Ankahi Daastaa - 5 in Hindi Love Stories by Akshay Tiwari books and stories PDF | अनकही दास्तां (शानवी अनंत) - 5

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अनकही दास्तां (शानवी अनंत) - 5


"जब इंतज़ार भी एक इबादत बन जाता है...."


वक़्त गुज़रता रहा….
दिन महीने बने, और महीने धीरे-धीरे
यादों की शक्ल में मेरी डायरी के पन्नों में बदलते गए।

शानवी अब बहुत कम लिखती थी।
उसके मैसेज छोटे होते, लेकिन उनमें गहराई होती।
वो एक "ठीक हूं" कहती,
और मैं उसमें उसकी थकान, उसकी जिम्मेदारियां,
उसका अकेलापन तक महसूस कर लेता।


इश्क़ अब इबादत बन चुका था।

जिस तरह कोई मंदिर में बैठकर
प्रेम नहीं माँगता, सिर्फ महसूस करता है….
उसी तरह मैं भी अब कुछ नहीं माँगता था।

न उसका वक्त, न उसकी कसमें 
न उसकी बातें, न उसका वो प्यार
न उसका "मैं भी तुम्हें चाहती हूं" कहना।

बस एक एहसास काफी था….
कि वो कहीं है, और कभी न कभी
वो मेरी कविताओं में लौटकर जरूर आएगी।


मैं खुद को उसकी यादों में डूबो चुका था।

कभी जब ठंडी हवा चलती,
तो मुझे उसका वो दुपट्टा याद आ जाता
जो पहली मुलाकात में उसके कंधे से उड़ता हुआ मेरे हाथ में आ गया था, उसके पैरों की वो पायल की छनक मेरे कानों में गूंजती थी 

कभी जब कैफे में बैठा चाय पीता,
तो उसकी वो आंखें याद आतीं
जो कप उठाते वक्त मेरी नज़रों से टकराई थीं।


अब मैं हर रात लिखता था --
लेकिन किसी किताब के लिए नहीं।
मैं अपनी शानवी के लिए लिखता था।

हर कविता में एक सवाल होता,
हर शेर में एक इंतज़ार।
हर कहानी में एक ख़्वाब,

"तुम लौटोगी न एक दिन?
जब फुर्सत हो, तो मेरी धड़कनों को सुनना….
मैं वहीं बैठा हूं,
जहां तुम्हारा नाम पहली बार मेरी सांसों में घुला था।"


एक शाम….

मैं छत पर बैठा था --
अपने गांव की शांत हवा में,
जहां बचपन की यादें आज भी खट्टी-मीठी सी लगती हैं।

तभी मोबाइल पर एक वॉइस नोट आया।

"अनंत…."
उसकी आवाज़ थी।

बहुत धीमी, बहुत रूठी हुई सी।
मैंने कानों से नहीं,
दिल से सुना।

"मैं जानती हूं, मैंने तुम्हें बहुत इंतज़ार कराया।
लेकिन सच कहूं….
हर दिन जब मैं थक कर चुप होती,
तो बस तुम्हारे शब्दों में खुद को ढूंढती।
तुम्हारी कविताएं मुझे वो सुकून देती हैं
जो शायद कोई और नहीं दे सकता।"

मेरे हाथ कांप गए।
मेरे होंठों पर कोई जवाब नहीं था।

फिर वो बोली --

"अनंत.… क्या तुम अब भी वहीं हो?"


मैंने लंबी सांस ली।
और जवाब भेजा --

"मैं गया ही कब था, शानवी?"


वो रात…. मेरे जीवन की सबसे सुकूनभरी रात थी।

ना उसने “आई लव यू” कहा,
ना मैंने कुछ माँगा।

लेकिन हम दोनों ने वो पा लिया
जो बहुत से लोग इज़हार में खो देते हैं --

एक मौन रिश्ता, जो बिना शर्त, बिना मांग के भी संपूर्ण और पवित्र था।


उसके बाद….

अब हमारी बातें फिर से शुरू हुईं।
धीरे-धीरे…. जैसे दो लोग फिर से एक नई शुरुआत कर रहे हों।

पर इस बार सब कुछ और साफ़ था।
अब मैं सिर्फ उसका “प्रिय कवि” नहीं था,
मैं उसकी “रूह का दोस्त” बन चुका था।


फिर एक दिन उसने कहा --

“अनंत, अगर एक दिन मैं खुद से हार जाऊं,
तो तुम मुझे फिर से शब्दों में ढूंढ लेना।”

मैंने जवाब दिया --
“अगर तुम खुद से दूर भी चली जाओ,
तो मैं तुम्हें अपनी कविताओं में संभाल लूंगा।”


क्योंकि….

अब हमारा रिश्ता
किसी परिभाषा का मोहताज नहीं था।

न वो सिर्फ प्यार था,
न सिर्फ दोस्ती।

वो एक ऐसी डोर बन चुका था,
जो दो आत्माओं को जोड़ता है -- बिना शर्त, बिना भय, बिना अपेक्षा।


क्या शानवी और अनंत अब हमेशा के लिए एक हो जाएंगे?
क्या ये रिश्ता ज़िंदगी की अगली मंज़िल तक पहुंचेगा?
या फिर किस्मत एक बार फिर
उनके बीच फासलों की दीवार खड़ी कर देगी…?


Next Part Soon 🔜