The last lamp in Hindi Motivational Stories by mood Writer books and stories PDF | आखिरी दीपक

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आखिरी दीपक


राजस्थान के वागड़ क्षेत्र का एक छोटा-सा गाँव—रामपुरा। मिट्टी की कच्ची गलियाँ, शाम को लौटते चरवाहे, और हर घर के आँगन में नीम या पीपल का पेड़। गाँव के बीचोंबीच एक टूटा-फूटा स्कूल था, जिसमें आठवीं तक ही पढ़ाई होती थी।

इसी गाँव में मीरा रहती थी—गेंहुए रंग की, बड़ी-बड़ी आँखों वाली, हमेशा किताब थामे रहने वाली लड़की। मीरा की माँ गुजर चुकी थी, और उसके पिताजी किसान थे। खेतों में काम के बाद भी वह अपनी बेटी के लिए पढ़ाई की फीस somehow जुटा लेते थे।

गाँव में लड़कियों के लिए पढ़ाई ज़्यादा मायने नहीं रखती थी। लोग कहते—
"मीरा, अब तुम बड़ी हो गई हो, पढ़ाई-लिखाई छोड़कर शादी कर लो।"
लेकिन मीरा हर बार हँसकर कहती—
"शादी तो ज़िंदगी भर कर सकती हूँ, लेकिन पढ़ाई का समय अगर निकल गया तो कभी वापस नहीं आएगा।"


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पहला संघर्ष

आठवीं कक्षा पूरी होते ही पिताजी के पास एक दुविधा आ गई। पास के गाँव में किसी ने रिश्ता भेजा था, और लोग दबाव डाल रहे थे कि शादी कर दो। लेकिन पिताजी ने मीरा से पूछा—
"तू क्या चाहती है, बेटी?"
मीरा ने अपनी आँखों में चमक लिए कहा—
"पढ़ना चाहती हूँ, बाबा… इतना पढ़ना कि हमारे गाँव का कोई बच्चा किताब से डर न पाए।"

पिताजी ने उस दिन फैसला कर लिया। अगले हफ़्ते उन्होंने मीरा का दाख़िला शहर के इंटर कॉलेज में करवा दिया, जो 6 किलोमीटर दूर था।


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रोज़ का सफ़र

मीरा रोज़ सुबह 5 बजे उठकर तैयार होती, 6 बजे तक पैदल निकल पड़ती। कभी धूल भरी आँधियाँ, कभी बरसात, कभी कड़कती धूप—लेकिन उसने एक भी दिन छुट्टी नहीं की।
गाँव की औरतें हैरान होतीं—
"अरे, ये लड़की अकेले रोज़ इतना दूर कैसे जाती है?"

मीरा रास्ते में कई बच्चों को खेतों में काम करते देखती। उसे दुःख होता कि ये बच्चे स्कूल की जगह मजदूरी कर रहे हैं। उसने ठान लिया कि एक दिन इन्हें भी पढ़ाएगी।


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बदलाव की शुरुआत

कॉलेज के बाद मीरा शाम को गाँव लौटकर नीम के पेड़ के नीचे बच्चों को इकट्ठा करती और उन्हें पढ़ाती।
"अ से अनार, आ से आम"
धीरे-धीरे 5 बच्चों से यह संख्या 20 हो गई।

गाँव के बड़े-बुज़ुर्ग पहले तो ताने मारते थे—
"ये सब समय की बर्बादी है।"
लेकिन जब उन्होंने देखा कि उनके बच्चे अपना नाम लिखने लगे हैं, तो उनका रवैया बदल गया।


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पहली सफलता

कई सालों की मेहनत के बाद मीरा ने बी.एड. की पढ़ाई पूरी की और पास के सरकारी स्कूल में टीचर बन गई। उसकी पहली तनख्वाह 9,500 रुपये थी।
बाकी लोग इस पैसे से नए कपड़े या ज़ेवर खरीदते, लेकिन मीरा ने गाँव के स्कूल में बिजली का कनेक्शन लगवा दिया।

जब पहली बार बल्ब जला, तो बच्चों ने तालियाँ बजाईं। मीरा की आँखों में आँसू थे—
"अब ये बच्चे अंधेरे में नहीं पढ़ेंगे।"


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दीपावली का तोहफ़ा

एक साल बाद दीपावली आई। मीरा ने हर बच्चे को एक मिट्टी का दीपक दिया। उसने कहा—
"ये दीपक सिर्फ रोशनी के लिए नहीं है। ये याद दिलाएगा कि तुम अपने सपनों को अंधेरे में मत छोड़ना। जब मुश्किल आए, तो ये दीपक जलाकर सोचो कि रास्ता अभी बाकी है।"

बच्चे खुश होकर दीपक घर ले गए। गाँव के कई घरों में पहली बार शिक्षा के नाम पर एक रौशनी जली थी।


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असली बदलाव

पाँच साल बाद—
गाँव में अब एक बस सेवा शुरू हो चुकी थी, ताकि बच्चे शहर जाकर पढ़ सकें।
पहला लड़का इंजीनियर बना, और सबसे बड़ी बात—गाँव की दस लड़कियाँ कॉलेज जाने लगीं।

गाँव के लोग कहते—
"ये सब मीरा की वजह से हुआ है।"


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आखिरी दीपक

मीरा की शादी भी एक समझदार युवक से हुई, जो खुद भी शिक्षक था। लेकिन शादी के बाद भी उसने पढ़ाना नहीं छोड़ा।
उसने अपने घर में एक दीपक हमेशा जलाकर रखा, जिसे गाँव वाले "आखिरी दीपक" कहते हैं।
ये दीपक आज भी जलता है, और कहते हैं कि जब भी कोई बच्चा पढ़ाई में हिम्मत हारने लगे, तो वो उस दीपक को देखकर फिर से कोशिश करता है।

मीरा अब गाँव की मिसाल है—एक लड़की जिसने अपने गाँव का भविष्य बदल दिया।