Nehru Files - 32 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-32

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नेहरू फाइल्स - भूल-32

भूल-32 
तो एक और पाकिस्तान (हैदराबाद) होता 

हैदराबाद रियासत की स्थापना मीर कमरुद्दीन चिन किलिच खान ने की थी, जो औरंगजेब के जनरल गाजी-उद-दीन खान फिरोज जाग के पुत्र थे, जिन्होंने अबू बकर, पहले खलीफा, में अपनी वंश परंपरा का पता लगाया था। हैदराबाद राज्य सबसे पहले सन् 1766 में ब्रिटिशों की अधीनता में आया। हालाँकि ब्रिटिशों के साथ अपनी संधि को तोड़ते हुए निजाम ने सन् 1767 में मैसूर के हैदर अली के साथ खुद को जोड़ लिया। सन् 1768 में ब्रिटिशों ने उनकी संयुक्त सेना को हरा दिया और हैदराबाद राज्य फिर से अंग्रेजों के कब्जे में आ गया। निजाम ने सन् 1799 में टीपू सुल्तान को हराने में ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद की। आजादी के समय सातवें निजाम मीर उस्मान अली खान राज्य पर शासन कर रहे थे। उन्हें ‘ब्रिटिश सरकार का वफादार सहयोगी’ की उपाधि मिली हुई थी। 

आजादी के समय हैदराबाद एक प्रमुख रियासत थी, जिसका क्षेत्रफल लगभग 2,14,000 वर्ग किलोमीटर, 1.6 करोड़ की आबादी और वार्षिक राजस्व 26 करोड़ रुपए का था। इसका अपना सिक्का, कागज की मुद्रा और मुहर थे। इसकी 1.6 करोड़ की आबादी में 85 प्रतिशत हिंदू थे। इसके बावजूद पुलिस, सेना और सिविल सेवा पर लगभग पूरी तरह से मुसलमानों का आधिपत्य था। यहाँ तक कि सन् 1946 में स्थापित की गई इसकी विधानसभा में मुसलमान सिर्फ 15 प्रतिशत होने के बावजूद बहुमत में थे। 

3 जून, 1947 की योजना या जिसे भारत के विभाजन की ‘माउंटबेटन की योजना’ भी कहा जाता है, की घोषणा होने के तुरंत बाद ही निजाम ने 12 जून, 1947 को घोषित किया कि वह न तो भारत में और न ही पाकिस्तान में शामिल होंगे, बल्कि स्वतंत्र रहेंगे। वे ब्रिटिशों से अपने राज्य के बिल्कुल वैसा ही डोमिनियन दर्जा पाना चाहते थे, जैसाकि विभाजित भारत और पाकिस्तान के लिए प्रस्तावित किया गया था; हालाँकि किसी भी रियासत के लिए ऐसा करने की अनुमति नहीं थी। 

रजाकार और निजाम 
एक कट्टरपंथी मुसलमान संगठन ‘मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलिमीन’, जिसका नेतृत्व कासिम रजवी कर रहा था, लगातार उपद्रव मचा रहा था। आगे जाकर इन्हें ही ‘रजाकार’ के नाम से जाना जाने लगा। निजाम ने कासिम रजवी के कहने पर मीर लईक अली को प्रधानमंत्री और अपनी कार्यकारी परिषद् का अध्यक्ष नियुक्त किया। लईक अली एक हैदराबादी व्यवसायी था, जो सितंबर 1947 तक संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान का प्रतिनिधि भी रहा था। इसके साथ ही हैदराबाद सरकार एक प्रकार से रजवी के हाथों में आ गई, जो बाद में दिल्ली में सरदार पटेल और वी.पी. मेनन से यह कहने के लिए मिला कि हैदराबाद कभी भी अपनी आजादी का समर्पण नहीं करेगा और यह भी कि हिंदू निजाम के राज में बेहद खुश हैं। लेकिन अगर भारत ने जनमत-संग्रह करवाने पर जोर दिया तो अंतिम परिणाम का फैसला तलवार की नोक पर तय होगा। रजवी ने सरदार पटेल से यह भी कहा, “हम अंतिम व्यक्ति तक लड़ेंगे और मरेंगे।” जिस पर पटेल ने जवाब दिया, “मैं आपको आत्महत्या करने से कैसे रोक सकता हूँ!” (आर.जी./476) 

मार्च 1948 और उसके बाद के अपने भाषणों में कासिम रजवी ने मुसलमानों से ‘एक हाथ में कुरान और दूसरे में दुश्मनों को साफ करने के लिए तलवार, लेकर आगे बढ़ने का आह्व‍ान किया। उसने घोषणा की, “किसी भी काररवाई की स्थिति में भारत के 4.5 करोड़ मुसलमान हमारे गुप्त साथी होंगे।” (बी.के.2/138) रजवी ने चुनौती दी, “अगर भारतीय गणराज्य ने हैदराबाद में घुसने की कोशिश की तो उसे और कुछ नहीं, बल्कि राज्य में रह रहे 1.5 करोड़ हिंदुओं की हड्ड‍ियाँ और राख ही मिलेंगी।” (बी.के./408) उसने 12 अप्रैल, 1948 को दावा किया, “वह दिन अब दूर नहीं है, जब बंगाल की खाड़ी की लहरें हमारे शासक के पैर धो रही होंगी।” (बी.के./409) और यह भी कि “वह भारत में लाल किले पर आसफ जाही झंडा फहराएगा।” रजाकारों ने अपनी हिंदू-विरोधी आपराधिक गतिविधियाँ जारी रखीं। (बी.के./409) 

निजाम ने अपने ब्रिटिश और मुसलिम सलाहकारों के कहने पर अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए कई योजनाएँ तैयार कर रखी थीं—गोवा में पुर्तगाल से बंदरगाह सुविधाएँ प्राप्त करना; हैदराबाद से गोवा तक रेल गलियारे के लिए स्वीकृति प्राप्त करना; खनिज-युक्त बस्तर में खान लीज हासिल करना; अधिक वायु-क्षेत्र तैयार करना; हथियार प्राप्त करना; सेना में अधिक मुसलमानों की भरती; ब्रिटिश सैनिकों की भरती; अन्य राज्यों के मुसलमानों को बुलाकर हैदराबाद राज्य में बसाना; दलितों को इसलाम में परिवर्तित करना; गैर-मुसलमानों को डराने के लिए स्थानीय मुसलमानों, पठानों एवं अरबों को शामिल करते हुए मिलीशिया तैयार करना; हिंदुओं को हैदराबाद से निकाल बाहर करना इत्यादि। 

मीर लईक अली ने डींग मारते हुए दावा किया, “अगर भारत सरकार हैदराबाद के खिलाफ कोई कदम उठाती है तो हमारी सेना में शामिल होने के लिए 1 लाख आदमी बिल्कुल तैयार बैठे हैं। इसके अलावा, हमारे पास बंबई पर बमबारी करने के लिए सऊदी अरब में भी 100 बमवर्षक विमान तैयार हैं।” (यू.आर.एल.16) 

निजाम-ब्रिटिश-माउंटबेटन-नेहरू बनाम सरदार पटेल 
वी.पी. मेनन ने लिखा— 
“सरदार ने थोड़े तैश में आते हुए कहा, ‘आप और मैं दोनों ही यह बात अच्छे से जानते हैं कि शक्ति किसके पास है और हैदराबाद में वार्त्ता का नतीजा किसके पक्ष में जाना तय है। वह व्यक्ति (कासिम रजवी), जिसकी हैदराबाद में तूती बोलती थी, अपना जवाब दे चुका था। उसने बेहद स्पष्ट रूप से यह बात कही है कि अगर भारतीय डोमिनियन हैदराबाद में आता है तो उन्हें वहाँ पर 1.5 करोड़ हिंदुओं की हड्ड‍ियों एवं राख के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा। अगर वास्तव में ऐसा है तो यह निजाम और उसके पूरे वंश के भविष्य के लिए बेहद खतरनाक होगा। मैं आपसे यह बात बिल्कुल स्पष्ट रूप से सिर्फ इसलिए कह रहा हूँ, ताकि आप किसी प्रकार की गलतफहमी में न रहें। हैदराबाद की समस्या को भी बिल्कुल वैसे ही सुलझाना होगा, जैसेकि बाकी के राज्यों के मामले में किया गया है। और कोई तरीका अपनाना संभव नहीं है। हम एक ऐसी बिल्कुल अलग जगह को बने रहने की अनुमति नहीं दे सकते, जो उस गणराज्य की अवधारणा को ही खत्म कर देगा, जिसे हमने अपने खून-पसीने से सींचकर तैयार किया है। इसी के साथ, हम मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखना चाहते हैं और एक दोस्ताना समाधान भी चाहते हैं; लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम कभी भी हैदराबाद की स्वतंत्रता के लिए सहमत होंगे। अगर स्वतंत्र स्थिति बनाए रखने की इसकी माँग ऐसे ही बनी रहती है तो इसका विफल होना तय है।’ (वी.पी.एम.1/242)। लेकिन जब कभी भी हैदराबाद के मामले में किसी भी प्रकार की काररवाई की तैयारी की जाती तो उसे रोक देने के लिए सांप्रदायिकता के हौवे को खड़ा कर दिया जाता।” (वी.पी.एम.1/254) 

अपने पाकिस्तान समर्थक रवैए की ही तरह ब्रिटेन के मीडिया में कई प्रमुख ब्रिटिश नेता हैदराबाद के समर्थन और भारत के विरोध में थे। हैदराबाद उनका सबसे वफादार सहयोगी था और वे चाहते थे कि यह स्वतंत्र और ब्रिटेन का समर्थक रहे। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि यह भारत के हृदय पर कैंसर है और इसकी 85 प्रतिशत से भी अधिक आबादी हिंदू है। उनके और पाकिस्तान के रुख तथा समर्थन ने रजाकारों एवं निजाम को और अधिक प्रोत्साहित किया। 

माउंटबेटन ने जम्मू व कश्मीर में पाकिस्तानी हमलावरों और हैदराबाद में रजाकारों के बेहद अनैतिक, अवैध, यहाँ तक कि बर्बर कृत्यों को लेकर अपना मुँह तक नहीं खोला। वह भारत को अपनी नैतिक सीख देने के मामले में बिल्लकु उदार रहा और भारत से चाहता था कि वह ‘हैदराबाद के प्रति नैतिक एवं अच्छे व्यवहार का प्रदर्शन करे और इस प्रकार की काररवाई करे, जिसका वैश्विकी मंच पर बचाव किया जा सके।” (बी.के./129) 

‘माय रेमिनिसेंसिस अ‍ॉफ सरदार पटेल’ में वी. शंकर लिखते हैं (शैन)— 
“हैदराबाद ने ब्रिटिशों की चीजों की आयोजन पद्धति में एक विशेष स्थान पर कब्जा कर लिया था और लॉर्ड माउंटबेटन के दिल के बेहद करीब था। एक ‘वफादार सहयोगी’ की अवधारणा प्रत्येक महत्त्वपर्णू ब्रिटिश के जेहन पर हावी थी। अन्य सभी शासकों की नजर इस बात पर लगी हुई थी कि इसे अन्य राज्यों से अलग स्थिति के रूप में स्वीकार करेगा। 
“आखिरकार, हैदराबाद के मामले को लेकर पं. नेहरू और दिल्ली में बैठे कुछ अन्य लोग एक विशेष राह अपनाने वाले थे। इसमें श्रीमती सरो‌जनी नायडू और पद्मजा नायडू, जिनके लिए नेहरू के दिल में विशेष स्थान था, भी प्रभावहीन नहीं थीं। इसके अलावा, कुछ अन्य ताकतें भी थीं, जो राज्य के मुसलमानों की विशेष स्थिति की तरफ इशारा करने में जरा भी पीछे नहीं रहती थीं या फिर हिचकिचाती नहीं थीं। हैदराबाद के मुसलमान आबादी के प्रति लॉर्ड माउंटबेटन की समझी जानेवाली सहानुभूति, जो पाकिस्तान से अपरोक्ष रूप से भी संबंधित किसी भी चीज के मामले में पं. नेहरू द्वारा भी साझा की जाती थी। वे जहाँ तक संभव हो सके, वहाँ तक समझौते और सुलह के लिए तैयार थे।” (शैन) 

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नेहरू ने कभी भी कश्मीर के महाराजा के प्रति ऐसा अच्छा व्यवहार नहीं दिखाया। इसके बजाय वे कश्मीर के महाराजा के प्रति अनुचित तरीके से शत्रुतापूर्ण थे और शेख अब्दुल्ला के प्रति अनावश्यक रूप से दोस्ताना और भाईचारे से भरे; लेकिन निजाम के प्रति बिल्कुल उदासीन, जिसके राज में निर्दोष हिंदुओं को रजाकारों और मिलिशिया द्वारा आतंकित किया जा रहा था। 
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माउंटबेटन, जो रक्षा समिति के अध्यक्ष भी थे, ने दर्ज किया था— 
“पं. नेहरू ने बैठक में खुले तौर पर कहा और बाद में निजी तौर पर मुझे आश्वासन भी दिया कि जब तक वास्तव में कोई घटना घटित नहीं होती है, जैसे कि राज्य में बड़े पैमाने पर हिंदुओं का नर-संहार, जो बाकी की दुनिया की नजरों में भारत की किसी भी काररवाई को उचित ठहराने में सहायक साबित हो, वे किसी भी काररवाई को शुरू करने का आदेश जारी नहीं करेंगे।” (आर.जी./480-81) 

दुनिया क्या सोचेगी? माउंटबेटन ने क्या सोचा होगा? उनकी अपनी छवि का क्या? नेहरू के लिए ये बातें अधिक महत्त्वपूर्ण थीं। आखिर वे इसके बिल्कुल उलट क्यों नहीं सोच सकते थे—यह कि दुनिया भारत को अपनी हिंदू आबादी, जो भुक्तभोगी थी, की अनदेखी कर देने के चलते एक कायर और मूर्ख के रूप में देखेगी! 

वर्ष 1948 आने तक सरदार पटेल निजाम के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत से बेहद तंग आ चुके थे और वार्त्ताओं को तोड़ना चाहते थे। वहीं दूसरी तरफ, माउंटबेटन ने और अधिक समय माँगा। क्यों? ब्रिटिश अपने वफादार सहयोगी को नाराज नहीं करना चाहते थे। सरदार पटेल निर्णय लेनेवाले अकेले व्यक्ति नहीं थे; गांधी, नेहरू, माउंटबेटन सहित अन्य भी मौजूद थे। सरदार की आपत्तियों के बावजूद नवंबर 1947 में भारत और हैदराबाद के बीच एक साल के लिए स्टैंडस्टिल (यथास्थिति बनाए रखने) के समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। इसके बाद आनेवाले महीनों के दौरान हैदराबाद ने पाकिस्तान को 20 करोड़ रुपए का ऋण दिया, हथियारों के लिए अ‍ॉर्डर दिए और रजाकारों के जरिए अपनी नापाक हिंदू-विरोधी गतिविधियों को करना जारी रखा। 

कई प्रतिनिधिमंडलों ने हैदराबाद के साथ कई प्रस्तावों पर चर्चा की, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। माउंटबेटन ने भी प्रयास किया, लेकिन असफल ही रहे। आखिरकार, अपना कार्यकाल पूरा होने पर माउंटबेटन 21 जून, 1948 को भारत से चले गए। लेकिन यहाँ से जाने से पहले उन्होंने अपने लिए विदाई के तोहफे के रूप में सरदार पटेल से ऐसे दस्तावेज पर हस्ताक्षर करवाने का एक और प्रयास किया, जिसकी शर्तें निजाम के बेहद अनुकूल थीं। सरदार ने यह जानते हुए दस्तखत कर दिए कि जिद्दी निजाम उन शर्तों को मानने से इनकार कर देगा। निजाम ने उस दस्तावेज को भी अस्वीकार कर दिया! ऐसा होते ही सरदार ने इस बात की घोषणा कर दी कि भविष्य में हैदराबाद के साथ बिल्कुल वैसा ही व्यवहार किया जाएगा, जैसा अन्य रियासतों के साथ किया जा रहा है, न कि किसी विशेष रियासत के रूप में। 

के.एम. मुंशी को वह दिन याद है, जब माउंटबेटन के चले जाने के एक दिन बाद उन्होंने पटेल को फोन किया और पटेल ने चहकते हुए जवाब दिया, “और बताओ मुंशी, तुम कैसे हो? सब ठीक है? तुम्हारा निजाम कैसा है?” के.एम. मुंशी उस समय हैदराबाद में भारत के एडजुटेंट जनरल थे। जब मुंशी ने पटेल से निजाम की ओर से ‘माउंटबेटन सेटलमेंट’ से जुड़े सवाल के बारे में पूछा तो पटेल ने हँसते हुए जवाब दिया, “उन्हें (निजाम को) बताइए कि समझौता करनेवाला इंग्लैंड चला गया है। वे शर्तें और वह बातचीत, जो माउंटबेटन ने की थीं, वे भी उनके साथ ही चली गई हैं। निजाम के साथ समझौता अब सिर्फ उन्हीं शर्तों के आधार पर होगा, जिनके आधार पर बाकी की रियासतों के साथ हो रहा है।” (बी.के.2/140-41) 

अ‍ॉपरेशन पोलो : सरदार पटेल को श्रेय 
कार्यवाही करने के प्रति नेहरू की अनिच्छा से तंग आकर पटेल ने 21 जून, 1948 को वी.एन. गाडगिल को लिखा— 
“मैं हैदराबाद को लेकर अधिक चिंतित हूँ। अब वह समय आ चुका है, जब हमें एक मजबूत और पुख्ता काररवाई करनी होगी। जरा भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए; और काररवाई जितनी अधिक सार्वजनिक होगी, उसका हमारे लोगों के मनोबल पर उतना ही अधिक प्रभाव पड़ेगा—यहाँ भी और हैदराबाद में भी। इससे हमारे विरोधियों को इस बात का विश्वास होगा कि हम सचमुच कुछ करने का इरादा रखते हैं। हमारी काररवाई को लेकर जरा भी अनिश्चितता और शक्ति के स्तर पर कोई कमी नहीं होनी चाहिए। यहाँ तक कि अगर हम अब भी आराम की मुद्रा में आते हैं तो ऐसा करके हम न सिर्फ अपने देश के साथ धोखा कर रहे हैं, बल्कि अपनी खुद की कब्र भी खोद रहे हैं।” (बी.के.2/141) 

जे.वी. जोशी ने निजाम की कार्यकारी परिषद् से दिए गए अपने इस्तीफे में लिखा कि कई जिलों की कानून-व्यवस्था की स्थिति बिल्कुल ध्वस्त हो चुकी है और निजाम के पुलिसकर्मी (जिसमें लगभग सिर्फ मुसलमान ही शामिल हैं) रजाकारों के साथ मिलकर हिंदुओं की संपत्ति की लूट और उनकी हत्या कर रहे हैं; साथ ही उनकी महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार भी कर रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि उन्होंने ऐसे दृश्य अपनी खुद की आँखों से देखे हैं, साथ ही ऐसे दृश्य भी देखे हैं, जिनमें ब्राह्म‍णों की हत्या कर उनकी आँखें तक निकाल ली गईं। ऐसा अनुमान लगाया गया था कि लगभग 40,000 की संख्यावाले हैदराबाद के सैन्य बलों के अलावा छोटे हथियारों से लैस करीब 2,00,000 रजाकार और बाद में बड़ी संख्या में बुलाए गए पठान भी इसमें शामिल थे। भारत के लिए उस खून-खराबे के प्रति आँखें मूँदे रहना अब नैतिक रूप से काफी कठिन हो गया था, जो वर्ष 1948 तक और भी अधिक खराब हो गया था। 

किसी भी कार्यवाही के प्रति नेहरू और ब्रिटिश का विरोध 
हैदराबाद के मुद्दे को सुलझाने के लिए भारत द्वारा बल-प्रयोग के बारे में वी. शंकर ने लिखा(शैन)— 
“इस काम से जुड़े सभी कर्मचारियों को सतर्क कर दिया गया था और समय- निर्धारण इस बात पर निर्भर करता था कि सरदार इस दिशा में सी. राजगोपालाचारी, जो लॉर्ड माउंटबेटन के बाद गवर्नर जनरल बने थे, के विरोध को दूर करने में कितना समय लेते हैं; साथ ही पं. नेहरू के भी, जिन्हें सी. राजगोपालाचारी के रूप में हैदराबाद के प्रति अपनी अहिंसक नीति का एक बौद्धिक समर्थक मिल गया था।” शंकर एक सवाल के बदले सरदार द्वारा दी गई प्रतिक्रिया का उल्लेख करते हैं—“कई लोगों ने मुझसे यह सवाल पूछा है कि हैदराबाद में क्या होने वाला है? वे इस बात को भूल जाते हैं कि मैं जब जूनागढ़ में बोल रहा था तो मैंने बिल्कुल स्पष्ट तौर पर यह कहा था कि अगर हैदराबाद खुद को नहीं सुधारता है तो उसे भी आखिरकार जूनागढ़ के रास्तेपर ही चलना होगा। मेरे वे शब्द अभी भी दृढ़मत हैं और मैं अपने उन शब्दों पर कायम हूँ। 

“ ...हैदराबाद में स्थिति अब अपने अंत की ओर अग्रसर थी। सरदार पटेल के निरंतर दबाव और नेहरू तथा राजाजी के विरोध के बावजूद हैदराबाद पर धावा बोलने का फैसला लिया गया और ऐसा करने का मकसद राज्य को उस अनिश्चितता की स्थिति से बाहर निकालने के साथ-साथ स्थानीय आबादी पर होनेवाले अत्याचारों को रोकना भी था, जो तब तक रोजमर्रा की बात बन चुके थे।” (शैन) 

एम.के.के. नायर लिखते हैं—“भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ बुचर नामक एक अंग्रेज थे और दक्षिणी कमांड के प्रमुख थे लेफ्टिनेंट जनरल राजेंद्र सिंहजी। पटेल यह बात जानते थे कि नेहरू कभी भी सैन्य हस्तक्षेप के लिए राजी नहीं होंगे; लेकिन उन्होंने इसके बावजूद राजेंद्र सिंहजी को वी.पी. मेनन के जरिए निर्देश भिजवाया कि वे आवश्यकता पड़ने पर किसी भी काररवाई के लिए बिल्कुल तैयार रहें। दक्षिण में तैनात फर्स्ट आर्म्ड डिवीजन की कमान मेजर जनरल जे.एन. चौधरी के हाथों में थी और राजेंद्र सिंहजी ने उसे युद्ध के लिए तैयार रखने का फैसला किया।” (एम.के.एन.) 

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8 सितंबर, 1948 को आयोजित मंत्रिमंडल की बैठक में एक तरफ जहाँ पटेल के नेतृत्ववाले रियासती मंत्रालय ने हैदराबाद पर कब्जे के लिए दबाव डाला, ताकि वहाँ हो रही गड़बड़ियों को खत्म किया जा सके, वहीं नेहरू ने इस कदम का कड़ा विरोध किया और वे रियासती मंत्रालय (सरदार पटेल के अधीन) के रवैए से बेहद खफा थे। 
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एम.के.के. नायर ने यह भी लिखा—“पटेल का मानना था कि निजाम की मनमानी को खत्म करने के लिए सेना को भेजा जाना आवश्यक है। और बिल्कुल उसी समय निजाम ने अपना एक दूत पाकिस्तान भेजा तथा लंदन स्थित अपनी सरकार के खाते से एक बड़ी राशि पाकिस्तान भेजी। पटेल ने मंत्रिमंडल की एक बैठक में इन सभी घटनाओं के बारे में जानकारी दी और सलाह दी कि हैदराबाद में फैले आतंक के राज के खात्मे के लिए सेना का भेजा जाना आवश्यक है। अकसर स्थिर, शांत और शिष्ट रहनेवाले नेहरू आत्म-नियंत्रण खो बैठे और बोले, ‘आप पूरी तरह से सांप्रदायिक हैं और मैं आपकी सलाह नहीं मानूँगा।’ पटेल पूरी तरह से बेफिक्र बने रहे और अपने कागजों के साथ कमरे से बाहर चले गए। उन्होंने उसके बाद से मंत्रिमंडल की बैठकों में भाग लेना और यहाँ तक कि नेहरू से बात करना भी बंद कर दिया।” (एम.के.एन.) 

कुलदीप नैयर ने लिखा—“उस समय प्रसारित होनेवाली रिपोर्टों में यह कहा गया था कि इसके बावजूद नेहरू तब तक हैदराबाद में सेना भेजने के पक्ष में नहीं थे, जब तक कि इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में नहीं ले जाया जाए। यह बात भी सच है कि पटेल ‘भारत सरकार के कुछ न करो’ वाले रवैए से भी झुँझलाए हुए थे।” (के.एन.) 

सरदार पटेल की बेटी की ‘द डायरी अ‍ॉफ मणिबेन पटेल : 1936-50’ में कहा गया है—
“हैदराबाद को लेकर बापू (उनके पिता, सरदार पटेल) का कहना था कि अगर उनके कहे को मान लिया गया होता तो यह मुद्दा काफी समय पहले ही सुलझ गया होता। बापू ने जवाब दिया (राजाजी को), ‘...हमारा नजरिया बिल्कुल अलग है। मैं नहीं चाहता कि आनेवाली पीढ़ियाँ मुझे इस बात के लिए कोसें कि इन लोगों को जब कुछ करने का मौका मिला, तब कुछ नहीं किया और इस अल्सर (हैदराबाद रियासत) को भारत के दिल में छोड़ दिया। यह रियासती मंत्रालय (जो सरदार पटेल के अधीन था) का काम (हैदराबाद रियासत का भारत में विलय करवाना) था। आखिर आप और पंडितजी कब तक रियासती मंत्रालय को दरकिनार कर आगे बढ़ते रहेंगे?’ बापू ने राजाजी को बताया कि नेहरू ने पूरे डेढ़ घंटे तक मंत्रिमंडल में अपनी इधर-उधर की बातें करना जारी रखा कि ‘हमें हैदराबाद को लेकर अपना दृष्टिकोण तय कर लेना चाहिए। इस बात को संयुक्त राष्ट्र में उठाया जाएगा।’ बापू बोले, ‘मैं इस बात को लेकर बिल्कुल स्पष्ट हूँ कि (अगर हमें लड़ना है तो) निजाम खत्म है। हम इस अल्सर को भारत गणराज्य के हृदय में नहीं रहने दे सकते। उसका राज खत्म है।’ वे (जवाहरलाल) इस बात पर बेहद गरम/क्रोधित थे।” (मणि/210) 

नेहरू हैदराबाद में बल-प्रयोग के इस कदर विरोध में थे कि पटेल द्वारा मंत्रिमंडल में इसे पारित करवाने के बाद नेहरू ने मंत्रिमंडल के अपने सहयोगी डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी को बुलाया और इस मुद्देपर पटेल का समर्थन करने को लेकर उनसे नाराजगी जताई तथा उन्हें इस बात की चेतावनी दी (उनके बंगाली होने के चलते) कि भारत की इस काररवाई के परिणामस्वरूप पाकिस्तान की ओर से बदले की काररवाई हो सकती है, जो पश्चिम बंगाल पर हमले और कलकत्ता को बम से उड़ाने की हो सकती है। नेहरू की उम्मीद के विपरीत, मुकर्जी ने बड़ी बेपरवाही के साथ जवाब देते हुए कहा कि बंगाल और कलकत्ता के लोगों के पास देश के लिए भुगतने एवं बलिदान देने के लायक देशभक्ति मौजूद है और जब उन्हें इस बात का पता चलेगा कि हैदराबाद को जीतनेवाला जनरल एक बंगाली जे.एन. चौधरी है तो उनकी खुशी चार गुनी हो जाएगी। 

सरदार की निर्णायक कार्यवाही और उसे विफल करने के प्रयास 
अंत में बाजी सरदार पटेल के हाथ लगी। आखिरकार, 9 सितंबर, 1948 को फैसला लिया गया कि 13 सितंबर, 1948 को मेजर जनरल जे.एन. चौधरी के नेतृत्व में सैनिकों को भेजकर हैदराबाद के खिलाफ ‘अ‍ॉपरेशन पोलो’ को अंजाम दिया जाएगा। 

इसके दो दिन पर्वू ही 11 सितंबर, 1948 को जिन्ना की मतृ्यु हो गई। ऐसा होने के चलते ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ जनरल बुचर ने इस अभियान को कुछ समय के लिए स्थगित करने का अनुरोध किया; लकिे न पटेल ने उनका प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। ब्रिटिश हैदराबाद को बचाने और समर्थन करने के तरीके तलाश रहे थे। यहाँ तक कि जनरल बुचर ने तो 13 सितंबर को डी-डे के दिन सुबह 3 बजे ही गृह मंत्री पटेल सहित अन्यों को फोन किए और इस अभियान को रद्द करने या फिर स्थगित करने के लिए कहा। 
सरदार पटेल ने बेहद चतुराई के साथ पहले माउंटबेटन के हमेशा के लिए भारत से चले जाने का इंतजार किया, जो उन्होंने 21 जून, 1948 को किया, ताकि वे इस मामले में हस्तक्षेप न कर सकें। पटेल के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा थे—नेहरू, जिन्हें माउंटबेटन ने अपने दृष्टिकोण के पक्ष में बदल लिया था—भारतीय सेना को हैदराबाद की ओर कूच न करने की अनुमति देने के लिए इस बात की पूरी संभावना है कि अगर गांधी जीवित होते तो नेहरू-गांधी की इस जोड़ी ने सरदार पटेल को वह नहीं करने दिया होता, जो उन्होंने किया, क्योंकि गांधी एक शांतिप्रिय व्यक्ति थे। वी. शंकर ने लिखा (शैन)— 
“सरदार (पटेल) उस प्रभाव से पूरी तरह से अवगत थे, जो लॉर्ड माउंटबेटन गांधीजीऔर नेहरू पर रखते थे। वह प्रभाव अकसर निर्णायक होता था। सरदार अपना मन बना चुके थे कि हैदराबाद भारतीय राज्यों से जुड़ी उनकी नीति में फिट होना चाहिए। मैं जानता हूँ कि वे अपनी चिर-परिचित तेजी के साथ इस समस्या को सुलझाने में लाचारी को लेकर कितनी पीड़ा महसूस कर रहे थे।... हैदराबाद में पुलिस काररवाई को लेकर निर्णय लेने, जिसके बारे में सरदार (पटेल) ने पं. नेहरू और राजाजी की असहमति को ‘दो विधवाओं का इस बात को लेकर रोना बताया कि अहिंसा के रास्ते से हटने को लेकर उनके दिवंगत पति (यानी गांधी) की क्या प्रतिक्रिया होती!’ ” 

सरदार पटेल ने दो बार सेना के हैदराबाद पर आक्रमण करने का समय नियत किया और उन्हें दोनों ही बार नेहरू एवं राजाजी (सी.आर.) के जबरदस्त राजनीतिक दबाव में आकर उसे स्थगित करना पड़ा। पटेल द्वारा तीसरी बार हमले का समय तय कर लेने के बाद एक बार फिर राजाजी से की गई निजाम की अपील के मद्देनजर उसे रद्द करने की माँग की गई। नेहरू और राजाजी ने इसके बजाय वी.पी. मेनन और पटेल को निजाम की अपील के उपयुक्त जवाब का मसौदा तैयार करने का निर्देश दिया। नेहरू और राजाजी इस छोटी सी बात को समझने में नाकाम रहे कि निजाम खुद को मजबूत करने के लिए जानबूझकर विलंब कर रहा है, न कि किसी सौहार्दपूर्ण समझौते तक पहुँचने के लिए। तब तक सरदार पटेल नेहरू को पर्याप्त झेल चुके थे। 
जिस समय निजाम के लिए जवाब तैयार किया जा रहा था, सरदार पटेल ने बिल्कुल उसी समय, बिना समय गँवाए इस बात की घोषणा की कि सेना आगे बढ़ने के लिए बिल्कुल तैयार है और अब उसे किसी भी तरह से रोका नहीं जा सकता है। उन्होंने ऐसा किया था देश के रक्षा मंत्री, बलदेव सिंह को पूरी तरह से विश्वास में लेने के बाद! (डी.डी./285) 

अभियान 13 सितंबर, 1948 को शुरू हुआ और करीब चार दिनों तक चले अभियान, जो 108 घंटे तक चला, (वी.पी.एम.1/256) के बाद हैदराबाद की सेना ने समर्पण कर दिया। उनके कमांडर मेजर जनरल अल इदरूस ने अपनी सेना को हथियार डालने के आदेश दे दिए। मेजर जनरल जे.एन. चौधरी ने 18 सितंबर, 1948 को हैदराबाद में प्रवेश किया और मिलिटरी गवर्नर का पद सँभाला। उनका प्रशासन दिसंबर 1949 तक जारी रहा। कासिम रजवी को 19 सितंबर, 1948 को गिरफ्तार किया गया।