भूल-15
बेहद बुरा या कहें तो आपराधिक, कुप्रबंधित विभाजन
विभाजन लगभग 1.4 करोड़ हिंदुओं, सिखों एवं मुसलमानों के अचानक विस्थापन और उनकी संपत्तियों के नुकसान का कारण बना। एक अनुमान के अनुसार, करीब 10 से 30 लाख के बीच लोगों की हत्या और संहार का भी, हालाँकि इसका कोई दुरुस्त आँकड़ा मौजूद नहीं है और एक मुकम्मल गिनती करने का कभी प्रयास भी नहीं किया गया! पैट्रिक फ्रेंच ने लिखा—
“स्वतंत्र भारत और पाकिस्तान के निर्माण के दौरान मारे गए लोगों की संख्या को कभी प्रमाणित ही नहीं किया गया। इस नर-संहार के स्तर को कम करके दिखाना एटली, जिन्ना और नेहरू—तीनों की ही सरकारों के हित में था; क्योंकि जो कुछ भी घटित हुआ था, उसके लिए ये ही पूरी तरह से जिम्मेदार थे। जैसाकि मान सिंह, एक नेत्र विशेषज्ञ (पंजाब के विभाजन के शिकार) को याद है—‘मेरा व्यक्तिगत रूप से ऐसा मानना है कि यह राजनेताओं की गलती थी, जो सत्ता पाने को आतुर थे, विशेषकर श्री जिन्ना, जिन्होंने बिल्कुल किसी अंग्रेज लॉर्ड की तर्जपर अपनी पतलून की क्रीज तक खराब किए बिना एक देश पाने की उम्मीद की थी।’ (पी.एफ./348, 351)
दोनों ओर से शरणार्थियों को ला रही तथा ले जा रही ट्रेनों को लूटा गया और यात्रियों को जान से मार दिया गया। बड़े पैमाने पर सामूहिक अपमान, क्रूरता और बलात्कार हुआ। रावलपिंडी में तत्कालीन ब्रिटिश डी.आई.जी. जे.ए. स्कॉट ने कहा था, “मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि रावलपिंडी जिले के ग्रामीण इलाकों में रहनेवाले निर्दोष लोगों के साथ जिस प्रकार के बर्बर कृत्य हुए हैं, वैसे पंजाब में कभी हो भी सकते हैं।” (बाली/18)
आखिर जनसंख्या का हस्तांतरण क्यों नहीं?
जैसा डॉ. आंबेडकर का सुझाव था और मुसलिम लीग की माँग थी!
उम्मीद के मुताबिक हमारे अनभिज्ञ, अहिंसक गांधीवादी नेताओं ने लोगों को सुरक्षित रखने का जरा भी प्रयास नहीं किया। वे डॉ. आंबेडकर द्वारा कई वर्ष पर्वू ही अपनी पस्तु क ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन अॉफ इंडिया’ (आबे.3) में प्रस्तुत की गई आबादी के शांतिपर्णू हस्तांतरण की मनीषी और विस्तृत योजना पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकते थे। लकिे न नेताओं के रूप में एक ‘महात्मा’ और ‘वैज्ञानिक विचारधारा वाले, समझदार’ नेहरू के होते डॉ. आंबेडकर जैसे सही मायनों में समझदार व्यक्तियों की कौन सुनता! अगर चीजों को अच्छी तरह से योजनाबद्ध करके और पहले से भाँप लिया जाता तो कांग्स और मुस रे लिम लीग के बीच आबादी के सुचारु और व्यवस्थित हस्तांतरण के लिए एक अच्छा सा मसौदा तैयार किया जा सकता था (जैसाकि आंबेडकर ने अपनी पस्तु क में विस्तार से बताया था (आबे.3) जो संबंधित परिवारों और पक्षों की इच्छाओं व माँगों पर आधारित हो सकता था। इससे इतर अगर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि दो क्षेत्रों के बीच सत्ता के सुचारु हस्तांतरण के लिए समय बेहद कम है तो विभाजन और स्वतंत्रता को कुछ समय के लिए टाला भी जा सकता था। आखिर, इतनी हड़बड़ी मचाने की जरूरत क्या थी?
जनसंख्या के हस्तांतरण की इस प्रक्रिया के प्रस्ताव के पूर्व उदाहरण मौजूद थे—वर्ष 1913 के तुर्क-बुल्गारियाई सम्मेलन का पालन करते हुए मुसलमान बुल्गारियाई लोगों को तुर्की में बसाया गया था और इसके बदले में कई तुर्कों को बुल्गारिया स्थानांतरित किया गया था—और ऐसा करते हुए करीब 25 लाख लोगों को फिर से बसाया गया था। (पी.जी.3) मुसलिम-ईसाई जनसंख्या के हस्तांतरण का एक और उदाहरण था—30 जनवरी, 1923 को तुर्की और ग्रीस के बीच लुसाने की संधि पर हस्ताक्षर किया जाना, जिसमें लगभग 16 लाख लोग शामिल थे। (यू.आर.एल.74)
यहाँ पर ध्यान देनेवाली बात यह है कि मुसलिम लीग के नेता ‘जनसंख्या का हस्तांतरण’ चाहते थे। प्रफुल्ल गोराडिया लिखते हैं—“विभाजन के बाद की नेहरू की सरकार ने इस बात पर अपनी आँखें मूँद लीं कि (मुसलिम) लीग ने आबादी के हस्तांतरण को देश के विभाजन के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण मानते हुए उसकी माँग की है। हिंदुस्तान में रहनेवाले सभी मुसलमानों को पाकिस्तान जाना था और वहाँ के सभी गैर-मुसलमानों को हिंदुस्तान आना था। मुसलिम लीग के कम-से-कम आठ नेताओं—जिन्ना, फिरोज खाँ नून, ममदोट के नवाब, पीर इलाही बक्स, मोहम्मद इस्माइल, आई.आई. चुंद्रीगर, शौकत हयात खाँ और राजा शहजफर अली खाँ ने जनसंख्या के पूर्ण हस्तांतरण की माँग की थी।” (पी.जी.2/74) (पी.जी.4)
प्रफुल्ल गोराडिया अपने एक लेख में स्पष्ट करते हैं—“इसलिए मुसलमान नेताओं के लिए आबादी के हस्तांतरण का विचार न तो नया था और न ही आश्चर्यजनक। यहाँ तक कि पैगंबर मोहम्मद ने भी इसलाम की स्थापना करते हुए मक्का से मदीना तक हिजरत की थी। ‘डॉन’ की 3 दिसंबर, 1946 की खबर के मुताबिक, ‘इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं है कि ममदोट के खान इफ्तिकार हुसैन ने कहा था कि जनसंख्या का हस्तांतरण मुसलमानों की समस्या का एक बेहद व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करता है।’ ‘डॉन’ की 4 दिसंबर, 1946 की खबर के मुताबिक, ‘सिंधी नेता पीर इलाही बक्स का कहना था कि वे अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए आबादी के हस्तांतरण का स्वागत करते हैं, क्योंकि यह तमाम सांप्रदायिक उपद्रवों को समाप्त कर देगा।’ राजा गजनफर अली का भी बिल्कुल ऐसा ही मानना था, जो बाद में नई दिल्ली में पाकिस्तान के राजदूत बने। ‘डॉन’ ने 19 दिसंबर, 1946 को उनके भारत के आबादी मानचित्र के परिवर्तन के लिए कहने की खबर छापी थी। इन तमाम बयानों का निहितार्थ यह होता है कि लीग का उद्देश्य विभाजन के तुरंत बाद जातीय नर-संहार करने का था। यह इस बात से साबित होता है कि यह अनुमान सिर्फ एक कोरी अटकल ही नहीं थी कि सिर्फ दो या तीन वर्ष के भीतर ही पश्चिमी पाकिस्तान से लगभग सभी हिंदुओं को पूरी तरह से निकाल बाहर किया गया। जाहिर तौर पर, लीग के नेतृत्व को इस बात का भी डर था कि उनकी तरफ से किए गए जातीय नर-संहार की प्रतिक्रिया-स्वरूप हिंदुस्तान में भी ऐसा ही हो सकता है, जिसके चलते उनके मुसलमान भाइयों को अनगिनत मुसीबतों का सामना करना पड़ सकता है। बहरहाल, वे जिस दारुल-इसलाम की अवधारणा को पूरा करने की कोशिश कर रहे थे, वह उपमहाद्वीप के सभी मुसलमानों के लिए था। फिर क्यों जो गलती से भारत में रह गए हैं, उन्हें अनिश्चित काल के लिए नाउम्मीदी भरे दारुल-हर्ब में रहने के लिए मजबूर किया जाए? ममदोट या फिर पीर की ओर से कैसे भी छिटपुट खतरे तक का संकेत नहीं था। दूसरी तरफ, जिन्ना ने 25 नवंबर, 1946 को कराची में एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि केंद्रीय और प्रांतीय दोनों ही प्राधिकारियों को तुरंत ही जनसंख्या के हस्तांतरण के सवाल पर विचार करना चाहिए, जैसाकि ‘डॉन’ ने 26 नवंबर, 1946 को रिपोर्ट किया। सर फिरोज खाँ नून, जो बाद में प्रधानमंत्री बने, ने पहले ही 8 अप्रैल, 1946 को इस बात की धमकी दी थी कि अगर गैर-मुसलमान जनसंख्या हस्तांतरण के प्रति बाधा डालनेवाला रवैया दिखाते हैं तो चंगेज खाँ और हलाकू खाँ के खूनी खेल को दोहराया जाएगा। इस्माइल चुंद्रीगर, जो बाद में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के पद तक पहुँचने में कामयाब रहे, ने कहा था कि ब्रिटिशों को मुसलमानों को उन लोगों के रहमो-करम पर छोड़ने का कोई हक नहीं था, जिन पर उन्होंने 500 साल तक राज किया है। मद्रास के एक नेता मोहम्मद इस्माइल ने घोषणा की थी कि भारत के मुसलमान जेहाद के बीच में हैं। पंजाब के प्रधानमंत्री सिकंदर हयात खाँ के बेटे शौकत हयात खाँ ने ब्रिटिशों की भारत में मौजूदगी के दौरान ही मुसलमान हिंदुओं के साथ आखिरकार कैसा सुलूक कर सकते हैं, इसके पूर्वाभ्यास की धमकी दी थी। एक बात, जो स्पष्ट रूप से निकलकर सामने आई, वह यह थी कि आबादी का पूर्ण हस्तांतरण पाकिस्तान की माँग का एक अभिन्न हिस्सा थी।” (पी.जी.3) (पी.जी.4)
गांधी और नेहरू ने मुसलमानों पर वास्तविक उपकार किया होता, अगर उन्होंने उन्हें दारुल- हर्ब (भारत) में रहने के लिए मजबूर करने के बजाय दारुल-इसलाम (पाकिस्तान) जाने दिया होता—एक तो क्योंकि उनका मजहब ऐसा करने की इजाजत देता था और क्योंकि बहुत से गरीब मुसलमानों के पास सीमा के उस पार जाने के लिए आवश्यक साधन मौजूद नहीं थे। अफसोस की बात है कि गांधी और नेहरू वास्तव में इसलाम या फिर मुसलमान मनोविज्ञान से पूरी तरह से अनभिज्ञ थे और उन्होंने अपने अभिमान में अपने अपरिपक्व, अवास्तविक विचारों को उन पर थोप देना चुना, जिसके चलते भारत में मौजूद मुसलमानों और पाकिस्तान में मौजूद गैर-मुसलमानों के लिए ऐसी समस्याएँ निर्मित हो गईं, जिनका वर्णन भी नहीं किया जा सकता।
पूर्ण कुप्रबंधन, लेकिन किसी की कोई जवाबदेही नहीं
आखिर क्यों विभाजन के कुप्रबंधन के लिए जिम्मेदार (दोनों ही ओर के नेताओं) की पहचान नहीं की गई या फिर उन्हें इसके लिए जिम्मेदार ठहराया गया? आखिर क्यों पूरा दोष दोनों ही ओर की आम जनता और उनकी अमानवीयता पर डाल दिया गया? आखिर कैसे इसके लिए जिम्मेदार प्रमुख व्यक्ति माउंटबेटन दोष से बच सकता है और लॉर्ड बन सकता है? आखिर इस सबके लिए जिम्मेदार असल पक्ष ब्रिटिशों से मुआवजा क्यों नहीं माँगा गया?
विंस्टन चर्चिल ने माउंटबेटन पर 20 लाख भारतीयों की हत्या का आरोप लगाया था! (ए.ए./120) माउंटबेटन के आलोचक एंड्रयू रॉबर्ट्स ने टिप्पणी की थी, “माउंटबेटन के लंदन वापस लौटने पर उनका कोर्ट-मार्शल किया जाना चाहिए था।” (टुंज/252)
एक बार सभी संबंधित और प्रतिस्पर्धी पक्षों के बीच सैद्धांतिक रूप से विभाजन पर सहमति बन जाने के बाद इसे एक अच्छी तरह से सोचे-समझे, योजनाबद्ध और पेशेवर तरीके से अंजाम दिया जाना चाहिए था। इस काम की जिम्मेदारी प्रमुख रूप से ब्रिटिशों की होती थी, विशेषकर वायसराय माउंटबेटन की और इसके साथ ही दोनों सरकारों के प्रमुखों—नेहरू और जिन्ना की भी। बिना किसी शक के इसकी जिम्मेदारी कांग्रेस, मुसलिम लीग और अन्य बाकी सभी राजनीतिक दलों और संगठनों एवं उनके कार्यकर्ताओं की भी थी। दुर्भाग्य से, इन सभी ने जनता को निराश किया।
एक देश के विभाजन और एक नए देश के निर्माण जैसे काफी बड़े अभियान के लिए न तो कोई खाका खींचा गया और न ही लोगों एवं उनकी संपत्तियों इत्यादि की सुरक्षा और देखभाल के लिए, या फिर उन्हें पुनर्वास प्रदान करवाने के लिए कोई योजना तैयार की गई। इसे सिर्फ जल्दबाजी में और बेहद बेतरतीबी के साथ लागू कर दिया गया और लाखों लोगों के जीवन को दाँव पर लगा दिया गया।
इसके अलावा, एक कड़वा और दुर्भाग्यपूर्ण सच यह भी था कि भारत छोड़ने का फैसला कर लेने के बाद ब्रिटिश राज ने इसकी जरा भी परवाह नहीं की। उन्होंने सत्ता के हस्तांतरण से पहले ही ब्रिटिश सैनिकों को सक्रिय सेवा से हटाने और उन्हें स्वदेश वापस भेजने का फैसला किया था। अंग्रेज यहाँ से निकलने की बेहद जल्दी में थे। अगर वे अत्याचार और शोषण करने के लिए दो सदियों तक यहाँ रुक सकते थे तो उन्हें नुकसान की भरपाई के रूप में भारतीयों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कुछ और महीने यहाँ रुकने में क्या परेशानी थी? लेकिन माउंटबेटन और ब्रिटिशों को भारतीयों की जरा भी चिंता नहीं थी। उन्होंने सिर्फ बचे हुए ब्रिटिशों को सुरक्षित करने लायक ब्रिटिश सैनिकों को ही रखा। एक बार यहाँ से छोड़ने का फैसला कर लेने के बाद ब्रिटिश राज ने ब्रिटिश जीवनों को जरा भी जोखिम में नहीं डाला। अगर हिंदू मुसलमान एक-दूसरे को मारने, लूटने और बलात्कार करने में व्यस्त थे तो ऐसा ही सही! यह दिखाता है कि उनकी गैर-मौजूदगी में स्थितियाँ किस कदर खराब हुई होतीं! ब्रिटिश उपनिवेशवाद एक बेहद ही क्रूर, लालची और स्वार्थी प्रकल्प था। आखिर क्यों कई-कई दशकों तक भारत में करोड़ों लोगों के लिए कानून-व्यवस्था को सँभालनेवाले ब्रिटिश इस महत्त्वपूर्ण मोड़ पर आकर असफल हो गए?
ब्रिटिश राज पर कर्तव्य-विमुखता का आरोप लगाते हुए सरदार पटेल ने बेहद तल्खी के साथ माउंटबेटन से शिकायत की, “जब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों को नीचा दिखाने की बात आती थी तो ब्रिटिशों को जरा सी भी परेशानी नहीं होती थी।”
फिर भी, गौर करनेवाली बात यह है कि आखिर क्यों भारतीय और पाकिस्तानी नेता, जिनके लोगों को इस त्रासदी से सबसे अधिक प्रभावित होना था, दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ने में असफल रहे? भविष्य के गर्त में क्या छिपा हुआ है, उन्हें इसका अंदाजा तो उसी से हो जाना चाहिए था, जो अगस्त 1946 में कलकत्ता में ‘डायरेक्ट ऐक्शन डे’ के बाद हुआ था, जो पूर्वी बंगाल के नोआखाली और बिहार तथा देश के कई अन्य हिस्सों में दशकों बाद तक होता आया, जिनमें केरल के मलाबार में 1920 के दशक का सबसे भयानक मोपला विद्रोह शामिल था, जिसमें मुसलमानों ने हिंदुओं को बुरी तरह से काट डाला था! क्या उन्हें इस बात की जरा भी जानकारी नहीं थी कि अगर वे पर्याप्त सावधानी नहीं बरतते तो क्या हो सकता है? आखिर उन्होंने क्या सावधानी और एहतियात बरती?
नीचे जो वर्णित किया गया है, अगर वह संभव था तो फिर क्यों हजारों लोगों को बुरी तरह से प्रताड़ित होने और मार डालने के लिए छोड़ दिया गया? इसे एलिस एल्बीनिया के ‘एंपायर्स अॉफ द इंडस’ से लिया गया है—
“वर्ष 1947 में हमीदा अख्तर हुसैन रामपुरी एक युवा माँ थीं। वे विभाजन के बाद अपने परिवार के साथ अलीगढ़ से कराची पहुँची थीं। शिक्षा मंत्रालय में कार्यरत एक नौकरशाह की पत्नी होने के चलते हमीदा को कराची की जानकारी तुलनात्मक रूप से ठीक-ठाक थी। उन्हें दिल्ली से लानेवाली ट्रेन उन प्रारंभिक ट्रेनों में से थी, जिन पर हमला किया गया था। लेकिन चूँकि उसमें सिर्फ सरकारी कर्मचारी सवार थे, इसलिए उसे सेना से पूरी तरह से लैस किया गया था। वे कहती हैं, ‘एक सज्जन कराची के रेलवे स्टेशन पर नेपियर बैरक्स के हमारे घर की चाबियों के साथ हमारा इंतजार कर रहे थे और एक अन्य हमारा राशन कार्ड लिये खड़े थे।’ इसके चलते वह परिवार एक बिल्कुल नए देश में बस गया, वह भी आशा से भरा हुआ।” (ए.ए./15)
कहने का तात्पर्य यह है कि अगर सभी ट्रेनों की सुरक्षा की व्यवस्था चाक-चौबंद होती, जैसाकि उपर्युक्त मामले में था, तो हजारों लोगों की मौत, लूट और बलात्कारों से बड़ी आसानी से बचा जा सकता था। बिल्कुल इसी प्रकार अगर ठीक तरीके से योजना तैयार की गई होती और पहले से ही एक बड़े और मजबूत, सैन्य, अर्ध-सैनिक, पुलिस या फिर सशस्त्र स्वयंसेवक बल को बेहतर तरीके से तैनात कर दिया गया होता, जिसमें उनकी सहायता के लिए राजनीतिक नेता, सामाजिक कार्यकर्ता और स्वयंसेवक शामिल होते तो अन्य त्रासदियों में से अधिकांश से भी बचा जा सकता था।
लेकिन ऐसा करने के बजाय माउंटबेटन और उनके ब्रिटिश कर्मचारियों ने इसके बिल्कुल उलट किया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि विभाजन से पहले ही सभी ब्रिटिश सैनिकों को वापस भेज दिया जाए। पंजाब के अंतिम गवर्नर सर इवान मेरेडिथ जेनकिंस ने माउंटबेटन को यह सलाह दी थी (उनका भी बिल्कुल यही मानना था), “मुझे ऐसा लगता है कि हमें ब्रिटिश सैनिकों को राहत (वापसी) को अधिक समय तक टालने से बचना बुद्धिमानी होगा। अगर इस राहत के दौरान ही बड़े पैमाने पर गड़बड़ शुरू हो जाती है तो यह बेहद अनुपयुक्त होगा, इसलिए मेरी अपनी सलाह, जुलाई (1947) के अंत से पहले ही बदलाव करने की होगी।” (वोल्प 3/165)
संभावित गड़बड़ियों ने निबटने और उन्हें नियंत्रित करने के लिए सैनिकों की पर्याप्त संख्या सुनिश्चित करने के बजाय नेहरू ने बड़ी भव्यता और गैर-जिम्मेदाराना तरीके से घोषणा की थी, “मैं आवश्यक समय से एक क्षण भी अधिक एक भी ब्रिटिश सैनिक को भारत में रखने के बजाय भारत के हर गाँव को आग में झुलसते हुए देखना पसंद करूँगा।” लेकिन अगर नेहरू आजादी के बाद भी गवर्नर जनरल के सर्वोच्च पद (जून 1948 तक) पर खुद आसीन रहने और सेना के सर्वोच्च पदों को ब्रिटिशों के पास रहने देने में खुश थे तो फिर बेचारे नागरिकों को बचाने के लिए सैनिकों में क्यों नहीं?
इसके अलावा माउंटबेटन, नेहरू और कांग्रेस को भारतीयों को शामिल करके पुलिस और सेना की ताकत बढ़ाने की योजना क्यों नहीं बनानी चाहिए थी। आई.एन.ए. के लौटते हुए पूर्ण प्रशिक्षित सैनिक भी आसानी से उपलब्ध थे। लेकिन ब्रिटिश और कांग्रेस (विशेषकर नेहरू) का नेताजी सुभाष बोस और उनकी आई.एन.ए. से जुड़ी किसी भी चीज के प्रति पूर्वाग्रह इसमें आड़े आ गया।