भूल-57
राष्ट्रीय हितों से कोई सरोकार नहीं
दूसरों को रोकने के लिए अपने पक्ष में मजबूत सहयोगियों के होने के बजाय भारत नेहरू की ‘गुटनिरपेक्षता’ वाली खुद को हरानेवाली विदेश नीति के परिणामस्वरूप इतना निर्गुट हो गया कि पाकिस्तान (जिसकी एकजुटता पश्चिम के साथ थी) और चीन (जिसकी एकजुटता सोवियत संघ के साथ थी) भारत पर हमला करने की जुर्रत कर सके; क्योंकि उन्हें यह बात अच्छे से मालूम थी कि ऐसा करने में जरा भी जोखिम नहीं है, क्योंकि कोई भी देश संकट की इस घड़ी में निर्गुट भारत का साथ देने के लिए आगे नहीं आएगा। सहज बुद्धि का भी यह मानना होता है कि जब तक आप अपनी खुद की रक्षा करने जितने पर्याप्त शक्तिशाली न हो जाएँ, तब तक ऐसे कुछ शक्तिशाली देशों के साथ समझौते करें, जो आपकी सुरक्षा का जिम्मा सँभाल सकें।
निर्गुट रहने की नीति भारत के लिए जरा भी लाभकारी नहीं रही। (स्व3) अगर भारत ने खुद को अमेरिका या फिर पश्चिम के साथ जोड़ लिया होता तो वह न सिर्फ आर्थिक रूप से कहीं अधिक बेहतर होता, बल्कि न तो चीन और न ही पाकिस्तान ने भारत पर हमला करने की जुर्रत की होती और कश्मीर का मसला काफी समय पहले ही भारत के पक्ष में सुलझ गया होता। सोवियत संघ के साथ अस्पष्ट रूप से जुड़ते हुए भारत ने सुनिश्चित किया कि वह शीतयुद्ध में हारनेवाले पक्ष की ओर हो और उसके सभी गंभीर राजनीतिक व आर्थिक नुकसानों और बाधाओं का भागी बने।
पाकिस्तान कहीं अधिक समझदार था। पाकिस्तान के निर्माण के बाद उसके प्रथम प्रधानमंत्री लियाकत अली खाँ ने माॅस्को के निमंत्रण को स्वीकार किया, वह भी जान-बूझकर। इसका उद्देश्य शीत युद्ध में ‘विपक्षी पक्ष : अमेरिका और ब्रिटेन’ को सतर्क करना था। उम्मीद के अनुसार, अमेरिका एवं ब्रिटेन ने पाकिस्तान के साथ एक समझौता किया और पाकिस्तान को आश्वस्त किया कि एंग्लो-अमेरिकी सैन्य ब्लॉक में शामिल होने के बदले में वे कश्मीर सहित अन्य भारत-विरोधी मामलों में पाकिस्तान की मदद करेंगे।
भारत में ऑस्ट्रेलिया के पूर्व राजदूत वाल्टर क्रॉकर ने लिखा—“सन् 1956 तक (जॉन फोस्टर) डलेस (तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री), जो नेहरू पर उतना ही अविश्वास करते थे, जितना नेहरू उन पर (यह बात तब तक सार्वजनिक नहीं थी, जब डलेस 1954 में भारत-यात्रा पर आए थे) ने कहा कि ‘तटस्थता को अपनाना अप्रचलित, अनैतिक और अदूरदर्शी है।’ डलेस की नजर में, तटस्थता, चाहे वह किसी भी रूप में हो, निर्गुट होने सहित अच्छेव बुरे के बीच चुनाव करने से इनकार है; स्पष्ट रूप से कहें तो साम्यवाद और साम्यवाद-विरोधी के बीच।” (क्रॉक/94)
निर्गुट होने का सिर्फ एक लाभ हुआ और वह था कि इसने नेहरू की छवि को वैश्विक स्तर पर प्रचारित किया। इसने उन्हें अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ‘विश्व शांति के डॉन क्विक्सोट’ की भूमिका निभाने की अनुमति दी। इसने नेहरू को गुटनिरपेक्ष मंचों पर आलंकारिक नेतृत्व करने में मदद की; लकिन उसका भारत के लिए कोई लाभ नहीं था। वास्तव में, भारत को उनके इस रुख का बहुत नुकसान उठाना पड़ा। संक्षेप में, नेहरू की गुटनिरपेक्षता की नीति भारतीय राष्ट्रीय हितों के अनुरूप नहीं थी।
पश्चिम से दूर, लेकिन सोवियतों के साथ गलबँहियाँ
यहाँ तक कि तथाकथित ‘गुटनिरपेक्षता’ भी वास्तव में वैसी नहीं थी; वह सोवियत के साथ एक जटिल संरेखण था—विवरण के लिए कृपया आगे दिए गए अध्याय ‘नेहरू का विश्वावलोकन’ (भूल#106-7) को देखें। सीता राम गोयल ने उस समय लिखा था—
“वहीं दूसरी ओर, सोवियत संघ ने पूर्व एवं पश्चिम में विशाल क्षेत्र और आबादी को अपना गुलाम बना लिया है। तीन बाल्टिक राज्य (लातविया, एस्टोनिया, लिथुआनिया) एक बार फिर नक्शे से गायब होकर रूसी भालू के पेट में समा गए हैं। पोलैंड, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, बुल्गारिया, रोमानिया और अल्बानिया पर सोवियत क्षत्रपों द्वारा सोवियत संगीनों के दम पर राज किया जा रहा है। फिनलैंड, जर्मनी, कोरिया, विएतनाम और लाओस के हिस्से सोवियत सशस्त्र सेनाओं के कब्जे में हैं। मंगोलिया, चीन और तिब्बत सोवियत संघ द्वारा सशस्त्र किए गए विश्वासघातक गैंगों द्वारा चलाए जा रहे थे। और अब, इन सभी देशों में फैले सोवियत साम्राज्यवाद के अधिनायकवादी आतंक की बराबरी पूरे मानव इतिहास में नहीं है।” (एस.आर.जी.2/173)
“इसके बावजूद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एक भी प्रस्ताव या किसी भी भारतीय सरकार के प्रवक्ता द्वारा एक भी ऐसा बयान नहीं दिया गया है, जो सोवियत सरकारों के दुष्कृत्यों की निंदा करता हो। वहीं इसके विपरीत, भारत ने कम्युनिस्ट दलों और मोरचों की हर उस आवाज में सुर मिलाया, जो वे पश्चिमी ‘उपनिवेशवाद’ के खिलाफ शुरू करते थे। और इसके अलावा, भारत ने उन तमाम कठपुतली शासनों को लगातार और पूरी मेहनत से संरक्षण प्रदान किया, जिन्हें सोवियत संघ ने कई देशों में स्थापित किया था। ऐसा हाल ही में हुआ है, जब भारतीय प्रधानमंत्री ने खुलेआम इस बात की घोषणा की है कि सोवियत संघ के पूर्वी यूरोपीय उपनिवेश पूरी तरह से संप्रभु राष्ट्र थे!” (एस.आर.जी.2/173)
“बिल्कुल इसी तर्जपर भारत द्वितीय विश्व युद्ध के बाद प्रत्येक अंतरराष्ट्रीय गड़बड़ (फिलिस्तीन, कोरिया, तिब्बत, विएतनाम, हंगरी, क्यूबा, बर्लिन) में सोवियत संघ के पक्ष में खड़ा रहा है। और भारत ने बिना समय गँवाए पश्चिमी देशों द्वारा कम्युनिस्ट खतरे के खिलाफ उठाए गए किन्हीं भी आत्मरक्षार्थ उपायों का विरोध करना कभी नहीं भूला है। और ऐसा तब हुआ है, जब पश्चिम ने पूरी ईमानदारी से हमारी बात को समझने, उसकी तारीफ करने और उसे अपनाने का प्रयास किया है; वहीं दूसरी तरफ, सोवियत शिविर ने तब-तब हमारी खुलकर बुराइयाँ की हैं और बदनामी की है, जब कभी भी हम उनके मत से भटके हैं, भले ही बाल बराबर भी।” (एस.आर.जी.2/174)