✨बेटी या बेटा - मोहब्बत की मुस्कुराहट✨
(जहां मोहब्बत की मेहरबानी, एक नन्हीं सी मुस्कान बनकर जिंदगी को सजाती है...)
बरसों की मेहनत, संघर्ष और तपस्या के बाद, जब एक समय ऐसा आया कि दानिश और आरजू की ज़िन्दगी सिर्फ किताबों और अफसरों की दुनिया नहीं रही, तो उनके जीवन में एक नन्हा सा मेहमान आ गया। आरजू के होंठों पर हल्की मुस्कान थी, आंखों में दर्द और उम्मीद की लकीरें और दानिश की हथेली उसकी हथेली में कस कर बंधी हुई थी।
"सब ठीक हो जाएगा... मैं हूं न यहां।"
दानिश ने धीरे से कहा, मानो उसके शब्द ही दवा हों।
अस्पताल के उस सीन में न कोई लाल कर्टन था, न म्यूजिक, लेकिन फिर भी उस माहौल में ऐसा सुकून था जो शायद इबादतगाहों में भी न हो। कुछ घंटों के इंतजार के बाद डॉक्टर बाहर आई और मुस्कुराकर बोली-
"मुबारक हो, बेटा हुआ है।"
दानिश एक पल के लिए चुप रहा। फिर सिर झुकाया, आंखें भरी थीं। वो मुस्कराया और धीरे से बोला -
"लेकिन मुझे तो बेटी चाहिए थी..."
पास खड़ी अवनी, जो अब भी उनकी सबसे बड़ी हमदर्द और दोस्त थी, हँस पड़ी -
'अबे, बेटे का तो स्वागत करले पहले!"
बच्चे को जब दानिश ने गोद में लिया, तो मानो पूरी दुनिया उसकी बाहों में सिमट गई। छोटे से चेहरे में, उसे आरजू की मुस्कान दिख रही थी। वो नन्हा सा दिल, जो अभी धड़कना सीख रहा था उसी में दानिश और आरजू की मोहब्बत की पूरी किताब छुपी थी।
जब आरज़ू को बच्चा लाकर दिया गया, तो वो थकी हुई, लेकिन बेहद खुश थी। दानिश ने आरजू को मजाक करते हुए कहा -
"तुम मानी नहीं बेटा ही दिया मुझे, मैंने कहा था कि मुझे पहले बेटी चाहिए। खैर अब मुझे अगली बार बेटी ही चाहिए।"
आरजू ने मुस्कराकर, अपनी झुकी पलकों के बीच से दानिश देखा और धीमे से कहा-"मुझे तो बेटा ही चाहिए था... बिलकुल तुम्हारे जैसा।"
दोनों के बीच वो चुप्पी आ गई, जो सिर्फ उन लोगों के बीच होती है जो सब कुछ बिना कहे समझ लेते हैं। आरज की हथेलियां अब न सिर्फ अफसर की थीं, न सिर्फ एक पत्नी की अब वो मां बन चुकी थी। दानिश की आखों में अब सिर्फ ड्यूटी की जिम्मेदारी ही नहीं थी, उसमें एक पिता की कोमलता भी थी।
फैमिली और फर्ज - एक नया संतुलन
दिन बीते, महीने निकले अब दोनों अपने-अपने पदों पर कार्यरत थे। आरजू DM बन चुकी थी और दानिश SSP बन चुका था। उनकी सुबहें अब चाय की टपरी से नहीं, सरकारी फाइलों से शुरू होती थीं-लेकिन चाय अब भी साथ में पी जाती थी, घर की रसोई में। बच्चे की देखभाल में जहां एक जिम्मेदार मां की ममता थी, वहीं दानिश एक स्नेही पिता बन गया था, जो रात की ड्यूटी से लौटकर बच्चे को गोद में उठाता
और आरजू से कहता "अब सो जाओ, मैं संभाल लूंगा।" आरजू कहती - "लेकिन सुबह तुम्हारी कोर्ट की सुनवाई है।"
तो दानिश कहता - "और तुम्हारी तहसील मीटिंग।"
दोनों काम करेंगे, दोनों साथ होंगे। यही तो था उनका रिश्ता।
दूसरों के लिए मिसाल
समाज कभी उन पर सवाल करता था, अब लोग उन्हें देखकर कहते -"इन्हें देखो... प्यार भी किया, पढ़ाई भी की, जिम्मेदार भी बने और रिश्ते भी निभाए।"
आरजू अक्सर कहती -
"हम सिर्फ पति-पत्नी नहीं हैं... हम एक-दूसरे की प्रेरणा है।" दानिश जब बच्चों के स्कूल में किसी कार्यक्रम में जाता, तो वहां कोई बच्चा पूछता -"आप पुलिस वाले हैं?"
वो हँसकर कहता 'हाँ, और तुम्हारी कलेक्टर मैडम मेरी बीवी हैं!"
फर्ज और फैमिली के बीच उन्होंने एक ऐसा संतुलन बना लिया था, जो किताबों में पढ़ाया नहीं जा सकता -वो सिर्फ जीकर ही सीखा जा सकता है। एक शाम जब दानिश बालकनी में बैठा था, उसका बेटा उसकी गोद में था, और आरजू रसोई से चाय ला रही थी, दानिश ने बेटे से कहा -
"बेटा इस बार हम तुम्हारे लिए एक बहन लाएंगे..."
आरजू ने सुना और वह हँस पड़ी। उस शाम की चाय में न सिर्फ इलायची थी, बल्कि उसमें वो मिठास थी जो मोहब्बत, त्याग, और साथ से बनती है।
दानिश और आरजू की कहानी यहां खत्म नहीं होती... क्योंकि मोहब्बत कभी खत्म नहीं होती। वो हर झप्पी में, हर मुस्कान में, हर संघर्ष में जिंदा रहती है। और जब एक अफसर पिता अपने बेटे को पहली बार "देश" का मतलब समझाएगा, या एक मां अपने बच्चे को पढ़ाई के लिए पेन थमाएगी, तब भी इस कहानी का एक नया अध्याय शुरू होगा...
'क्योंकि कुछ कहानियाँ, सिर्फ पढ़ी नहीं जातीं जी जाती हैं..."
धन्यवाद !🙏