मलिक अयाज की निराशा
सुलतान मुजफ्फरशाह को राणा साँगा और राजपूत सेना द्वारा गुजरात में चलाए गए विजय-अभियान की क्षण-प्रतिक्षण सूचना मिलती रही और वह अंगारों पर लोटता रहा। उसका कोई भी हाकिम राजपूत के सामने ठहर नहीं पाया था। गुजरात की संपन्नता बोरों में भरकर मेवाड़ ले जाई गई और उजडे़ हुए किले सुलतान को चिढ़ा रहे थे। उसने उसी क्षण संकल्प लिया कि वह चित्तौड़ की ऐसी ही दशा करेगा। उसने तैयारियाँ आरंभ कर दीं। अपनी सेना को संगठित किया और सभी सैनिकों को एक साल का अग्रिम वेतन दिया। उसकी इस विशाल सेना में एक लाख घुड़सवार, सौ हाथी और बड़ा तोपखाना भी था। बीस हजार की संख्या में अतिरिक्त सेना भी रखी। इस विशाल सेना का नेतृत्व उसने अपने जाँबाज सेनापति अयाज मलिक को सौंपा। दिसंबर 1520 ई. में यह सेना चित्तौड़ की ओर बढ़ चली। ऐसा लगता था कि यह सैन्य-समुद्र मेवाड़ को लील जाएगा। इस तुर्क सेना ने डूँगरपुर को उजाड़कर अपनी मंशा स्पष्ट कर दी थी। बाँसवाड़ा भी इनके निर्दयी प्रहार से न बच सका। सुलतान ने यहीं पर नहीं रुका। निश्चित विजय के लिए वह और भी सेना खोजता रहा।
तुर्क सेना प्रबल वेग से मालवा के मंदसौर किले की ओर बढ़ चली थी, परंतु अब तक महाराणा साँगा अपनी सेना लेकर चित्तौड़ से निकल चुके थे। उनकी विशाल राजपूती सेना नांदसा के मैदान में आकर तुर्क सेना से भिड़ गई और भीषण युद्ध आरंभ हो गया। सांख्य बल में तुर्क अधिक थे, पर राजपूत नीति भी इसी के अनुसार चलती थी। पीछे से मेदनीराय आ पहुँचा और राजपूत सेना भारी पड़ने लगी। ऐसा लगने लगा कि वहाँ रक्त की नदी ही बहने लगेगी। तुर्क सेनापति मलिक अयाज समझ नहीं पा रहा था कि वह किस व्यूह से राजपूतों पर दबाव बनाए। यह युद्ध कई दिनों तक चलता रहा और तुर्क सेना निरंतर कम होती रही, जबकि राजपूती सेना में प्रतिदिन कोई-न-कोई फौज आकर जुड़ती जा रही थी। मलिक अयाज ने ऐसी स्थिति में मालवा के सुलतान महमूद से जाकर मदद माँगी :
‘‘हुजूर! मंदसौर में हमारी फौज राजपूत सेना को कड़ी टक्कर दे रही है और फिर भी राजपूत सेना की गिनती रोज बढ़ती है। हमारे सुलतान ने सैनिकों को एकत्र कर-कर के लगभग सारी फौज इस युद्ध में झोंक दी है।’’ मलिक अयाज ने कहा, ‘‘अब आप भी मदद कर दें तो हमें जीत की उम्मीद है। आपकी सेना पहुँचने से हमारा बाहरी घेरा मजबूत हो जाएगा।’’
मालवा के सुल्तान महमूद ने कहा: ‘‘मलिक अयाज, हम महाराणा के खिलाफ युद्ध न करने को वचनबद्ध हैं। हमने उनसे मित्रता की है और वादा किया है कि उनके साथ विश्वासघात नहीं करेंगे। तुम्हें तो आना ही नहीं चाहिए था।’’
‘‘हुजूर, आप भूल रहे हैं कि हमारे सुलतान ने इसी महाराणा के खिलाफ आपकी भरपूर मदद की थी। यह कौम की इज्जत है। सब राजपूत एक हुए जा रहे हैं और हममें फूट पड़ रही है। यह तो कौम की सलामती के लिहाज से अच्छा नहीं है।’’
‘‘इससे पहले हमारी संयुक्त सेना भी महाराणा के सामने हारकर भाग गई है। मलिक अयाज, उस शख्स पर खुदा की मेहर है। पराजय उसके लिए नहीं बनी। जब दिल्ली सम्राट् ने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा तो हम-तुम क्या कर सकते हो? अब जब तक हम तुर्कों को उससे भी बेहतर नेतृत्व नहीं मिल जाता, तब तक उस पर जीत का सपना भी देखना ठीक नहीं।’’
‘‘आप अपनी सेना तो भेजिए। जीत तो तब देखिए।’’
“युद्ध की स्थिति से हम अनजान नहीं हैं, अयाज मलिक! हमारे गुप्तचर हमें हर पल की खबर देते हैं। जीत तो दूर की बात है, अगर यह युद्ध कुछ दिन और चला तो तुर्क की आबादी ही खतरे में पड़ जाएगी। अगर जीत की जरा भी संभावना होती तो सुलतान मुजफ्फरशाह बेगड़ राजधानी में बैठे पान का बीड़ा न चबा रहे होते। राजपूतों पर विजय का सेहरा मलिक अयाज को लेने न भेज देते। बेहतर यही होगा कि महाराणा से संधि कर लो और जो सेना बची है, उसे और भी संगठित करके उचित समय का इंतजार करो।’’
‘‘हुजूर, आप तो पहले ही हार माने बैठे हैं।’’
‘‘इसमें शक भी क्या है? तीन माह तक राजा का बंदी रहा हूँ, तब जाकर समझ आई है कि कुछ लोग केवल जीतते हैं। महाराणा भी उन्हीं में से एक हैं।’’
‘‘आप हमारी कोई मदद नहीं करेंगे?’’
‘‘क्यों नहीं करूँगा, मैं मालवा का सुलतान हूँ। कौम की मदद करना मेरा धर्म है, पर मदद तो वह हो न, जो किसी के काम आए। तुम्हारी फौज के लिए रसद भेज सकता हूँ। लड़ने के लिए हथियार भेज सकता हूँ।’’
‘‘पर सेना नहीं भेज सकते?’’
‘‘मलिक अयाज! मालवा की सेना मेरी नहीं, महाराणा की ही है। मैं तो इस सिंहासन पर उस महाराणा का कृपापात्र बन बैठा हूँ। मेरे पास वह सुलतानी ताज नहीं, वह कमरपेटी नहीं जो आज से पहले मालवा के सुलतान की पहचान थी। मालवा तो महाराणा की ही जागीर है, जिसका मैं हाकिम बना दिया गया हूँ। मेरा फरजंद इसी हाकिमी के एवज में मेवाड़ में गिरवी रखा है। यह भी क्या कम है कि महाराणा ने मुझे युद्ध में आने का हुक्म नहीं दिया। अन्यथा मुझे आना होता और अपने ही तुर्क भाइयों के खून से खेलना पड़ता। महाराणा का मैं तो यह भी अहसान मानूँगा कि उन्होंने मुझे ऐसे धर्मसंकट में नहीं डाला।
‘‘मैं बड़ी उम्मीद से आया था हुजूर। सुलताने-अली को पता चलेगा तो आपसे बहुत ही खफा होंगे। आपने पुराने रिश्ते का भी मुलाहिजा न किया।’’
‘‘कौन कहता है कि नहीं किया? अगर न करता तो मैं महाराणा का हाकिम मलिक अयाज को बंदी बनाकर उन्हें न सौंप देता, जिससे खुश होकर वे मुझे बाकी मालवा भी इनाम में दे देते।’’
मलिक अयाज हड़बड़ाकर रह गया। यह तो उसने सोचा ही नहीं था। मालवा का सुलतान अब महाराणा के गीत गा रहा था और पहले से काफी ज्यादा समझदार भी हो गया था, अपने फायदे के लिए वह ऐसा भी कर सकता था।
‘‘ठीक है हुजूर! अब इस कौम का खुदा ही मालिक है। जब आप जैसे सुलतान ही महाराणा के मुरीद हो गए तो फिर राजपूत साम्राज्य के विस्तार को कौन रोक सकता है?’’ मलिक अयाज ने कहा, ‘‘हम तो सेनापति हैं, लड़ते रहेंगे।’’
‘‘जब हार सामने खड़ी हो तो लड़ते रहने में भी क्या फायदा, मेरी मानो, सुलह कर लो और समय का इंतजार करो। अपने सुलतान से कहो कि ऐसी जंग लड़ते रहना तो कौम का विनाश करना है। हमेशा तो कोई नहीं जीतता। कभी तो महाराणा भी थकेगा, तब देखेंगे।’’
मलिक अयाज मायूस लौटा और अगले दिन के युद्ध में तो उसे स्पष्ट दिखाई पड़ गया कि महमूद खिलजी ने सब सच कहा था। तुर्क सेना अब युद्ध में जाने के नाम से घबरा रही थी, जबकि राजपूत सेना के साथ आज भी रायसेना के हाकिम सिलहद्दी की दस हजार की सेना आ जुड़ी थी। अयाज को अब संधि के अलावा कोई विकल्प नजर न आया। उस बची-खुची तुर्क सेना को भी वहाँ खपा जाने से क्या फायदा था? उसने उसी रात महाराणा के पास सुलह का संदेश भेज दिया, जिसे महाराणा ने स्वीकार भी कर लिया। अगली सुबह गुजरात की करारी हार के बाद युद्धविराम हो गया। मलिक अयाज अपनी बची सेना लेकर गुजरात लौट गया। उसे अपनी सेना में ताज खाँ, किवामुलमुल्क, हसवत खाँ जैसे वीर तुर्क अब दिखाई नहीं दे रहे थे। जिस अनगिनत सैन्य समुद्र को लेकर वह युद्ध करने आया था, वह अब तालाब की तरह लगता था, जिसकी गिनती वह आसानी से कर सकता था।
वह जब निराश, पराजित मुजफ्फरशाह के सामने पहुँचा तो सुलतान ने उसे हेय दृष्टि से देखा और भरे दरबार में उसे यही कहा— ‘‘बुजदिल!’’
मलिक अयाज की गरदन झुकी-की-झुकी रह गई।