एक गर्म दोपहर थी। आसमान पर सूरज का राज था और ज़मीन पर पसीने की नदियाँ बह रही थीं। मैं अपने रोज़ के काम-काज से निकलकर एक जरूरी मुलाकात के लिए शहर के दूसरे छोर पर जा रहा था। वैसे तो मैं अक्सर अपनी गाड़ी से जाता हूँ, पर उस दिन कुछ तकनीकी खराबी के कारण मुझे ऑटो से जाना पड़ा।
मैंने सड़क किनारे खड़े एक ऑटो वाले से पूछा, “भाई, फलां जगह चलोगे?”
उसने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया, “हाँ साहब, बैठिए।”
“कितने पैसे लगेंगे?” मैंने आगे पूछा।
“साहब, ₹100 दे देना, सीधा छोड़ दूँगा।”
मुझे किराया वाजिब लगा। मैंने कहा, “ठीक है, चलो।”
ऑटो में बैठते ही मैंने चारों ओर नज़र दौड़ाई। ऑटो थोड़ा पुराना था, सीटों की गद्दियाँ घिसी हुई थीं और हैंडल के पास एक पुराना सा भगवान का फोटो टँगा था जिसके आगे अगरबत्ती की राख बिखरी पड़ी थी। उस माहौल में एक सादगी थी, जो शोर-शराबे भरी दुनिया से अलग थी। ड्राइवर लगभग चालीस-पैंतालीस साल का एक मरियल-सा इंसान था। उसके चेहरे पर थकावट साफ नज़र आ रही थी लेकिन उसमें एक अजीब-सी शांति भी थी।
रास्ते भर हम दोनों चुपचाप बैठे रहे। कभी-कभी वह ट्रैफिक से बचने के लिए कोई छोटा रास्ता लेता और मुस्कुरा कर कहता, “यहाँ से जल्दी निकल जाएंगे साहब।”
मंज़िल करीब आई तो मैंने अपनी जेब टटोली। मेरे पास केवल ₹500 का नोट था।
"भाई, छुट्टे हैं?" मैंने पूछा।
उसने धीरे से जवाब दिया, “नहीं साहब, मेरे पास अभी छुट्टे नहीं हैं। लेकिन आप ₹500 दे दो, मैं अभी नजदीकी दुकान से छुट्टे लाकर देता हूँ।"
मैं थोड़ा हिचकिचाया, पर उसके चेहरे की ईमानदारी और विनम्रता देखकर मैंने उसे ₹500 का नोट दे दिया।
“आप यहीं रुकिए साहब, मैं अभी आया।” यह कहकर वह ऑटो घुमा कर एक गली में मुड़ गया।
मैं खड़ा रहा… पांच मिनट… दस मिनट… बीस मिनट… पर वह वापस नहीं आया।
चारों तरफ नजर दौड़ाई, लोगों से पूछा, पर किसी ने कुछ नहीं देखा।
धीरे-धीरे मेरे अंदर शक घर करने लगा – “क्या उसने मुझे ठग लिया? क्या मैं बेवकूफ बन गया?”
मैं वहीं एक पेड़ के नीचे बैठ गया। गर्मी अब सिर चढ़कर बोल रही थी, लेकिन मेरे दिमाग में कुछ और ही तप रहा था। “₹500 कोई छोटी रकम नहीं होती,” मैंने खुद से कहा। फिर मन ने तर्क दिया – “लेकिन हो सकता है वह सच में छुट्टे लाने गया हो, कोई परेशानी आ गई हो, शायद वह लौट रहा हो।”
पर आधे घंटे बाद भी जब वह नहीं आया, तो मेरे दिल ने हार मान ली।
मैंने गहरी सांस ली। और अचानक मेरे अंदर एक अजीब-सी शांति छा गई। हाँ, उस क्षण में मेरे भीतर गुस्सा नहीं था, बल्कि एक तरह की सहानुभूति थी। मेरे मन ने एक कहानी बनानी शुरू की – हो सकता है वह आदमी बहुत परेशान हो… हो सकता है उसका बच्चा बीमार हो… हो सकता है उसकी पत्नी ने आज दवा के पैसे माँगे हों और उसके पास कुछ न रहा हो… हो सकता है उस ₹500 से आज उसका घर चल जाए…।
“अगर उसने बेईमानी की भी है, तो शायद मजबूरी में की हो…।”
मैं उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे अपने रास्ते बढ़ चला।
दिन बीतते गए। उस घटना को अब एक हफ्ता हो चुका था। मैं अपने जीवन में वापस व्यस्त हो गया था, लेकिन वह घटना कहीं न कहीं मेरे ज़हन में अटकी हुई थी।
एक दिन ऑफिस से घर लौटते समय मैं उसी गली से गुज़रा, जहाँ वह ऑटो वाला आखिरी बार मुड़ा था। न जाने क्यों मन किया कि एक बार फिर उस जगह देखूं।
मैंने वहाँ एक चाय की टपरी पर एक बुज़ुर्ग से पूछा, “बाबा, यहाँ एक ऑटो वाला रहता है क्या? थोड़ा साँवला, चालीस-पैंतालीस साल का…”
बुज़ुर्ग ने सिर हिलाया, “हाँ हाँ, श्यामू नाम है उसका। बहुत भला आदमी है। पिछले हफ्ते से नहीं दिखा। सुना है उसकी बीवी की तबीयत बहुत खराब थी, अस्पताल ले गया था।”
मैं चौंका। “अस्पताल कहाँ है?”
“यहाँ से दो किलोमीटर दूर, सिविल हॉस्पिटल,” उन्होंने कहा।
मैं बिना देर किए अस्पताल की ओर बढ़ गया। वहाँ पूछताछ कर के आखिर मैं उस वार्ड तक पहुँचा जहाँ एक कोने में वह बैठा हुआ था। उसके पास एक बिस्तर पर एक औरत लेटी थी – बेहद कमजोर, ऑक्सीजन मास्क के साथ।
वह मुझे देखकर चौंका। उठने लगा।
“नहीं, बैठे रहो,” मैंने कहा।
उसकी आँखें नम थीं।
“साहब… मैं… मैं पैसे लेकर वापस आना चाहता था… लेकिन…”
“कोई बात नहीं,” मैंने उसका कंधा थपथपाया।
“बीवी की हालत बहुत खराब हो गई थी… दवा लेनी थी तुरंत… मैंने सोचा था आपसे बाद में मिलकर पैसे लौटा दूँगा…”
मैंने उसकी आंखों में देखा – वहाँ कोई चालाकी नहीं थी। सिर्फ थकावट, डर और पश्चाताप था।
“श्यामू,” मैंने कहा, “तू वो ₹500 अपने परिवार पर खर्च कर चुका है – अब तू मुझे एक बात बता, अगर तेरी जगह मैं होता, और मेरे पास भी कोई चारा नहीं होता, तो क्या करता?”
वह चुप रहा।
“मैं जानता हूँ – वही करता जो तूने किया।”
वह फूट-फूट कर रो पड़ा।
मैंने जेब से एक लिफाफा निकाला, जिसमें ₹2000 थे।
“यह रख – अस्पताल के खर्च के लिए। इसे मदद मत समझ – इसे एक इंसान का दूसरे इंसान पर भरोसा समझ।”
उसने पैसे लेने से इनकार किया। पर मैंने ज़िद की।
मैं वहाँ से निकलने लगा तो उसने पीछे से कहा, “साहब, कभी किसी को मत कहिए कि मैंने आपको लूटा… क्योंकि आपने तो मुझे बचा लिया…”
मैं मुस्कुरा दिया।
उस दिन मैं घर अकेला नहीं लौटा। मेरे साथ लौटा एक नया रिश्ता – भरोसे का, करुणा का, और इंसानियत का।
₹500 की कीमत शायद किसी के लिए बहुत होगी, किसी के लिए कम। पर उस दिन, उन ₹500 ने मुझे एक बड़ा सबक सिखाया – कि इंसानियत आज भी ज़िंदा है, अगर हम आँखों से नहीं, दिल से देखें।और शायद, असली कमाई वही होती है जो आँसुओं को मुस्कान में बदल दे।