Khoon ki Pyaas - 2 in Hindi Short Stories by Vivek Singh books and stories PDF | खून की प्यास: सुनसान सड़क का श्राप - 2

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खून की प्यास: सुनसान सड़क का श्राप - 2



Part 2 – रात का पीछा


(कहानी: “खून की प्यास – सुनसान सड़क का श्राप”)


गाँव में उस दिन का माहौल और भी भारी था।

रामकिशन ने सबके सामने जो कहा — “आज रात… मैं खुद सच देखूंगा” — उससे सब चौंक गए थे।

धरमपाल ने तुरंत कहा,

“पागल हो गया है क्या? रात में उस सड़क पर जाना मौत को न्योता देने जैसा है।”


रामकिशन ने धीमे, मगर ठोस लहज़े में जवाब दिया,

“अगर सच नहीं पता चला, तो कल ये भीड़ मेरी बीवी को जिंदा नहीं छोड़ेगी। मुझे देखना होगा।”


गाँववाले आपस में फुसफुसाने लगे। कुछ को लगा कि रामकिशन बहादुर है, कुछ को लगा कि वो भी उसी अंधे खेल में फँस जाएगा, जिसमें बाकी लोग फँसे।



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शाम की तैयारी


शाम ढलते-ढलते आसमान लाल हो गया।

हवा में ठंडक थी, लेकिन उसके साथ एक अजीब-सी गंध थी — जैसे कच्चे मांस की।

रामकिशन ने अपने कमरे से टॉर्च, एक पुरानी लकड़ी की लाठी और जेब में छोटी सी हँसिया रख ली।

उसकी आँखों में डर साफ दिख रहा था, लेकिन उसके कदम ठहरे हुए थे।


शांता उस समय आँगन में बैठी धान कूट रही थी।

रामकिशन ने उससे कोई बात नहीं की। बस एक पल के लिए उसकी आँखों में देखा।

शांता ने भी बिना कुछ कहे सिर झुका लिया।



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गुप्त पीछा


रात के करीब 10 बजे, जब गाँव में सन्नाटा छा गया, रामकिशन घर से धीरे-धीरे बाहर निकला।

वो गाँव के कच्चे रास्तों से होते हुए सुनसान सड़क की तरफ बढ़ने लगा।

दूर से, उसे टॉर्च की रोशनी झिलमिलाती दिख रही थी… वो सुरेश था, जो चुपके से उसका पीछा कर रहा था।

सुरेश ने धीरे से कहा,

“तू अकेला नहीं जाएगा। अगर कुछ हुआ तो…”


रामकिशन ने पलटकर देखा,

“चुप रह और पीछे-पीछे चल। कोई आवाज़ मत करना।”



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सड़क का अंधेरा


सुनसान सड़क अब उनके सामने थी।

पेड़ों की टहनियाँ आपस में टकरा रही थीं और सरसराहट के बीच कुछ और भी सुनाई दे रहा था — जैसे किसी के कदमों की आवाज़।

रामकिशन ने टॉर्च जलाई, लेकिन रोशनी के घेरे से बाहर सब कुछ काला था, गहरा और असीम।


तभी, दूर से एक सफ़ेद साया दिखा…

वो शांता थी।

उसकी गोद में एक छोटा बच्चा था, जो बिलकुल चुप था।


रामकिशन का दिल जोर से धड़कने लगा।

वो झुककर पेड़ों के पीछे छिपते हुए आगे बढ़ा।

सुरेश ने मोबाइल से वीडियो बनाना शुरू कर दिया।



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अनजान मोड़


शांता सड़क पर चलते-चलते अचानक बाईं तरफ जंगल में उतर गई।

रामकिशन और सुरेश ने भी सावधानी से उसका पीछा किया।

जंगल में अंधेरा इतना घना था कि टॉर्च की रोशनी भी मुश्किल से कुछ फीट तक जाती थी।

पेड़ों की जड़ों पर फिसलते हुए दोनों धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे।


अचानक, सामने एक पुराना खंडहर जैसा मकान दिखाई दिया।

दीवारों पर काई जमी थी, दरवाज़ा आधा टूटा हुआ था, और भीतर से हल्की लाल रोशनी झिलमिला रही थी — जैसे किसी ने मिट्टी का दिया जलाया हो।



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रक्त की गंध


रामकिशन ने भीतर झाँककर देखा।

अंदर, ज़मीन पर सफ़ेद कपड़े का बड़ा चादर बिछा था, और उसके ऊपर अजीब-सी आकृतियों वाला लाल रंग का घेरा बना था।

उस घेरे के बीच शांता बच्चे को रख रही थी।


बच्चा अब रोने लगा, लेकिन उसकी आवाज़ इतनी धीमी थी कि सुनना मुश्किल हो रहा था — जैसे उसकी ताकत खत्म हो रही हो।


रामकिशन की नाक में एक तेज़ लोहे जैसी गंध आई… ये खून की गंध थी।



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अनुष्ठान


शांता ने अपने गले से लाल माला उतारी और उसे घेरे के बीच रख दिया।

फिर, उसने एक पुराना पीतल का कटोरा उठाया, जिसमें कोई काला तरल था, और उसे बच्चे के मुँह के पास ले जाने लगी।


रामकिशन का सब्र टूट गया।

वो दरवाज़े पर खड़ा होकर चिल्लाया,

“शांता! ये क्या कर रही है?”


शांता ने धीरे-धीरे सिर उठाया।

उसकी आँखें अब काली नहीं, बल्कि पूरी तरह लाल थीं, और चेहरा ऐसा लग रहा था जैसे किसी औरत का नहीं, किसी शिकारी जानवर का हो।



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भय का सामना


शांता की आवाज़ गहरी और गूँजती हुई थी,

“तुम्हें नहीं आना चाहिए था, रामकिशन… अब तुम भी बच नहीं पाओगे।”


सुरेश पीछे हटने लगा, लेकिन उसके पैर किसी जड़ में फँस गए और वो ज़ोर से गिरा।

टॉर्च दूर जा गिरी और रोशनी मकान की छत पर टिमटिमाने लगी।


शांता ने हाथ उठाया, और अचानक, खंडहर के कोनों से काले साए उभरने लगे — इंसानी आकार के, लेकिन बिना चेहरा, बिना आवाज़।

वे धीरे-धीरे रामकिशन और सुरेश की तरफ बढ़ने लगे।



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भागने की कोशिश


रामकिशन ने लाठी से एक साए पर वार किया, लेकिन वो धुएँ की तरह बिखरकर फिर से बन गया।

सुरेश ने चिल्लाकर कहा,

“ये इंसान नहीं हैं! भाग!”


दोनों खंडहर से बाहर भागने लगे, लेकिन जैसे-जैसे वो भागते, पेड़ और घने होते जा रहे थे, रास्ता गायब हो रहा था।

पीछे से उन सायों की फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी —

"रुको… तुम्हारा खून हमें चाहिए…"



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अचानक बदलाव


भागते-भागते, रामकिशन का पैर किसी पत्थर से टकराया और वो गिर पड़ा।

उसकी टॉर्च वापस हाथ में थी, और जब उसने रोशनी जमीन पर डाली, तो देखा — वो फिर से उसी खंडहर के दरवाज़े पर खड़ा है।


सुरेश हाँफते हुए बोला,

“ये… ये जगह छोड़ ही नहीं रही… हम घूम-फिर कर यहीं आ रहे हैं।”


तभी, दरवाज़े के अंदर से शांता बाहर निकली।

उसके हाथ में अब कोई बच्चा नहीं था, लेकिन उसके होंठ लाल तरल से भीगे हुए थे।



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क्लिफहैंगर


शांता मुस्कुराई, और उसकी आवाज़ में एक ठंडी ठिठुरन थी,

“एक बार जो इस सड़क के श्राप में फँस गया… उसका खून इस धरती का हिस्सा बन जाता है।”


रामकिशन और सुरेश पीछे हटे, लेकिन उनके पीछे अब सिर्फ काले साए थे…

और सामने, लाल आँखों वाली शांता…


अगला भाग – “खंडहर का सच” में पता चलेगा, क्या वे इस श्राप से बच पाएंगे… या उनका नाम भी ‘गायब लोगों’ की सूची में जुड़ जाएगा।