक के दरवाज़े खोलने की ताक़त रखती है — और बीजापुर की दस पीढ़ियों के बाद पहली परी होगी।"
वर्धान (अचंभित होकर):
"क्या...? (मन में) तो क्या ये फूल बेचने वाली नहीं है?"
गरुड़ शोभित:
"तुम्हें इसे अपने प्रेम जाल में इस कदर राजी करना है कि ये तुम्हारे साथ गरुड़ लोक आकर स्वयं अपनी शक्तियों का त्याग करे।"
वर्धान को जैसे एक झटका लगता है — वो कुछ कदम पीछे हटता है।
वर्धान (गुस्से में):
"क्या... एक प्रेम जाल...?
पिताजी, आप ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं कि इतना नीच काम मैं करूँगा?
एक मासूम सी जान, जिसने अभी दुनिया को ठीक से देखा भी नहीं... मैं उसके साथ ऐसा छल करूँगा? कभी नहीं!"
...और वो जाने लगता है।
गरुड़ शोभित (ठंडी आवाज़ में):
"तुम नहीं करोगे तो ये लड़की तो जाएगी ही...
परंतु अपने कुल और अपने पूरे राज्य को लेकर मरेगी।"
वर्धान (मुड़कर): "क्या?"
गरुड़ शोभित:
"हाँ! ब्रह्मदेव ने इसके पूर्वजों को तपस्या से प्रसन्न होकर ये वरदान दिया था — बिना उसका दुष्परिणाम सोचे।
इसलिए, उनसे ये शक्तियाँ वापस लेने की ज़िम्मेदारी गरुड़ों को दी गई है।
अगर तुम असफल रहे तो इसके कुल और इस लड़की का भी सर्वनाश हो जाएगा।"
वर्धान:
"अगर ब्रह्मदेव को ये वरदान इतना ही ग़लत लगा तो उन्होंने दिया ही क्यों?"
गरुड़ शोभित:
"अब तुम धरती पर जा सकते हो...
किन्तु केवल प्रेमजाल के लिए!"
वर्धान धीरे-धीरे उनके पास आया और मासूम आवाज़ में बोला:
"पिताजी... मुझसे ये नहीं हो पाएगा! कृपया ऐसा मत करें!"
गरुड़ शोभित: "और क्यों नहीं होगा ये तुमसे?"
वर्धान:
"क्योंकि...
मैं जानता हूँ उसे।
मिला हूँ उससे।
और मैं उससे..."
गरुड़ शोभित ने अपने कान खोले:
"क्या...? तुम उससे क्या, वर्धान?"
वर्धान (मायूस होकर): "कुछ नहीं..."
...और वहाँ से चला गया।
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दूसरी तरंग
प्रणाली अपने कक्ष में उस शख़्स के बारे में सोच रही है जिसने उसे गरुड़ लोक में बचाया था।
प्रणाली (सोचती है):
"क्या वो सच में वर्धान था...?
पर एक किसान के बेटे का गरुड़ लोक में क्या काम?"
रात्रि (मन में):
"वो वर्धान नहीं था... तो वर्धान गया कहाँ...?
काश वो ठीक हो!"
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सुबह हुई।
रात्रि आज अपनी प्रजा के बीच जाने वाली है, ताकि उनकी बातें जान सके।
उसकी दासी माला वहाँ आई:
"राजकुमारी जी... सब तैयार है, क्या हम चलें?"
प्रणाली: "हाँ... मैं भैया से मिलकर आती हूँ, फिर चलते हैं।"
वो पारस के कक्ष में गई —
अब उसकी हालत पहले से बेहतर है। आँखें खुल रही हैं, पर शरीर साथ नहीं दे रहा।
प्रणाली उसके पास बैठी, प्यार से उसके माथे पर हाथ फेरते हुए:
"भैया... आज मैं आपकी प्रजा से मिलने जा रही हूँ।
आप जल्दी ठीक हो जाइए... मैं ज़्यादा दिन आपका काम नहीं कर सकती।"
पारस बस उसे देख रहा था... कुछ बोल नहीं पाया।
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दूसरी तरफ —
वर्धान भी धरती पर जाने के लिए तैयार था, तभी कोई पीछे से आया और उसे गले लगा लिया।
किसी की आवाज़: "मैंने तुम्हें बहुत याद किया...
तुम्हें तो ठीक होना ही था — मेरे लिए!"
वर्धान ने वो हाथ अपनी कमर से हटाया और मुड़ा...
वर्धान (आँखें घुमाते हुए):
"ओह! तो ये तुम हो, सय्युरी!"
सय्युरी (मुँह बनाते हुए):
"तो इस पूरे लोक में कौन तुम्हें ऐसे छू सकता है?"
वर्धान (गंभीर होकर):
"अभी तुम थोड़ा दूर हटो...
क्योंकि मुझे एक ज़रूरी काम है, मुझे जाना है।"
सय्युरी: "कहाँ जाना है?"
वर्धान बिना जवाब दिए आगे बढ़ने लगा।
सय्युरी उसे रोकती है:
"वर्धान!
तुम जानते हो ना कि हम एक-दूसरे से जुड़े हैं?
हमारी किस्मत साथ ही जुड़ी है!"
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