Shyam of Vrindavan in Hindi Biography by mood Writer books and stories PDF | वृंदावन के श्याम

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वृंदावन के श्याम


अध्याय 1 – अधर्म की छाया

मथुरा नगरी… यमुना किनारे बसी वह समृद्ध भूमि, जहाँ हर ओर संगीत, व्यापार और संस्कृति की गूंज थी। परंतु, उस भूमि के ऊपर एक काली छाया मंडरा रही थी — कंस नाम का अत्याचारी राजा। कंस ने अपनी बहन देवकी का विवाह यदुवंशी वीर वसुदेव से धूमधाम से किया था। लेकिन विवाह मंडप से लौटते समय, आकाशवाणी हुई —

 “हे कंस, जिस बहन को तू स्नेह से घर ले जा रहा है, उसी की आठवीं संतान तेरा वध करेगी।”



यह वाणी सुनते ही कंस का चेहरा बदल गया। उसका अहंकार और भय एक साथ जाग उठा। उसने उसी क्षण देवकी को मारने के लिए तलवार उठाई, परंतु वसुदेव ने शांत स्वर में कहा —

 “राजन, तुम अपनी बहन की हत्या कर पाप मत करो। मैं वचन देता हूँ, जितनी संतान होगी, सभी तुम्हारे हवाले कर दूँगा।”



कंस ने अपनी तलवार तो रोक ली, परंतु उन्हें कारागार में कैद कर दिया। समय बीतता गया और देवकी के गर्भ से एक-एक कर छह संतानें हुईं — और प्रत्येक को निर्दयी कंस ने जन्म लेते ही मार डाला।

सातवें गर्भ में जो बालक था, वह योगमाया के प्रभाव से वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित हो गया — वही बलराम हुए।


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अध्याय 2 – जन्म की रात

आठवाँ गर्भ आया। इस बार देवकी और वसुदेव के हृदय में एक अनोखी शांति थी। वे जानते थे कि यह वही संतान है, जिसके लिए देवता भी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

भाद्रपद मास की अष्टमी की रात, आकाश में काले बादल छाए हुए थे, बिजली चमक रही थी, यमुना उफान पर थी। अचानक, कारागार में दिव्य प्रकाश फैला। देवकी के सामने स्वयं श्रीनारायण का चारभुज रूप प्रकट हुआ — शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए, मुकुट में कौस्तुभ मणि चमक रही थी।

 “माता, पिता… मैं तुम्हारे पुत्र रूप में अवतरित हुआ हूँ। मुझे गोकुल में नंद और यशोदा के पास पहुँचा दो, और वहाँ से उनकी कन्या को यहाँ ले आओ।”



क्षण भर में वह चारभुज रूप लुप्त होकर एक मोहक शिशु में बदल गया।


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अध्याय 3 – यमुना पार की यात्रा

उस रात चमत्कार हुआ — कारागार के द्वार अपने आप खुल गए, पहरेदार गहरी नींद में सो गए, और वसुदेव के पैरों में लगी बेड़ियाँ टूट गईं। वसुदेव ने टोकरी में शिशु को रखा और सिर पर उठा लिया।

यमुना किनारे पहुँचे तो नदी उफन रही थी। पर जैसे ही वसुदेव ने कदम रखा, जल शांत हो गया, मार्ग देने लगा। बीच में जल का स्तर बढ़ा और लहरें शिशु के चरण स्पर्श करने लगीं, मानो स्वागत कर रही हों।

गोकुल पहुँचकर वसुदेव ने यशोदा के पास सोती हुई कन्या को उठाया और अपने पुत्र को उसके बिस्तर पर सुला दिया। लौटकर कारागार में जैसे ही कन्या को देवकी के पास रखा, कंस को जन्म की खबर मिल गई।


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अध्याय 4 – योगमाया का प्रहार

कंस तलवार लेकर कारागार पहुँचा। जैसे ही उसने कन्या को उठाया, वह उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गई और आठ भुजाओं वाली देवी के रूप में प्रकट होकर बोली —

 “अरे मूर्ख! तेरा काल तो जन्म ले चुका है, अब तुझे मारे बिना नहीं रुकेगा।”



यह कहकर देवी अंतर्धान हो गईं। कंस का भय और क्रूरता और भी बढ़ गया।


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अध्याय 5 – गोकुल का नंदोत्सव

गोकुल में नंदबाबा के घर जैसे ही बालक का जन्म हुआ, पूरे गाँव में खुशी छा गई। गायें अधिक दूध देने लगीं, माखन के मटके सजाए गए, बांसुरी की धुन बजी, और हर ओर नंद के लाल का जयकारा गूंजने लगा। यशोदा, जो प्रसव के बाद नींद में थी, बालक को देखकर प्रेम में सराबोर हो गईं।

नंदोत्सव के अवसर पर गोकुलवासी फूलों से सजकर आए, मिठाई बाँटी गई, और नंदबाबा ने ब्राह्मणों को दान दिया। उस दिन गोकुल में मानो स्वर्ग उतर आया हो।
अध्याय 6 – पूतना का वध

गोकुल में नंदोत्सव के कुछ ही दिन बाद, कंस ने अपने राक्षस अनुचरों को आदेश दिया —

“जिस बालक ने मेरा काल बनना है, वह गोकुल में है। जाओ, उसे मार डालो।”



राक्षसिनी पूतना, जो रूप बदलने में निपुण थी, सुंदर स्त्री का वेश धारण कर गोकुल पहुँची। उसके वस्त्र रेशमी, गहने चमचमाते, चेहरा मातृत्व की ममता से भरा हुआ प्रतीत हो रहा था। परंतु भीतर उसका हृदय विष से भरा था।

यशोदा और रोहिणी उसे देखकर चकित हुईं, पर उसकी मोहक मुस्कान और कोमल वाणी से निश्चिंत हो गईं। पूतना ने कहा —

“अरे, मैं तो बस नंद के लाल को गोद में लेकर आशीर्वाद देना चाहती हूँ।”



वह शिशु कृष्ण को गोद में लेकर स्तनपान कराने लगी, पर उसके स्तनों में घातक विष लगा था। कृष्ण ने न केवल वह दूध पिया, बल्कि उसकी प्राणशक्ति भी खींच ली। पूतना का असली रूप प्रकट हुआ — विशालकाय राक्षसी, जिसके दाँत तलवार जैसे, बाल बिखरे, और आँखें अंगारे जैसी थीं। एक भयानक गर्जना के साथ वह धरती पर गिर पड़ी, उसका शरीर पहाड़ जैसा फैल गया।

गोकुलवासी भयभीत हो गए, परन्तु नंद का लाल हँसते हुए उनकी ओर देख रहा था, मानो कह रहा हो — “डरो मत, मैं तुम्हारे साथ हूँ।”


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अध्याय 7 – शक्रासुर और तृणावर्त

पूतना के वध के बाद भी कंस चैन से नहीं बैठा। उसने शक्रासुर नामक राक्षस को भेजा, जो बैल के रूप में आया। पर जैसे ही वह गोकुल के द्वार पर पहुँचा, नन्हें कृष्ण ने उसके सींग पकड़कर उसे धराशायी कर दिया।

कुछ समय बाद तृणावर्त आया — यह एक भयानक वायु राक्षस था। उसने बवंडर उठाकर बालक कृष्ण को आकाश में उठा लिया। पूरा गोकुल धूल और अंधकार में डूब गया। परंतु तृणावर्त का अंत भी वैसा ही हुआ — कृष्ण ने उसका गला पकड़ लिया और उसका दम घुट गया। वह राक्षस आकाश से गिरकर नष्ट हो गया।


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अध्याय 8 – माखन चोरी की शुरुआत

कृष्ण जैसे-जैसे बड़े होते गए, उनकी चंचलता बढ़ती गई। उनके मित्र सुदामा, श्रीदामा, मंसुखा, माधुमंगल आदि उनके साथ माखन चुराने के नए-नए तरीके ढूँढते। वे मटकों तक पहुँचने के लिए उल्टे खड़े हो जाते, पिरामिड बनाकर ऊपर चढ़ते, और माखन निकालकर पेड़ों के पीछे बैठकर खाते।

गोपियाँ बार-बार यशोदा के पास शिकायत लेकर आतीं —

 “मैया, तुम्हारा लाल तो हमारे घर का सारा माखन खा जाता है।”



यशोदा मुस्कुरातीं, पर कभी-कभी कृष्ण को पकड़कर डाँटतीं। एक बार तो उन्होंने कृष्ण को ऊखल से बाँध दिया, और तब वह प्रसिद्ध दामोदर लीला हुई — जहाँ कृष्ण ने यमलार्जुन वृक्ष को गिरा दिया और वहाँ छुपे दो यक्षों को मुक्त कर दिया।


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अध्याय 9 – गोवर्धन लीला की प्रस्तावना

समय बीतने के साथ, कृष्ण की लीलाएँ और भी अद्भुत होती गईं। एक दिन उन्होंने देखा कि गोकुलवासी इंद्रदेव की पूजा की तैयारी कर रहे हैं। कृष्ण ने प्रश्न किया —

“हम इंद्र की पूजा क्यों करें? हमारा जीवन, हमारी गायें, हमारा अन्न — सब गोवर्धन पर्वत और यमुना के कारण है। हमें इंद्र नहीं, गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए।”


अध्याय 11 – कालिया नाग का दमन

गोवर्धन लीला के कुछ समय बाद, यमुना नदी के किनारे का एक हिस्सा इतना प्रदूषित हो गया कि वहाँ से भयंकर दुर्गंध आती। मछलियाँ मरने लगीं, पक्षी उस ओर से उड़कर भाग जाते। कारण था – कालिया नाग, जो अपने परिवार समेत यमुना के जल में निवास कर रहा था।

एक दिन खेलते-खेलते कृष्ण अपने मित्रों के साथ यमुना किनारे पहुँचे। सबने देखा कि जल काला और लहरों में जैसे जहर उबल रहा हो। तभी गेंद खेलते-खेलते जल में जा गिरी। कृष्ण बिना किसी भय के पानी में कूद पड़े।

जल के भीतर कालिया ने कृष्ण को देख क्रोधित होकर अपने विशाल फनों से लपेट लिया। पर यह तो वही बालक था जिसने पूतना, शक्रासुर, तृणावर्त को पराजित किया था! कृष्ण ने अपनी शक्ति से फनों को छुड़ाया और फिर कालिया के सिर पर कूदकर नृत्य करने लगे।

कृष्ण के नृत्य से कालिया के फन झुक गए। उसकी पत्नियाँ, नागिनियाँ, आकर कृष्ण से क्षमा याचना करने लगीं —

 “हे नाथ, हमारे पति को छोड़ दें। हम आपके शरणागत हैं।”



कृष्ण ने कालिया को आदेश दिया कि वह इस स्थान को छोड़कर समुद्र में जाए, ताकि यमुना का जल फिर से स्वच्छ हो सके। कालिया ने वचन दिया और परिवार सहित चला गया।


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अध्याय 12 – बृज की रासलीला

अब कृष्ण किशोरावस्था में प्रवेश कर चुके थे। उनकी बाँसुरी की मधुर ध्वनि सुनकर बृज की गोपियाँ अपने घर-आँगन, रसोई और कार्य छोड़कर उनके पास आ जातीं।

एक शरद पूर्णिमा की रात, चाँदनी में यमुना किनारे, कृष्ण ने अपनी बाँसुरी बजाई। उसकी धुन में ऐसा आकर्षण था कि सभी गोपियाँ जैसे सम्मोहन में बंध गईं। वे सज-संवरकर आ पहुँचीं।

कृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा —

“तुम सब अपने-अपने घर जाओ, यह उचित समय नहीं।”



पर गोपियाँ बोलीं —

 “हम घर कैसे जाएँ, जब हमारे हृदय आपके चरणों में हैं?”



तब कृष्ण ने सबके साथ रासलीला रची। प्रत्येक गोपी के साथ वे अलग-अलग रूप में नाचते दिखाई दिए। आकाश से देवताओं ने पुष्पवर्षा की, यमुना की लहरें मधुर लय में बहने लगीं।

यह केवल नृत्य नहीं था, यह आत्मा और परमात्मा का मिलन था।


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अध्याय 13 – कंस के षड्यंत्र

मथुरा का राजा कंस, जिसकी नींद अब भी कृष्ण के नाम से उड़ चुकी थी, बार-बार राक्षस भेजता, पर सब विफल हो जाते। अंत में उसने एक योजना बनाई —

 “कृष्ण और बलराम को मथुरा बुलाकर यहीं समाप्त कर दूँ।”



उसने अक्रूर को आदेश दिया कि वह नंदग्राम जाए और दोनों को मथुरा आमंत्रित करे। अक्रूर, जो वास्तव में भगवान के भक्त थे, यह सुनकर प्रसन्न हुए कि उन्हें कृष्ण-दर्शन का अवसर मिलेगा।


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अध्याय 14 – मथुरा की ओर प्रस्थान

जब अक्रूर रथ लेकर गोकुल पहुँचे, तो कृष्ण-बलराम को बुलाया। नंद और यशोदा का हृदय भारी हो गया — उन्हें पता था कि यह विदाई साधारण नहीं है। गोपियाँ तो रो-रोकर कह रही थीं —

 “कृष्ण, हमें छोड़कर मत जाओ।”



पर कृष्ण ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे हमेशा उनके हृदय में रहेंगे।

रथ पर सवार होकर जब कृष्ण-बलराम मथुरा की ओर निकले, तो गोकुल की गलियाँ जैसे मौन हो गईं।


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अध्याय 15 – मथुरा में प्रवेश और कंस वध

मथुरा पहुँचकर कृष्ण ने सबसे पहले एक दुष्ट हाथी, कुवलयापीड, का वध किया, जो उनके मार्ग में खड़ा किया गया था। फिर उन्होंने मल्लयुद्ध में चाणूर और मुष्टिक जैसे पहलवानों को परास्त किया।

अंततः वे कंस के दरबार में पहुँचे। कंस ने देखा, तो भय और क्रोध से काँप उठा।

कृष्ण ने छलांग लगाकर उसे उसके सिंहासन से खींचा और उसी के राजसभा में उसका वध कर दिया। मथुरा के लोग “जय श्रीकृष्ण” के जयघोष से गूँज उठे।



गोपियों और गोपों ने उनकी बात मान ली और गोवर्धन पूजा की। इससे इंद्र क्रोधित हो गया और उसने गोकुल पर लगातार वर्षा और तूफान बरसाना शुरू कर दिया।


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अध्याय 10 – गोवर्धन उठाना

जब मूसलधार वर्षा से गोकुल डूबने लगा, तब कृष्ण ने अपनी छोटी अंगुली से गोवर्धन पर्वत को उठाकर छत्र की तरह गाँववासियों को आश्रय दिया। सात दिन और सात रात तक सभी उसी पर्वत के नीचे सुरक्षित रहे। इंद्र ने अंततः अपनी भूल स्वीकार की और कृष्ण के चरणों में झुक गया।

अध्याय 11 – कालिया नाग का मर्दन

यमुना का जल उस समय गोकुल में कोई भी आसानी से नहीं पीता था। कारण था — कालिया नामक एक विशालकाय, विषैला नाग, जिसने नदी के एक हिस्से को अपना घर बना लिया था। उसके विष से जल उबलता रहता, पेड़-पौधे तक सूख जाते थे, और जो भी पशु-पक्षी उस जल को छूता, तत्काल मर जाता।

एक दिन खेलते-खेलते कृष्ण और उनके मित्र यमुना किनारे आ पहुँचे। गेंद खेलते-खेलते गेंद जल में चली गई। सब डर गए, लेकिन कृष्ण मुस्कुराते हुए बोले —

 “अरे, डर क्यों? यह जल हमारा भी है, कालिया का अकेले का नहीं।”



कहते ही कृष्ण नदी में कूद गए। नाग ने देखा कि कोई उसके क्षेत्र में आया है, तो वह फुफकारता हुआ प्रकट हुआ। उसका शरीर श्यामवर्णी, फन पर चमकते हुए मणि, और आँखों से निकलती ज्वाला मानो जल को भी जला दे।

कालिया ने कृष्ण को लपेट लिया, परंतु कृष्ण तो भगवान थे। उन्होंने अपने शरीर को इतना भारी कर दिया कि नाग की पकड़ ढीली पड़ गई। फिर वे उसके फनों पर चढ़ गए और नृत्य करने लगे — हर फन पर ताल से कूदते, मानो वे कोई वंशी की धुन बजा रहे हों।

नागिन और उसके बच्चे भयभीत होकर विनती करने लगे। अंततः कृष्ण ने कालिया को आदेश दिया —

 “यहाँ से तुरंत निकल जाओ, और समुद्र में जाओ। यह यमुना मेरे बृजवासियों के लिए है।”



कालिया अपने परिवार सहित वहाँ से चला गया, और यमुना का जल पुनः स्वच्छ हो गया।


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अध्याय 12 – गोपियों का स्नेह और रासलीला का आरंभ

जैसे-जैसे कृष्ण किशोरावस्था में पहुँचे, बृज की गोपियाँ उन पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने लगीं। उनका रूप, उनकी वंशी की तान, और उनकी मधुर वाणी सभी के मन को भा जाती थी।

एक शरद पूर्णिमा की रात, चंद्रमा का प्रकाश यमुना के जल पर दूधिया आभा बिखेर रहा था। उस समय कृष्ण ने अपनी वंशी बजाई। वह धुन इतनी मनमोहक थी कि खेतों, घरों, और रसोई तक में काम करती गोपियाँ सब कुछ छोड़कर निकल पड़ीं।

वन में पहुँचकर उन्होंने कृष्ण को देखा। वहाँ रास का आयोजन हुआ — जहाँ प्रेम और भक्ति एकाकार हो गए। हर गोपी को लगा कि कृष्ण केवल उसके साथ हैं। यह दिव्य रास कई युगों तक भक्ति के प्रतीक के रूप में स्मरण किया जाता है।


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अध्याय 13 – मथुरा गमन की तैयारी

कंस को अब स्पष्ट हो गया कि गोकुल का नंदलाल ही उसका काल है। उसने अक्रूर को भेजकर कृष्ण और बलराम को मथुरा बुलवाया। अक्रूर ने उन्हें संदेश दिया, और नंद-यशोदा की आँखों में विदाई के आँसू भर आए।

गोकुलवासी स्तब्ध थे — उनका कान्हा उनसे दूर जा रहा था। कृष्ण ने सबको आश्वासन दिया —

“माँ, अरे मइया, रो मत। मैं शीघ्र लौटूँगा।”




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अध्याय 14 – कंस वध

मथुरा पहुँचकर कृष्ण और बलराम ने धनुर्भंग किया, जिससे कंस के सैनिक चकित रह गए। दूसरे दिन कुश्ती का आयोजन हुआ। कृष्ण ने मल्लयुद्ध में चाणूर को परास्त किया, और बलराम ने मुष्टिक को। अंत में कृष्ण ने कंस को उसके सिंहासन से घसीटकर अखाड़े में ला पटका और उसका वध कर दिया।

मथुरा में जयघोष गूँज उठा —

“कन्हैया लाल की जय!”
अध्याय 15 – मथुरा पर आक्रमण और द्वारका की स्थापना

कंस के वध के बाद मथुरा में शांति लौट आई, लेकिन यह अधिक समय तक नहीं रह सकी। कंस के साले जरासंध ने बदला लेने के लिए बार-बार मथुरा पर आक्रमण किया। वह इतना शक्तिशाली था कि मथुरा की रक्षा करना कठिन होने लगा।

कृष्ण ने अपने मंत्रियों से विचार-विमर्श कर निर्णय लिया —

“हम इस युद्ध को समाप्त नहीं कर सकते, लेकिन हम अपने लोगों को सुरक्षित स्थान पर ले जा सकते हैं।”



तब समुद्र के किनारे एक नया नगर बसाया गया, जो बाद में द्वारका कहलाया। यह नगर सात परतों वाली दीवारों से घिरा, भव्य महलों और स्वर्ण-रजत की शोभा से चमकता हुआ था। द्वारका की स्थापना कृष्ण की सबसे बड़ी रणनीतिक सफलताओं में से एक मानी जाती है।


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अध्याय 16 – रुक्मिणी विवाह

विदर्भ की राजकुमारी रुक्मिणी ने बचपन से ही कृष्ण को अपना पति मान लिया था। लेकिन उसके भाई रुक्मी ने उसका विवाह शिशुपाल से करने की योजना बनाई।

रुक्मिणी ने एक गुप्त संदेश कृष्ण को भेजा —

“यदि आप मुझे अपना मानते हैं, तो विवाह के दिन आकर मुझे अपहरण कर लें।”



विवाह के दिन, जब रुक्मिणी मंदिर में देवी की पूजा कर रही थी, कृष्ण रथ पर आए और उसे अपने साथ ले गए। रुक्मी ने पीछा किया, पर बलराम ने उसे परास्त कर दिया। इस प्रकार कृष्ण और रुक्मिणी का विवाह हुआ, जो प्रेम और विश्वास का प्रतीक बन गया।


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अध्याय 17 – सुदामा प्रसंग

कृष्ण के बचपन के मित्र सुदामा एक गरीब ब्राह्मण थे। वर्षों बाद, सुदामा अपनी पत्नी के आग्रह पर कृष्ण से मिलने द्वारका आए। उनके पास भेंट में केवल चिउड़े थे, जिन्हें उन्होंने कपड़े में बाँध रखा था।

द्वारका पहुँचे तो कृष्ण उन्हें देखकर इतने प्रसन्न हुए कि सिंहासन से कूदकर गले लग गए। उन्होंने अपने मित्र के पाँव धोए और स्वयं उनके लाए चिउड़े खाए।

कृष्ण ने बिना बताए सुदामा के घर धन-धान्य से भर दिया। यह प्रसंग दर्शाता है कि सच्चा मित्र वही है जो समय और स्थिति से परे हो।


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अध्याय 18 – महाभारत युद्ध में कृष्ण की भूमिका

जब पांडवों और कौरवों के बीच युद्ध की तैयारी हुई, दोनों ने कृष्ण से सहयोग माँगा। कृष्ण ने कहा —

 “मेरे एक ओर मैं स्वयं बिना हथियार के रहूँगा, और दूसरी ओर मेरी पूरी नारायणी सेना होगी।”



दुर्योधन ने सेना चुनी, और अर्जुन ने स्वयं कृष्ण को अपना सारथी बना लिया।

कुरुक्षेत्र में, जब अर्जुन ने अपने ही संबंधियों को देखकर युद्ध करने से इंकार किया, तब कृष्ण ने उन्हें भगवद्गीता का उपदेश दिया —

 “कर्म करते रहो, फल की चिंता मत करो।”




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अध्याय 19 – युद्ध का अंत और द्वारका वापसी

महाभारत युद्ध 18 दिनों तक चला और अंततः पांडव विजयी हुए। लेकिन यह विजय अपार विनाश के बाद मिली। कृष्ण ने अपने वचनों के अनुसार कभी हथियार नहीं उठाया, परंतु उनकी नीति और मार्गदर्शन से धर्म की जीत हुई।


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अध्याय 20 – द्वारका का अंत और स्वधाम गमन

यदुवंश में धीरे-धीरे कलह बढ़ने लगी। एक दिन समुद्र ने द्वारका को निगल लिया। कृष्ण समुद्र किनारे बैठे थे, जब एक शिकारी ने उन्हें हिरण समझकर बाण चला दिया। यह बाण उनके पैर में लगा।

कृष्ण मुस्कुराए —

 “जो आया है, उसे जाना ही है।”

वे अपने स्वरूप को त्यागकर स्वधाम चले गए।