सन् 1953 की बात है, शहर के किनारे एक पुराना सरकारी अस्पताल खंडहर बन चुका था। लोग कहते थे, वहाँ कभी इलाज नहीं, बल्कि मौत का कारोबार होता था। रात में वहाँ से अजीब-अजीब चीखें, लोहे की जंजीरों की खड़खड़ाहट और किसी के धीरे-धीरे गलियारे में चलने की आवाज़ आती थी।
गाँव के बूढ़े-बुजुर्ग कसम खाकर कहते थे कि उस अस्पताल की ईमारत में मरे हुए डॉक्टर और मरीज़ अब भी भटकते हैं। फिर भी, चार दोस्त अर्जुन, गोपाल, रामू और शंकर उस रहस्य को जानने की जिद में एक अमावस्या की रात वहाँ पहुंचे।
अस्पताल का मुख्य दरवाज़ा जंग से भरा हुआ था, लेकिन जैसे ही अर्जुन ने उसे धक्का दिया, वह चरमराहट के साथ खुल गया मानो खुद किसी अदृश्य शक्ति ने उन्हें भीतर आने का निमंत्रण दिया हो। अंदर घुसते ही सीलन और सड़े हुए मांस की गंध नाक में भर गई। टूटे काँच की खिड़कियों से चाँद की हल्की रोशनी अंदर गिर रही थी, लेकिन गलियारों का अंधेरा निगलने को तैयार था।
पहले गलियारे के अंत में एक पुराना ऑपरेशन थिएटर था। दीवारों पर सूखा हुआ खून, जंग लगे औज़ार और टूटी पड़ी स्ट्रेचर अब भी मौजूद थे। अचानक, शंकर ने एक पुराना मरीज का बिस्तर देखा, जिस पर गद्दा आधा फटा था और उस पर ताज़ा खून के छींटे थे। उन्होंने सोचा शायद किसी जानवर का होगा, लेकिन तभी बिस्तर के नीचे से एक सफ़ेद हड्डी खिसक कर बाहर आई।
जैसे-जैसे वे आगे बढ़े, हवा भारी और ठंडी होती गई। अचानक, गोपाल ने बाईं तरफ़ के कमरे में झाँका और चीख उठा एक औरत, खून से लथपथ डॉक्टर के कोट में, ऑपरेशन टेबल पर किसी का पेट चीर रही थी।
उसके हाथ में जंग लगा चाकू था, और जैसे ही उसने ऊपर देखा, उसकी आँखें पूरी तरह काली थीं। वह हँसी, और वह हँसी पूरे अस्पताल में गूंज गई। अर्जुन ने बाकी सबको भागने के लिए खींचा, लेकिन जिस गलियारे से आए थे, वह अब गायब था। सामने लंबा अंधेरा रास्ता था, जिसके दोनों ओर दरवाज़े थे, और हर दरवाज़े से किसी के धीरे-धीरे दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आ रही थी।
डर के मारे सबका दिल तेज़ धड़क रहा था। वे एक कमरे में घुस गए, जिसमें दर्जनों लोहे के अलमारियाँ थीं। एक अलमारी का दरवाज़ा अपने आप खुला, और उसमें से एक पुराना मरीज का रजिस्टर गिरा।
रजिस्टर खोलते ही अर्जुन के हाथ काँपने लगे उसमें चार नाम थे, और चौथा नाम उनके ठीक सामने लिखा था "अर्जुन, गोपाल, रामू, शंकर" और तारीख़ आज की। उसी पल अलमारी के पीछे से दर्जनों कंकाल उनके चारों तरफ़ घेरने लगे।
अचानक कमरे की बत्ती झपकी और सब कुछ अंधेरा हो गया। जब रोशनी लौटी, तो अस्पताल फिर से वैसा ही सुनसान था, जैसे वहाँ कभी कोई आया ही न हो। सिर्फ़ फर्श पर वह पुराना रजिस्टर पड़ा था, जिसमें उनके नाम अब लाल खून से लिखे थे।
लोग कहते हैं, उस रात के बाद चारों कभी वापस नहीं लौटे। लेकिन कुछ राहगीरों ने दावा किया है कि जब वे अस्पताल के पास से गुज़रते हैं, तो अंदर से चार लोगों की धीमी, दर्दभरी चीखें अब भी सुनाई देती हैं… और दरवाज़े के पीछे से किसी के धीरे-धीरे चलने की आहट आती है, जैसे कोई अगली शिकार की तलाश में हो।
बरसों बीत गए,
लेकिन वह अस्पताल अपनी खामोश दीवारों के पीछे जैसे कुछ छुपाए बैठा था। एक दिन, नगर के दो पुलिसकर्मी इंस्पेक्टर रघुवीर और कॉन्स्टेबल मुरारी गुमशुदा लोगों की पुरानी फाइलों की जांच करते हुए उस अस्पताल तक पहुँच गए। अमावस्या की वही रात थी, और हवा में अजीब सी ठंडक फैली हुई थी।
जैसे ही उन्होंने जंग लगे गेट को धक्का दिया, अंदर की हवा मानो फुसफुसाकर उनका स्वागत कर रही थी। गलियारे में कदम रखते ही उन्हें दूर से स्ट्रेचर के पहियों के घिसटने की आवाज़ सुनाई दी, जबकि वहाँ कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था। उनकी टॉर्च की रोशनी बार-बार झपक रही थी, मानो किसी ने उसकी बैटरी सोख ली हो।
वे पुराने रिकॉर्ड रूम में पहुँचे, जहाँ लोहे की अलमारियों में मरीजों के रजिस्टर अब भी सड़ रहे थे। रघुवीर ने एक रजिस्टर खोला, तो उसमें न जाने कितने सालों से दर्ज नामों के बीच एक ताज़ा पन्ना मिला जिस पर उनके दोनों नाम लिखे थे, और तारीख़ आज की थी। इससे पहले कि वे कुछ समझ पाते, कमरे का दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया, और बाहर से किसी ने ज़ंजीर डाल दी।
अंधेरे में उन्हें पास आती हुई सांसों की आवाज़ सुनाई दी भारी, धीमी और ठंडी। टॉर्च की आखिरी झिलमिलाहट में उन्होंने देखा वही काली आँखों वाली खून से सनी डॉक्टर, जिसकी नज़रें सीधे उनकी आत्मा में उतर रही थीं। उसके पीछे सैकड़ों कंकाल थे, जिनके चेहरे इंसानी नहीं, बल्कि मरीज़ों और डॉक्टरों के बीच का कोई भयानक मेल थे।
डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा, "तुम यहाँ इलाज के लिए आए हो… या फिर मौत के लिए?" उसके शब्दों के साथ ही चारों तरफ़ की दीवारें धड़कने लगीं, मानो अस्पताल खुद एक ज़िंदा राक्षस हो, जिसकी नसों में खून बह रहा हो।
अचानक, दोनों पुलिसकर्मी एक जोरदार चीख के साथ अंधेरे में खींच लिए गए। अगले दिन सुबह, अस्पताल का गेट खुला मिला, लेकिन अंदर सिर्फ दो नई लकड़ी की स्ट्रेचरें रखी थीं, जिन पर सफ़ेद चादर से ढके हुए दो ताज़ा शव थे।
गाँव वालों का कहना है, अब उस अस्पताल के गलियारों में सिर्फ चार दोस्तों की नहीं, बल्कि दो पुलिसकर्मियों की भी कराहती हुई आवाज़ें सुनाई देती हैं… और हर अमावस्या की रात, वह खून से सनी डॉक्टर नए शिकार की तलाश में गलियारों में घूमती है।
कहते हैं, अगर कोई अस्पताल के मुख्य दरवाज़े पर खड़े होकर तीन बार अपना नाम ज़ोर से पुकार ले, तो अंदर से जवाब ज़रूर आता है… लेकिन वो जवाब इंसान का नहीं होता।